भारती एयरटेल के चेयरमैन सुनील मित्तल की तरफ से शुल्क दरें बढ़ाने को लेकर लगाई गई गुहार ने दूरसंचार से जुड़े मामलों में प्रति उपभोक्ता औसत राजस्व (एआरपीयू) की प्रासंगिकता का मसला फिर से खड़ा कर दिया है। एक महीने में किसी उपभोक्ता से प्राप्त राजस्व की गणना के लिए इस्तेमाल होने वाला एआरपीयू हमारी जिंदगी में वायरलेस सेवाओं के दस्तक देने के बाद से ही इस उद्योग का सार-तत्त्व बना रहा है। मित्तल ने ‘करो या मरो’ प्रयास करते हुए इस वित्त वर्ष के अंत तक एआरपीयू को कम-से-कम 200 रुपये तक ले जाने और निकट भविष्य में इसे 300 रुपये प्रति उपभोक्ता तक पहुंचाने का लक्ष्य रखा है जो फिलहाल सिर्फ 146 रुपये है।
मौजूदा दूरसंचार प्रणाली में एक कंपनी का न्यूनतम 35 फीसदी राजस्व तमाम तरह के करों एवं शुल्कों के भुगतान में चला जाता है। ऐसी स्थिति में दूरसंचार कारोबार को टिकाऊ बनाए रखने के लिए एआरपीयू में बढ़ोतरी की जरूरत को लेकर कोई दोराय नहीं हो सकती है। लेकिन बीते वर्षों के एआरपीयू रुझान पर नजर डालने पर बाजार में ऑपरेटरों की संख्या की अहमियत, सापेक्षिक रूप से कमजोर तीसरे या चौथे ऑपरेटर की भूमिका, कंपनियों एवं सर्किलों के बीच सस्ती सेवाएं एवं कीमत में अंतर के जरिये दूरसंचार क्षेत्र को झटके देने जैसे मसलों पर तमाम सवाल खड़े होने के साथ कई जवाब भी मिलते हैं।
आज से 15 साल पहले अप्रैल-जून 2006 की तिमाही के आंकड़ों पर गौर करें तो वायरलेस सेवाओं का अखिल भारतीय एआरपीयू 346.59 रुपये था जिसमें दिल्ली सर्किल 465.51 रुपये के साथ शीर्ष पर था जबकि मुंबई 430.97 रुपये के साथ दूसरे स्थान पर था। दिल्ली सर्किल में तीन बड़े ऑपरेटरों के बीच भी खासा अंतर था। एयरटेल का औसत राजस्व 524.17 रुपये रहा जबकि हच (जो बाद में वोडाफोन का हिस्सा बन गया) का औसत राजस्व 442.99 रुपये और आइडिया सेल्युलर का 374.05 रुपये रहा। वहीं मुंबई सर्किल में हच 527.48 रुपये के एआरपीयू के साथ पहले स्थान पर रहा और एयरटेल 422.29 रुपये के साथ दूसरे एवं बीपीएल मोबाइल 288.51 रुपये राजस्व के साथ तीसरे स्थान पर था।
उस समय शुल्क दरें तय करना संबंधित कंपनी का अपना निर्णय होता था और कोई भी कंपनी शुल्क वृद्धि के लिए दूसरी कंपनी का इंतजार नहीं करती थी। हालांकि तब यह कह पाना मुश्किल था कि कौन सी कंपनी कारोबार को अस्त-व्यस्त करने में लगी है और किस का कारोबार नए शुल्कों की वजह से बाधित हुआ है?
