भारत के आर्थिक एवं नीतिगत ताने-बाने में केंद्रीय बजट सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कड़ी होती है। 1 फरवरी को प्रस्तुत होने वाला बजट कई दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण होने जा रहा है। कोविड महामारी के बाद कदाचित सामान्य परिस्थितियों में प्रस्तुत होने वाला यह पहला बजट होगा जिसमें निकट भविष्य के लिए अनुमान दिए जाएंगे।
यह बजट इसलिए भी महत्त्वपूर्ण होगा कि 2024 में आसन्न लोकसभा चुनाव से पहले यह अंतिम पूर्ण बजट होगा। वित्त मंत्री के अभिभाषण और बजट में व्य़क्त अनुमानों एवं प्रावधानों पर आर्थिक एवं राजनीतिक दृष्टिकोण से विश्लेषण तो होंगे ही मगर तीन विषय विशेष विशेष महत्त्व के होंगे।
इनमें पहला विषय वृद्धि अनुमान से संबंधित है। चालू वित्त वर्ष के लिए अनुमान सतर्क साबित हुए। मगर वित्त वर्ष 2023-24 में नॉमिनल (महंगाई समायोजन के बिना) और वास्तविक घरेलू उत्पाद (जीडीपी) वृद्धि दरें संभवतः कम रह सकती हैं। राष्ट्रीय आय के पहले अग्रिम अनुमानों में चालू वर्ष में वास्तविक जीडीपी वृद्धि दर 7 प्रतिशत रहने का अनुमान लगाया गया है।
उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार चालू वित्त वर्ष की पहली छमाही में वास्तविक वृद्धि दर 9.7 प्रतिशत रही। इसका आशय है कि कि दूसरी छमाही में वृद्धि दर लगभग 4.3 प्रतिशत रह सकती है। कमजोर आधार के कारण पहली छमाही में वृद्धि दर अधिक रही थी। कोविड महामारी की दूसरी लहर के कारण 2021-22 की पहली छमाही में आर्थिक सुधार की गति बाधित हुई थी।
ध्यान देने योग्य बात है कि कई अनुमानों के अनुसार 2023-24 में जीडीपी वृद्धि दर लगभग 6.5 प्रतिशत रह सकती है। चूंकि, कोविड महामारी से संबंधित आधार प्रभाव अब समाप्त हो चुका है इसलिए यह स्पष्ट नहीं है कि चालू वित्त वर्ष की दूसरी छमाही में जीडीपी वृद्धि दर को किन बातों से दम मिलेगा। यह बात इसलिए भी विचारणीय है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था की गति धीमी पड़ने का अनुमान है और अधिकांश विकसित देश आर्थिक सुस्ती की चपेट में आ सकते हैं। इसके अलावा महंगाई भी कम हो सकती है।
उदाहरण के लिए थोक मूल्य सूचकांक आधारित महंगाई दर दिसंबर में कम होकर 7 प्रतिशत रह गई। पिछले दो वर्षों के दौरान औसत महंगाई दर 11.5 प्रतिशत रही थी। इस तरह, अगले वित्त वर्ष में नॉमिनल जीडीपी वृद्धि दर चालू वित्त वर्ष की अनुमानित 15.4 प्रतिशत से कहीं कम रह सकती है। इस आंकड़े का सटीक अनुमान लगाना आवश्यक है क्योंकि राजस्व एवं व्यय के अनुमान इसी पर निर्भर हैं।
आंकड़े अनुमान से अधिक रहते हैं तो मदद मिलती है मगर कमजोर वृद्धि कई समस्याओं को आमंत्रण दे सकती है। सरकार ने हाल के वर्षों में इस मोर्चे पर सतर्क अनुमान देकर ठीक ही किया है। 10-11 प्रतिशत से ऊपर कोई भी आंकड़ा बाद में पेचीदा हालात पैदा कर सकता है।
राजकोषीय स्थिति दूसरा महत्त्वपूर्ण विषय होगा जिस पर सबकी नजरें होंगी। इस संदर्भ में तार्किक अनुमानों से राजकोषीय स्थिति का प्रबंधन करना आसान हो जाएगा। सरकार ने दोहराया है कि वह चालू वित्त वर्ष के लिए राजकोषीय घाटा जीडीपी का 6.4 प्रतिशत तक सीमित रखने के लक्ष्य में बदलाव नहीं करेगी। नॉमिनल जीडीपी और कर राजस्व की वृद्धि दरें अनुमान से अधिक रहने की उम्मीदों के बीच सरकार राजकोषीय स्थिति तेजी से मजबूत करने का लक्ष्य रख सकती थी।
