म्यांमार एक महत्त्वपूर्ण पड़ोसी है। भारत की सुरक्षा और बेहतरी में उसकी अहम भूमिका है। दोनों देशों के बीच 1,400 किलोमीटर लंबी सीमा है। भारत में पूर्वोत्तर के चार संवेदनशील राज्य-अरुणाचल प्रदेश, नगालैंड, मणिपुर और मिजोरम इस सीमावर्ती देश से लगे हुए हैं। दोनों देशों की सीमा के इधर और उधर समान जातीय समूहों के लोग रहते हैं। नगा, कुकी और मिजो (इन्हें म्यांमार में चिन कहा जाता है) दोनों देशों में बसे हुए हैं।
देश के पूर्वोत्तर इलाके में दशकों तक व्याप्त रही अशांति के दौरान नैशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड (खपलांग) अथवा एनएससीएन-के, यूनाइटेड लिबरल फ्रंट ऑफ असम (उल्फा) और कुकी नैशनल काउंसिल ने सीमा पार म्यांमार में अड्डा बनाए रखा।
सन 1980 तक म्यांमार ही वह रास्ता था जिसकी मदद से भारत के विद्रोही समूह दक्षिणी चीन के युन्नान से हथियार और सैन्य प्रशिक्षण हासिल करते। भारत द्वारा सन 1990 के दशक में मिलिट्री जुंटा यानी सैन्य शासन (तमरॉ) से संपर्क कायम करने की एक वजह पूर्वोत्तर की अशांति से निपटना और देश में चीन के बढ़ते प्रभाव का मुकाबला करना भी था। इसका अर्थ यह था कि पहले जहां भारत की नीति आंग सान सू ची तथा उनकी नैशनल लीग ऑफ डेमोक्रेसी (एनएलडी) का समर्थन करने की थी, उसे अब स्थगित करना था। तब से भारत के बुनियादी रुख में कोई बदलाव नहीं आया है।
2016 में जब देश में आंशिक रूप से लोकतंत्र कायम हुआ और अंग सान सू ची उसकी राजनीतिक नेता बनीं (उन्होंने स्टेट काउंसलर का पद संभाला), तब भी भारत ने जुंटा के साथ मजबूत रिश्ता कायम रखा और देश में उसकी ताकत और भूमिका को मान्यता दी। इसमें इस बात से भी मदद मिली कि खुद सू ची ने परदे के पीछे सेना की ताकतवर भूमिका को स्वीकार किया।
2021 के चुनावों में जब एनएलडी को जबरदस्त जीत हासिल हुई और ऐसी संभावना बनी कि लोकतांत्रिक बदलाव की प्रक्रिया आगे बढ़ेगी तब सेना प्रमुख मिन अंग हलाइंग के अधीन सैन्य शासन ने तख्तापलट किया और चुनाव नतीजों को अवैध घोषित करते हुए सू ची समेत राजनेताओं को गिरफ्तार कर लिया। बाद में उन पर देशद्रोह का इल्जाम लगाया गया। परंतु सन 1991 में जहां सेना ने इसी तरह एनएलडी के पक्ष में गए चुनाव नतीजों को अवैध बताकर खारिज कर दिया था, इस बार उसका शासन गंभीर चुनौतियों का सामना कर रहा है। इतिहास में पहली बार ऐसे हालात हैं जहां सैन्य शासन को उखाड़ फेंके जाने का भी खतरा है। यह कैसे हुआ?
