भारत और अमेरिका के रिश्तों में बीते दो दशकों में काफी सुधार हुआ है। यह एक ऐसा तथ्य है जिसे कहने की जरूरत शायद ही है। सन 2016 में अमेरिकी कांग्रेस के एक संयुक्त सत्र को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि दोनों देशों के आपसी रिश्ते ‘ऐतिहासिक हिचकिचाहट’ को पार कर चुके हैं तथा उन्होंने ‘बाधाओं को साझेदारी के पुलों’ में तब्दील कर दिया है।
परंतु अब जबकि हम ऐसे एक और भाषण की प्रतीक्षा कर रहे हैं तो क्या नई हिचकिचाहटें उभर आई हैं? यदि ऐसा हुआ है तो क्या भारत और अमेरिका के रिश्तों में नई बाधाएं भी वैसी ही हैं जैसी अतीत में थीं? भारत और अमेरिका के रिश्तों ने उस समय गति पकड़ी थी जब जॉर्ज डब्ल्यू बुश अमेरिका के राष्ट्रपति थे, तब से अब तक भारत और अमेरिका दोनों बहुत बदल चुके हैं।
दरअसल 2023 का अमेरिका वैसा बिल्कुल नहीं है जैसा 2003 का अमेरिका था। 9/11 का झटका लगने के बावजूद अमेरिका को अपनी ताकत पर यकीन था और वह मानता था कि वह दुनिया को बदल सकता है। जो बाइडन के नेतृत्व वाला अमेरिका कहीं अधिक शंकालु है और बाहरी दुनिया पर उसकी नजर कम ही है। दो दशकों का आर्थिक संकट, नस्लीय तनाव, तमाम जंगों और घरेलू स्तर पर बगावत की कोशिशों ने अमेरिका को बदल दिया है।
इस बीच भारत को अपने उदय पर पूरा यकीन है। वह वैश्विक मामलों में वह स्थान पाना चाहता है जो उसके मुताबिक उसे मिलना चाहिए। परंतु सन 2000 के दशक के उलट वह संभवत: यह भी सोच रहा है कि पश्चिम के साथ करीबी रिश्ते की कीमत बहुध्रुवीय विश्व के रूप में चुकानी होगी और भारत का वैश्विक नेतृत्व इससे संबद्ध है। एक भावना यह भी है कि अमेरिका के पास अब देने को उतना कुछ नहीं है जितना पहले था।
अपने बारे में इन धारणाओं को जब साथ रखकर देखा जाए तो इसके मूल में एक धीमा पड़ता और काफी ठहरा हुआ सा रिश्ता नजर आता है। उन्हीं मानकों पर देखें तो निश्चित रूप से तरक्की भी हो रही है: उदाहरण के लिए खुफिया जानकारियों और तकनीक के मोर्चे पर सहयोग भी ऐसा ही एक क्षेत्र है। परंतु अतीत में ऐसी प्रगति को व्यापक और गहन सहयोग के प्रमाण के रूप में देखा जाता था, आज उन्हें अपने आप में अलहदा कामयाबी के रूप में देखा जाता है।
भारत और अमेरिका के रिश्ते की बात करें तो अतीत में इसे आगे बढ़ाने वाले दो कारक थे आर्थिक एकीकरण से साझा मुनाफा और आम लोगों के आपसी संपर्क के कारण उत्पन्न करीबी। खासतौर पर भारतीय प्रवासी। अब ये एकदम अलग तरह से व्यवहार कर रहे हैं।
सन 2000 के दशक में भारत को बड़े अमेरिकी निर्माताओं के संभावित केंद्र के रूप में देखा जा रहा था। अर्थव्यवस्था के विभिन्न उत्पादक क्षेत्रों में अमेरिकी निवेश की संभावनाएं स्वागतयोग्य पहलू थीं। आज निवेश को दोधारी तलवार माना जाता है। ऐसा आंशिक तौर पर इसलिए कि भारत के जो क्षेत्र अमेरिकी हित में हैं, जिसमें तकनीक और खुदरा क्षेत्र शामिल हैं उनकी राजनीतिक अर्थव्यवस्था विनिर्माण से बहुत अलग है।
तकनीक क्षेत्र की बात करें तो अमेरिका की बड़ी तकनीकी कंपनियां भारत की पसंदीदा नहीं हैं। खुदरा क्षेत्र, खासकर ई-रिटेल क्षेत्र को छोटे कारोबारियों के साथ सीधी प्रतिस्पर्धा में माना जाता है। यानी दो क्षेत्र जो करीबी आर्थिक रिश्तों की अहम दलील हैं वे राजनीतिक पहुंच के मामले में कमजोर हैं।