मान लें कि सरकार अतिरिक्त कर राजस्व खर्च करती है मगर रोजकोषीय घाटा पूर्ण रूप में बजट अनुमानों के अनुरूप रखती है तो उस स्थिति में अग्रिम अनुमानों के अनुसार जीडीपी के प्रतिशत के रूप में राजकोषीय घाटा कम होकर लगभग 6 प्रतिशत रह जाएगा। चालू और पिछले वर्ष दोनों में ही नॉमिनल जीडीपी और राजस्व वृद्धि दरें अधिक रही थीं, जिनसे राजकोषीय सुदृढ़ीकरण अधिक तेज गति से करने का अवसर मिला था। जीडीपी वृद्धि दर सुस्त पड़ती है तो राजकोषीय सुदृढ़ीकरण चुनौतीपूर्ण हो सकता है जिससे ऊंचा ऋण एवं जीडीपी अनुपात हालात और बिगाड़ सकता है।
सरकार 2025-26 तक राजकोषीय घाटा जीडीपी का 4.5 प्रतिशत तक सीमित रखने के लक्ष्य के साथ चल रही है। अगर सरकार चालू वित्त वर्ष में घाटा 6.4 प्रतिशत तक सीमित करने के लक्ष्य पर डंटी रहती है तो अगले दो वर्षों में इसे 2 प्रतिशत अंक और कम करना चुनौतीपूर्ण रह सकता है। चुनावी बाध्यताओं के कारण भी राजकोषीय घाटा तेजी से कम करना आने वाले वर्षों में चुनौतीपूर्ण सरल नहीं रहेगा।
उदाहरण के लिए सरकार ने 2023 में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के प्रावधान के तहत अनाज वितरण निःशुल्क कर दिया है। इसकी पूरी संभावना है कि निःशुल्क अनाज वितरण आगे भी जारी रहेगा। यद्यपि इस योजना का बजट पर कोई विशेष प्रभान नहीं पड़ेगा मगर यह भी हो सकता है कि सरकार अपनी क्षमता के बाहर जाकर भी मदद देना जारी रखे।
आर्थिक वृद्धि दर सुस्त पड़ने की आशंका और निजी क्षेत्र की तरफ से निवेश आने में और देरी होने की चर्चाओं के बीच ऐसी मांग उठ रही है कि सरकार को पूंजीगत व्यय बढ़ाने पर लगातार ध्यान देना चाहिए। पूंजीगत व्यय बढ़ाने में कोई हर्ज नहीं है मगर इसके लिए सरकार को राजकोषीय सुदृढ़ीकरण में देरी किए बिना संसाधन खोजने की आवश्यकता होगी।
राजकोषीय घाटा लगातार ऊंचे स्तर पर रहने से न केवल निजी निवेश पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा बल्कि नीतिगत उपायों के लिए भी गुंजाइश कम रह जाएगी। केंद्र सरकार को कर राजस्व के रूप में जितनी रकम मिलती है उसका लगभग आधा हिस्सा ब्याज भुगतान में जाता है। बाजार से उधारी बढ़ी तो समस्याएं और पेचीदा हो जाएंगी। वैश्विक स्तर पर अनिश्चितताओं को देखते हुए सरकार को नीतिगत स्तरों पर कुछ उपायों के साथ तैयार रहना चाहिए।
उदाहरण के लिए यूक्रेन युद्ध बंद नहीं हुआ और हालात बिगड़ते गए तो पूरी वैश्विक अर्थव्यवस्था चौपट हो सकती है। यह भी ध्यान रहे कि निकट अवधि में राजकोषीय घाटा 4.5 प्रतिशत तक सीमित रखने का लक्ष्य आसान नहीं है और सुदृढ़ीकरण जारी रखने के लिए कई वर्षों तक प्रयास जारी रखने की आवश्यकता होगी।
अंत में व्यापार पर सरकार का रुख भी महत्त्वपूर्ण होगा। पिछले कई वर्षों से बजट में सरकार शुल्क बढ़ाती रही है। ऐसा करना व्यापार के दृष्टिकोण से हितकर नहीं रहा है और वैश्विक मूल्य श्रृंखला का महत्त्वपूर्ण हिस्सा बनने की भारत की क्षमता पर भी प्रतिकूल असर हुआ है। ऐसी खबरें आ रही हैं कि कई बहुराष्ट्रीय कंपनियां विभिन्न कारणों से चीन से निकल रही हैं और दूसरे देशों में कारोबार बढ़ाने की संभावनाएं तलाश रही हैं।
भारत इस स्थिति का लाभ उठा सकता है। हालांकि बड़ी एवं पेचीदा मूल्य श्रृंखला का हिस्सा होने के कारण इनमें कुछ कंपनियां उन देशों को तरजीह देंगी जहां व्यापार अनुकूलता अधिक है और वस्तुओं का आवागमन भी निर्बाध है। इन परिस्थितियों के बीच सरकार अगर व्यापार शुल्क कम करने की दिशा में कदम बढ़ाती है तो यह लाभकारी होगा और निवेश के एक आकर्षक स्थान के रूप में भारत को और अधिक प्रचारित किया जा सकेगा। भारत को व्यापार के मोर्चे पर अवसर नहीं गंवाना चाहिए। निर्यात बढ़ेगा तो अधिक टिकाऊ आर्थिक वृद्धि दर हासिल करने में मदद होगी।