म्यांमार की जटिल राजनीति में तीन अहम प्रतिभागी हैं। सैन्य शासन सबसे शक्तिशाली और संगठित शक्ति है। जातीय समूह जिनमें से 17 बड़े हैं, वे दूसरे अहम भागीदार हैं। वे पूरे देश में फैले हुए हैं और सन 1948 में ब्रिटिशों से देश की आजादी के बाद से ही सैन्य शासन के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष में रहे हैं। कई समूह अधिक क्षेत्रीय स्वायत्तता की मांग कर रहे हैं।
तीसरा अहम प्रतिभागी है बर्मन बहुसंख्यक जो देश के प्रमुख हिस्सों पर काबिज हैं और जिन्होंने सैन्य शासन के खिलाफ असैन्य लोकतांत्रिक विपक्ष कायम किया। सन 1991 के बाद से इसका प्रतिनिधित्व एनएलडी ने किया है जिसका नेतृत्व सू ची के पास है। बर्मन बहुसंख्यक विभिन्न जातीय समूहों की अलगाववादी गतिविधियों के भी खिलाफ हैं, हालांकि उन्होंने एक प्रकार से संघीय नीति को स्वीकार किया है। जातीय समूह एनएलडी और बर्मन बहुसंख्यकों को लेकर शंकालु रहे हैं।
म्यांमार में तीन ध्रुवों वाली स्थिति बरकरार है। अगर तीन में से दो भागीदार एक दूसरे के साथ समझ बना लेते हैं तो तीसरा अलग-थलग हो जाएगा। सन 1991 के चुनाव के बाद यही हुआ था। उस समय जब चीन की मदद से सैन्य शासन अधिकांश जातीय समूहों के साथ शांति समझौते और युद्ध विराम में सफल रहा तब उसे यह आजादी मिल गई कि वह असैन्य विपक्ष के साथ क्रूरता से निपटे। आज सैन्य शासन दो वजहों से मुश्किल में है।
सू ची के नेतृत्व में एनएलडी अहिंसक विरोध के लिए प्रतिबद्ध है लेकिन इस बार उसने सशस्त्र प्रतिरोध का रास्ता चुना है। उसने राष्ट्रीय एकता सरकार (एनयूजी) नामक समांतर सरकार बनाई है। पीपुल्स डिफेंस फोर्स (पीडीएफ) के नाम से उसकी अपनी सेना है। यह सेना विभिन्न जातीय समूहों की सेनाओं के साथ मिलकर लड़ रही है। इनमें कचिन इंडिपेंडेंस ऑर्गनाइजेशन, द करेन नैशनल यूनियन, द कारेन्नी प्रोग्रेसिव पार्टी और चिन नैशनल फ्रंट शामिल हैं। कुछ अन्य जातीय समूहों ने भी हाथ मिलाया है। इसमें म्यांमार डेमोक्रेटिक अलायंस आर्मी का ट्रिपल ब्रदरहुड अलायंस, ताआंग नैशनल आर्मी और अराकान आर्मी शामिल है।
म्यांमार के उत्तरी शान राज्य में सफलताओं के लिए यही गठबंधन जिम्मेदार है। वह राज्य चीन की सीमा से लगा हुआ है। गत 11 अप्रैल को थाई अधिकारियों ने इस बात की पुष्टि की थी कि माए सोत के सामने म्यावाडी में दोनों देशों की बीच की अहम सीमा करेन नैशनल यूनियन के नेतृत्व वाली सेना के हाथों ढह गई। इन सेनाओं ने ड्रोन का इस्तेमाल करके राजधानी नेपिडॉ में सैन्य ठिकानों पर हमले किए।
सैन्य शासन दबाव में है, उसके सैनिकों का नैतिक बल गिरा हुआ है। अगर भारत, चीन और थाईलैंड के साथ संलग्न सीमा वाला पूरा इलाका प्रतिरोधक सेनाओं द्वारा नियंत्रित होता है तो जुंटा के लिए आर्थिक हालात बहुत मुश्किल हो जाएगी। चीन एक तरफ सैन्य शासन का समर्थन कर रहा है तो वहीं कई बार वह जातीय समूहों के साथ स्थानीय सौदे करता है जो सीमावर्ती इलाकों पर काबिज हैं।
म्यांमार में गृह युद्ध पहले ही भारत तक आना शुरू हो चुका है। म्यांमार के आम नागरिक और सैनिक दोनों लड़ाई से बचने के लिए सीमा पार कर भारत आ रहे हैं। मिजोरम की सरकार सीमापार के इन जातीय भाइयों को शरण दे रही है। भारत सरकार ने सीमा के कुछ हिस्से की बाड़ेबंदी करने और दोनों देशों के बीच नि:शुल्क आवागमन बंद करने का निर्णय लिया है लेकिन इससे यह आवाजाही रुकती नहीं नजर आती।
सीमा बहुत लंबी है और कई जगह से आवागमन संभव है। घने जंगल हैं और जल धाराएं भी। अब शायद वक्त आ गया है कि हम सैन्य शासन के समर्थन की रणनीति की समीक्षा करें। संभव है प्रतिरोधक सेनाओं और एनयूजी के साथ चुपचाप संवाद कायम हो। एनयूजी को वैधता हासिल है क्योंकि वह एक निष्पक्ष चुनाव में जीते हुए प्रतिनिधियों से बनी है। अगर हम वक्त से आगे नहीं रहे तो पूर्वोत्तर में शांति और स्थिरता प्रभावित हो सकती है। मणिपुर में छिड़ी हिंसा, चेतावनी का संकेत हो सकती है।
(लेखक पूर्व विदेश सचिव हैं और म्यांमार में भारत के राजदूत रह चुके हैं)