फिर औसत राजस्व में गिरावट का दौर शुरू हो गया। वर्ष 2007 में अखिल भारतीय एआरपीयू घटकर 308.07 रुपये पर आ गया था और उसके बाद भी यह सिलसिला कायम रहा। यह वर्ष 2008 में 246.71 रुपये, 2009 में 191.28 रुपये, 2010 में 143.69 रुपये, 2011 में 113.07 रुपये रहा था। अगर वर्ष 2011 के आंकड़े को ही लें तो अप्रैल-जून तिमाही में नौ ऑपरेटरों के बीच भारी छूट देने का सिलसिला चल रहा था। इस तरह ज्यादा ऑपरेटर होने से बाजार पर दो कंपनियों के दबदबे की स्थिति बनने से रोकने की दलील देने वालों के लिए वर्ष 2011 एक दिलचस्प तस्वीर पेश करता है।
2जी स्पेक्ट्रम आवंटन के बाद दूरसंचार क्षेत्र में नौ ऑपरेटर सक्रिय थे और इस तगड़ी प्रतिस्पद्र्धा के बीच एआरपीयू लगातार कम होता जा रहा था। मुंबई सर्किल में लूप 160.95 रुपये राजस्व के साथ शीर्ष पर था और एतिसलात डीबी टेलीकॉम महज 15.53 रुपये के साथ सबसे नीचे था। वीडियोकॉन, एसटेल एवं यूनिनॉर के भी औसत राजस्व क्रमश: 26.03 रुपये, 27.27 रुपये और 45.81 रुपये थे। शुल्क दरों को लेकर मची अफरातफरी के बीच एयरटेल का भी औसत राजस्व 143.91 रुपये, वोडाफोन एस्सार का 122.07 रुपये और आइडिया का 121.14 रुपये था। उस दौर में मुंबई सर्किल में सक्रिय ऑपरेटरों के एआरपीयू को देखें तो वोडाफोन एस्सार 240.54 रुपये, एयरटेल 206.65 रुपये, लूप 157.01 रुपये, एयरसेल 78.16 रुपये, यूनिनॉर 48.88 रुपये और एतिसलात 15.08 रुपये के एआरपीयू पर कारोबार कर रहे थे। इसका मतलब है कि एयरटेल, वोडाफोन और आइडिया का ध्यान कारोबार पर था जबकि बाकी ऑपरेटर शुल्क घटाने की होड़ में लगे हुए थे।
उसके बाद के वर्षों में तस्वीर बदलने लगी। दूरसंचार बाजार के बड़े खिलाड़ी भी शुल्क दरें घटाने के इस खेल में शामिल होने लगीं। रिलायंस जियो के प्रवेश ने रियायती शुल्क दरों को एक स्थापित मानक बना दिया और यह सिलसिला बदस्तूर जारी रहा। वर्ष 2018 की अप्रैल-जून तिमाही में वोडाफोन का समग्र एआरपीयू गिरकर 67.11 रुपये पर आ गया था। मुंबई (134.11 रुपये) को छोड़कर 20 सर्किलों में उसका एआरपीयू 100 रुपये से भी कम रहा था। एयरटेल की हालत भी 64.60 रुपये राजस्व के साथ इससे जुदा नहीं थी। उसका सर्वोच्च एआरपीयू कर्नाटक सर्किल में 112.14 रुपये था जबकि गुजरात में यह 25.35 रुपये एआरपीयू के साथ सबसे कम था। देश के 21 सर्किल में उसका एआरपीयू 100 रुपये से भी कम रहा था। यह बता रहा था कि आने वाले समय में दूरसंचार क्षेत्र के सामने किस तरह के हालात आने वाले हैं।
एआरपीयू का मौजूदा संयोजन भी कुछ इसी तरह का है। औसतन एक उपभोक्ता कुल 103.58 रुपये में से महीने भर में किराये के तौर पर 39 पैसे, कॉल पर 17.84 रुपये, एसएमएस पर 31 पैसे और डेटा पर 89.81 रुपये खर्च करता है। किसी ऑपरेटर के लिए कमाई का मुख्य जरिया रहने वाले कॉल राजस्व ग्राहक से प्राप्त राजस्व का सिर्फ 15.6 फीसदी ही है जबकि डेटा उपभोग राजस्व 78.7 फीसदी है। यह शुल्क दरें बढ़ाने को लेकर दूरसंचार उद्योग के असमंजस को बयां कर देता है क्योंकि आज के दौर में डेटा तो शायद तेल से भी ज्यादा कीमती हो गया है। फिर भी सुनील मित्तल को शुल्क दरें बढ़ाने की राह पर चलना चाहिए, भले ही उनकी कंपनी ऐसा करने वाली पहली कंपनी ही हो। आखिर, कम एआरपीयू का जाल दूरसंचार उद्योग पर लंबे समय से छाया हुआ है।