हर बार जब मैं किसी खबर की सुर्खियां देखता हूं जिसमें लिखा होता है कि अमेरिका की किसी बड़ी कंपनी ने, जो आमतौर पर हाईटेक कंपनियां होती हैं, अपने हजारों कर्मचारियों की छंटनी कर दी है तो मैं हिल जाता हूं। जब इन खबरों की सुर्खियों में मुझे इंटेल और माइक्रोसॉफ्ट जैसे नाम नजर आते हैं और ऐसे संकेत दिखते हैं कि नौकरी गंवाने वालों में ‘वरिष्ठ प्रबंधक’ स्तर के अधिकारी शामिल हैं तो मुझे जिज्ञासा होती है कि कहीं ये क्लिकबेट में सिद्धहस्त वेबसाइटों द्वारा दी गई गलत सुर्खियां तो नहीं हैं। परंतु जब मैं देखता हूं कि ये खबरें द न्यूयॉर्क टाइम्स जैसे प्रतिष्ठित अखबार के पोर्टल पर प्रकाशित हैं तो फिर मुझे जिज्ञासा होती है कि हम जिस दुनिया को जानते थे क्या वह खुद को नए सिरे से तलाश रही है?
जिस समय मैं इन तमाम झटकों से उबर रहा था, मेरा सामना एक और चौंकाने वाली सुर्खी से हुआ: माइक्रोसॉफ्ट के एक शोध पत्र में 40 ऐसे पेशे का जिक्र है जिनके बारे में माना जा रहा है कि उन्हें आर्टिफिशल इंटेलिजेंस यानी एआई से सबसे अधिक खतरा है। इस सूची में बिक्री प्रतिनिधि, ग्राहक सेवा प्रतिनिधि, टिकट एजेंट और ट्रैवल क्लर्क जैसे नामों की मौजूदगी ने मुझे नहीं चौंकाया। जिस बात ने मुझे स्तब्ध किया वह यह थी कि उस सूची में प्रबंधन विश्लेषकों और बाजार शोध विश्लेषकों का नाम शीर्ष पर था। मुझे लगता था कि भारतीय प्रबंध संस्थानों और अन्य प्रबंधन स्कूलों से एमबीए आदि की पढ़ाई करने वाले लोग ही वह काम कर सकते हैं। इन रिपोर्ट के मुताबिक यह सारी अनिश्चितता एआई के कारण आई है।
इस सदी के आरंभ से यानी जब से इंटरनेट ने कदम रखा है, हमने समाज में काफी बदलाव देखा है। उदाहरण के लिए हमने देखा कि कैसे बड़े-बड़े डिपार्टमेंटल स्टोर जो छोटे कारोबारियों की जगह ले रहे थे उन्हें एमेजॉन जैसे शॉपिंग प्लेटफॉर्म्स के लिए जगह खाली करनी पड़ी। ट्रैवेल एजेंट्स को मेक माई ट्रिप जैसे पोर्टल के लिए जगह बनानी पड़ी और शेयर ब्रोकर्स को जिरोधा जैसे संस्थानों के लिए जगह खाली करनी पड़ी।
परंतु अब जबकि हमें किफायती दामों और 30 मिनट के भीतर आपूर्ति की आदत पड़ती जा रही है तो एक नया परिदृश्य उभरता नजर आ रहा है। वह है मझोले स्तर के प्रबंधकों का नदारद होना। ये वे लोग हैं जो किसी वस्तु की बिक्री, सेवा और उत्पादन श्रमिकों के बीच हुआ करते थे। इसी तरह सॉफ्टवेयर कोड लिखने वाले, मुख्य कार्यकारी अधिकारी और संगठनों के कार्य प्रमुख आदि भी नदारद हो रहे हैं। ये वे भूमिकाएं हैं जिन्हें बिज़नेस स्कूल के स्नातक अपनाते थे।
मुझे लगता है कि किसी संगठन की पिरामिड संरचना को हमने हमेशा एक स्वाभाविक चीज़ मान लिया है। मेरी समझ से इसका उद्गम 18वीं शताब्दी में लंदन के लीडेनहॉल स्ट्रीट स्थित ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के कार्यालय से हुआ था। तब से लेकर अब तक, मध्य स्तर के प्रबंधक इस पिरामिड के बीच में स्थान पाते रहे हैं।
1990 के दशक और सूचना के युग के आगमन तक, हमने शायद यह मान लिया था कि बड़े संगठनों की मध्य परत में कई प्रबंधक होते हैं। इनमें से कई 30 से 50 की उम्र में होते हैं, जो स्वयं कोई प्रत्यक्ष कार्य नहीं करते, बल्कि अपने कार्यालयों में बैठकर उन लोगों की निगरानी करते हैं जो वास्तव में काम करते हैं।
