राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) के ग्रामीण धारणा सर्वेक्षण, सितंबर 2025 में अन्य बातों के अलावा ग्रामीण क्षेत्रों में ऋण वितरण में प्रगति और इसमें लगातार जारी खामियों का जिक्र किया गया है। इस सर्वेक्षण में एक सकारात्मक पहलू यह निकल कर आया है कि अब 54.5 फीसदी परिवार केवल औपचारिक स्रोतों से ऋण लेते हैं, जो 2024 में सर्वेक्षण शुरू होने के बाद से अब तक का सबसे ऊंचा स्तर है। मगर लगभग 22 फीसदी ग्रामीण परिवार अभी भी पूरी तरह अनौपचारिक स्रोतों से प्राप्त ऋणों पर निर्भर हैं। यह वर्ग अभी भी ऊंची ब्याज दर का भुगतान कर रहा है।
औसत ब्याज दरें लगभग 17-18 फीसदी के आसपास हैं, जिनमें से एक तिहाई कर्जधारक सालाना 20 फीसदी से अधिक भुगतान करते हैं। लगभग 24 फीसदी परिवार औपचारिक एवं अनौपचारिक दोनों तरह के ऋणों पर निर्भर हैं। इसके अलावा, लगभग 30 फीसदी परिवार अपने परिजनों एवं दोस्तों से ऋण लेते हैं जिन पर कोई ब्याज नहीं देना होता है। इस तरह, भले ही बैंक ग्रामीण क्षेत्र में अपनी पहुंच बढ़ाने में सफल रहे हैं मगर ग्रामीण परिवारों का एक बड़ा हिस्सा अभी भी ऋण के अनौपचारिक स्रोतों पर निर्भर है।
भारतीय रिज़र्व बैंक (आरबीआई) की 2024-25 की सालाना रिपोर्ट के अनुसार पिछले एक दशक में ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकिंग शाखाओं की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। विशेष रूप से गांवों में शाखाओं की संख्या मार्च 2010 के 33,378 से बढ़कर दिसंबर 2024 तक 56,579 हो गई। मगर अब भी कई परिवार साहूकारों पर निर्भर हैं जो यह संकेत दे रहा है कि केवल बैंकों की शाखाओं की संख्या बढ़ना ही पर्याप्त नहीं है। ढांचागत व्यवस्था भी एक भूमिका निभाती है। कई ग्रामीण परिवारों को आय अस्थिरता, मौसमी जोखिमों और सरकार से घटते धन हस्तांतरण का सामना करना पड़ता है, जो अब मासिक आय का सिर्फ 9.27 फीसदी है। यह आंकड़ा सर्वेक्षण शुरू होने के बाद सबसे कम है। इन परिस्थितियों में भारी भरकम ब्याज के बावजूद अनौपचारिक ऋणों की तत्काल उपलब्धता और उनका लचीलापन अस्तित्व बनाए रखने की रणनीति के रूप में काम करते हैं।
सामाजिक और जनसांख्यिकीय कारक भी ऋण लेने के उद्देश्यों पर असर डालते हैं। नीति आयोग की 2025 की एक रिपोर्ट से पता चलता है कि 2019 से महिलाओं की तरफ से ऋणों की मांग 22 फीसदी चक्रवृद्धि दर से बढ़ रही है, जिनमें 60 फीसदी कर्जधारक कस्बाई एवं ग्रामीण क्षेत्रों से ताल्लुक रखती हैं। कई लोग ऋण लेना तो चाहते हैं मगर इसके लिए उनकी तैयारी दुरुस्त नहीं होती, मसलन दस्तावेज की कमी, गारंटी दाता की कमी एवं अन्य शर्तें बाधा डाल रही हैं।
ग्रामीण क्षेत्र में ऋण असमानता दूर करने के लिए शाखा विस्तार के अलावा दूसरे कदम भी उठाने की जरूरत है। आगे की राह दोतरफा है। सबसे पहले, प्राथमिकता क्षेत्र ऋण ढांचे को न केवल लक्ष्यों को बल्कि ऋण गुणवत्ता भी सुनिश्चित कर मजबूत बनाया जाना चाहिए। कमजोर वर्गों को होने वाले ऋण आवंटन पर नजर रखने और छोटे ऋणों, कम अवधि के ऋण वाली योजनाएं तैयार से साहूकारों पर निर्भरता कम होगी। इसके लिए बैंकों और सहकारी समितियों के लिए केंद्रित तंत्र तैयार करने की आवश्यकता है।
दूसरी बात, लागत कम करने और विश्वास बढ़ाने के लिए तकनीक का लाभ उठाया जा सकता है। ‘आधार’-आधारित सूक्ष्म उधारी व्यवस्था, अंतर-परिचालन वाले डिजिटल वॉलेट और मोबाइल-आधारित शिकायत निवारण तंत्र यह अंतर पाट सकते हैं। बेहतर प्रोत्साहन और डिजिटल उपकरणों से लैस बैंक प्रतिनिधि ग्रामीण परिवारों और संस्थानों के बीच समन्वय का माध्यम बन सकते हैं। फिनटेक यानी वित्त-तकनीक कंपनियां कर्जधारकों के लिए विश्वसनीय क्रेडिट प्रोफाइल तैयार करने के लिए वैकल्पिक क्रेडिट स्कोरिंग डेटा का उपयोग कर सकती हैं।
अंत में, नीति न केवल लोगों की बैंकों तक पहुंच सुनिश्चित प्रदान करने तक सीमित रहनी चाहिए बल्कि ऋण किफायती बनाने और वित्तीय जागरूकता में सुधार करने में भी मददगार होनी चाहिए। ग्रामीण आजीविका कार्यक्रमों से जुड़ी बुनियादी वित्तीय शिक्षा लोगों को साहूकारों पर अपनी निर्भरता कम करने में मदद कर सकती है। ग्रामीण ऋण व्यवस्था ने अच्छी प्रगति की है लेकिन अनौपचारिक ऋणों की लागत और निर्भरता दर्शाती है कि काम अभी पूरा नहीं हुआ है। ग्रामीण भारत में ऋण असमानता दूर करना समावेशी विकास हासिल करने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम होगा।