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Editorial: ग्रामीण रोजगार के नए मॉडल से राज्यों पर बढ़ेगी जिम्मेदारी

नई ग्रामीण रोजगार योजना में मनरेगा के ढांचे को बदला गया है जिसमें रोजगार दिनों की संख्या बढ़ाई गई है और राज्यों की हिस्सेदारी बढ़ाकर क्रियान्वयन बदलाव किए गए हैं

Last Updated- December 16, 2025 | 9:34 PM IST
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प्रतीकात्मक तस्वीर | फाइल फोटो

केंद्र सरकार ने मंगलवार को विकसित भारत- गारंटी फॉर रोजगार ऐंड आजीविका मिशन (ग्रामीण) या वीबी- जी राम जी, विधेयक संसद में पेश किया। यह महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम यानी मनरेगा के तहत चल रहे ग्रामीण रोजगार गारंटी कार्यक्रम में ही संशोधन है। कहा जा रहा है कि दो दशक पहले मनरेगा के आने के बाद से ग्रामीण अर्थव्यवस्था में काफी बदलाव आया है और नया कानून ग्रामीण भारत की बदलती हकीकत और जरूरत को ध्यान में रखता है। यह रोजगार मुहैया कराने के तरीकों में अहम बदलाव का प्रस्ताव रखता है जिनमें से कुछ पर कई राज्य सरकारें आपत्ति भी जता रही हैं।

विधेयक में प्रत्येक परिवार के लिए रोजगार गारंटी के दिनों की तादाद बढ़ाकर 125 करने का प्रस्ताव है। इससे ग्रामीण भारत के काम तलाशने वाले लोगों को लाभ होना चाहिए। हालांकि ध्यान देने योग्य बात यह है कि बीते दो दशकों में मनरेगा के माध्यम से सालाना औसतन 50 दिनों का ही रोजगार मिला है जबकि इसके अंतर्गत 100 दिनों के रोजगार का प्रावधान है। इसलिए दिनों की संख्या बढ़ाना तभी मददगार हो सकता है जब रोजगार के पर्याप्त अवसर बनें और उपलब्ध कराए जाएं।

रिपोर्ट यह भी बताती हैं कि मनरेगा के तहत काम तलाशने वाले श्रमिकों को हमेशा रोजगार नहीं मिला। इस बारे में यह उल्लेखनीय है कि नई योजना मनरेगा की तरह मांग आधारित नहीं होगी। इसमें भारत सरकार की अधिकांश योजनाओं की तरह मानक फंडिंग होगी। इससे बेहतर योजना बनाने और पूर्वानुमान में मदद मिलेगी। यह एक केंद्र प्रायोजित योजना होगी और अन्य केंद्रीय योजनाओं की तरह वित्तीय बोझ राज्यों के द्वारा साझा किया जाएगा।

मनरेगा के तहत राज्यों ने सामग्री की लागत का 25 फीसदी और प्रशासनिक लागत का 50 फीसदी वहन किया। अब, अधिकांश राज्यों द्वारा कुल लागत का 40 फीसदी साझा करना उनके वित्तीय व्यय को बढ़ा सकता है। यह तर्क दिया जा सकता है कि इससे योजना की निगरानी और क्रियान्वयन में सुधार होगा क्योंकि अब राज्यों की हिस्सेदारी अधिक होगी। लेकिन संभव है कि कुछ राज्य अतिरिक्त व्यय करने की स्थिति में न हों या ऐसा करने के इच्छुक न हों। वास्तव में, यह सामान्य रूप से केंद्र प्रायोजित योजनाओं पर बड़े प्रश्न उठाता है।

जैसा कि भारतीय रिजर्व बैंक की राज्य वित्त रिपोर्ट (2024) ने सही रूप से उल्लेख किया है, बहुत अधिक केंद्रीय योजनाएं राज्यों के खर्च करने के लचीलापन को प्रभावित करती हैं। केंद्रीय योजनाओं को युक्तिसंगत बनाने का मामला बनता है। संघवाद की भावना में, राज्यों को खर्च करने की अधिक स्वतंत्रता होनी चाहिए। यह देखना दिलचस्प होगा कि सोलहवें वित्त आयोग ने इस मुद्दे को कैसे संबोधित किया है।

वीबी-जी राम जी का अहम पहलू यह है कि यह कृषि क्षेत्र में श्रमिकों की जरूरत पर ध्यान देती है। राज्य बोआई या कटाई के दौरान कुल मिलाकर 60 दिनों तक की अवधि अधिसूचित कर सकते हैं, जब योजना के तहत कार्य स्थगित रहेगा, ताकि कृषि कार्य के लिए उचित मजदूरी पर श्रम उपलब्ध हो सके। इसके अतिरिक्त, नया कानून ग्रामीण रोजगार प्रदान करने और टिकाऊ बुनियादी ढांचा बनाने का लक्ष्य रखता है, जिसमें जल सुरक्षा, मौसम की अतिरंजित घटनाओं को कम करने के लिए कार्य, और मुख्य ग्रामीण बुनियादी ढांचे जैसे क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित किया जाएगा। यह काम के लिए स्थानीय योजना की परिकल्पना करता है जो राष्ट्रीय स्थानिक प्रणालियों के साथ एकीकृत हो।

व्यापक रूप से देखें तो प्रस्तावित कानून में सुधार और विवादास्पद प्रावधान दोनों शामिल हैं। परंतु इसे देश की रोजगार चुनौतियों का हल नहीं माना जाना चाहिए। कोविड महामारी के दौरान मनरेगा काफी मददगार साबित हुई थी। इसके तहत काम की मांग में अब कमी देखने को मिली है जो एक सकारात्मक संकेत है। रोजगार गारंटी योजना का नाम चाहे जो भी हो नीति का ध्यान बेहतर वेतन वाली नौकरियां निर्मित करने पर होना चाहिए ताकि ऐसी योजनाओं पर निर्भरता धीरे-धीरे कम हो सके। यह बात अवश्य बहसतलब है कि क्या गारंटीकृत ग्रामीण रोजगार देने वाले कानून से महात्मा गांधी का नाम हटाना जरूरी था?

First Published - December 16, 2025 | 9:34 PM IST

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