इस बीच भारतीय प्रवासियों की बात करें तो प्रधानमंत्री की अमेरिका यात्रा भारत के दर्जे की याद ताजा करेगी और उन भारतीयों के कदम को गति प्रदान करेगी। अतीत में भारत-अमेरिका की सक्रियता और भारतीय प्रवासियों की बढ़ती राजनीतिक मजबूती ने उसे यह अवसर प्रदान किया कि वह भारत और अमेरिका के रिश्तों की गति प्रदान करे। वह लक्ष्य हासिल हो चुका है।
इसलिए तथ्य यह है कि आज भारत और अमेरिकी की सक्रियता द्विपक्षीय रिश्तों के मामले में किसी खास लक्ष्य पर केंद्रित नहीं हैं। एक-आध को छोड़ दिया जाए तो प्रमुख भारतीय और अमेरिकी राजनेता करीबी रिश्तों के बड़े हिमायती नहीं हैं।
ऐसे में भारत और अमेरिका के बीच करीबी की दीर्घकालिक रणनीति के पीछे केवल एक दलील बचती है- यह साझा चिंता कि चीन का उभार शांतिपूर्ण नहीं बल्कि उथलपुथल मचाने वाला होगा। चीन के दबदबे वाला कारक हमेशा नहीं था। बल्कि अतीत में तो एक अलग सामरिक बहस ही हमारी करीबी के पीछे थी।
बीस वर्ष पहले इस्लामिक आतंकवाद का मुद्दा हमें साथ लाया था। मनमोहन सिंह ने कांग्रेस के संयुक्त सत्र को संबोधित करते हुए जोर देकर कहा था कि दोनों देशों के समाज खुले हुए हैं और आतंकवाद की समान चुनौती झेल रहे हैं।
भारत और अमेरिका ने उस साझा खतरे से निपटने के लिए अलग-अलग तरीके अपनाए, खासकर पाकिस्तान के संदर्भ में। अमेरिका पाकिस्तानी सेना के जनरलों की सदाशयता पर निर्भर हो गया ताकि वे अफगानिस्तान में चल रही जंग के लिए आपूर्ति का मार्ग खुला रखें।
जबकि भारत ने उन जनरलों को आतंकी नेटवर्क का प्रायोजक और उन्हें धन मुहैया कराने वाला माना। समय के साथ आतंकवाद के नाम पर बनी सहमति असहमति में बदल गई और पाकिस्तान के साथ व्यवहार भी इसकी वजह बना। फिर अचानक अमेरिका ने अफगानिस्तान को तालिबान के हाथों में छोड़ दिया।
चीन को लेकर बनी सामरिक करीबी में भी वैसी ही कमजोरियां हैं। अमेरिका धीरे-धीरे यह समझ रहा है कि अगर चीन ताइवान पर पेशकदमी करता है तो भारत शायद कुछ नहीं करेगा। यूक्रेन पर रूसी आक्रमण को लेकर भारत की खामोशी के बाद सवाल उठ रहा है कि क्या ऐसे आक्रमण की स्थिति में एक दूसरे लोकतांत्रिक देश के हक में भारत आवाज भी बुलंद करेगा।
कुछ भारतीय नीति निर्माता इशारा करते हैं कि भारतीय सीमाओं पर चीन ने दबाव बनाया तो अमेरिकी जनसंपर्क विभाग की प्रतिक्रिया भी खामोश रही। हालांकि यह तुलना पूरी तरह सही नहीं है। खासतौर पर यह देखते हुए कि हाल के दिनों में ऐसी खबरें आई हैं कि अमेरिका से निकली खुफिया जानकारियों ने वास्तविक नियंत्रण रेखा पर भारत की मदद की।
राजकीय यात्रा के दिखावे से इतर दोनों देशों के रिश्तों के वास्तविक कारक को लेकर कई अहम सवाल उठाए जाएंगे। गतिशीलता कुछ सालों तक दोनों देशों को आगे ले जाएगी लेकिन आर्थिक, जनता द्वारा संचालित या सामरिक कारण के बिना दोनों देशों, सेनाओं और अर्थव्यवस्थाओं में एकजुटता मुश्किल नजर आती है। ऐतिहासिक हिचक भले ही इतिहास बन चुकी हो लेकिन मौजूदा दौर की अपनी हिचकिचाहटें हैं।