इसके प्रमाण नजर आने लगे थे कि मध्यम प्रबंधन स्तर की पारंपरिक परत पतली हो रही है। रिपोर्ट बताती हैं कि कंपनियां छोड़कर जाने वाले प्रबंधकों की जगह नई भर्ती नहीं कर रही हैं।
इतना ही नहीं पिछले पांच साल में किसी एक प्रबंधक को रिपोर्ट करने वाले कर्मचारियों की संख्या भी बढ़कर दोगुनी हो गई है। इससे संकेत मिलता है कि कंपनियां प्रबंधन संबंधी जिम्मेदारियों को चुनिंदा लोगों के बीच समेट रही हैं। इसके अलावा हाई-प्रोफाइल टेक कंपनियों मसलन मेटा (फेसबुक) आदि से खबरें आ रही हैं कि वे किफायत और गति बढ़ाने के लिए अपने संगठनात्मक ढांचे को समतल करना चाहती हैं यानी वे प्रबंधकों द्वारा प्रबंधकों के प्रबंधन की व्यवस्था को समाप्त करना चाहती हैं।
मुझे बताया गया कि अब पारंपरिक प्रबंधकों के काम का बहुत बड़ा हिस्सा एआई कर रही है। वह प्रदर्शन संबंधी आंकड़े एकत्रित करती है, परियोजनाओं की प्रगति पर नजर रखती है, रिपोर्ट बनाती है और वरिष्ठ नेतृत्व तथा पहले दर्जे की टीमों के बीच सूचनाओं का समन्वय करती है। भारत में, और शायद दुनिया भर में, हम एक और चुनौती देखते हैं जो मध्य प्रबंधक अक्सर संगठनों में लेकर आते हैं। वह यह कि जब लोग अपनी उम्र के चौथे दशक में प्रवेश करते हैं, तो वे अपना समय प्रबंधन कार्य की रस्मों को निभाने में बिताते हैं (जैसे समीक्षा बैठकें करना, काम का ब्योरा लिखना और उस पर चर्चा करना आदि), लेकिन वास्तव में कोई ठोस काम नहीं करते।
उदाहरण के लिए क्वोरा पर ऐसे सवालों की बाढ़ आई हुई है कि : भारत में 50 वर्ष की आयु के बाद सॉफ्टवेयर इंजीनियरों और प्रबंधकों का जीवन कैसा है? इनके जवाब कुछ इस तरह के होते हैं: संक्षेप में जवाब यह है कि भारत में इस उम्र में इन भूमिकाओं में जीवन बहुत अधिक कठिन है। हमेशा पढ़ते रहने और अपने कौशल को उन्नत बनाते रहने की जरूरत होती है।
मुझे जिज्ञासा होती है कि बिज़नेस स्कूल कैसे संगठनों को इन चुनौतियों से निपटने में मदद कर सकते हैं। क्या उन्हें मझोले दर्जे के प्रबंधकों को नई तकनीक से परिचित बनाने के कार्यक्रमों पर अधिक ध्यान देना चाहिए? या उन्हें व्यावहारिक कार्य संस्कृति पर जोर देना चाहिए? क्या पाठ्यक्रम में ऐसी बातें शामिल की जानी चाहिए जो बच्चों को व्यावहारिक प्रबंधन संबंधी प्रशिक्षण दें।
यहां कुछ ऐसी बातें हैं जो बिज़नेस स्कूलों में कर्मचारी केंद्रित स्नातकों के बजाय कार्य केंद्रित नेता तैयार करने में मदद कर सकती हैं। विश्लेषण और रणनीति कुशल स्नातकों को तैयार करने के बजाय ऐसे स्नातक तैयार किए जाएं जो वास्तविक दुनिया में प्रभावशाली काम कर सकें, क्रियान्वयन और विस्तार कर सकें। केस स्टडीज को केवल विश्लेषण तक सीमित नहीं रखा जाए। उन्हें क्रियान्वयन आधारित असाइनमेंट से जोड़ा जाए। अनुभव आधारित शिक्षा को केंद्र में रखें।
स्टार्टअप्स, कंपनियों और सामाजिक संस्थानों के साथ तीन-चार महीने की साझेदारी करें ताकि छात्र वास्तविक परियोजनाओं पर काम करें। परियोजना रिपोर्ट में केवल नतीजे नहीं बल्कि ठोस क्रियान्वयन की सिफारिशें शामिल हों। ऐसे मंच बनें जहां छात्रों को कंपनियां चलाने का प्रशिक्षण मिले और वे वास्तविक समय में निर्णय ले सकें। गलतियां करके सीखने की संस्कृति को बढ़ावा दिया जाए। उन पूर्व छात्रों को तवज्जो दी जाए जो व्यवसाय खड़ा कर चुके हैं, जिन्होंने नेतृत्व किया है या पुनर्गठन किया है। उन्हें छात्र परियोजनाओं के मेंटर के रूप में आमंत्रित किया जाए।
लब्बोलुआब यह कि बिज़नेस स्कूलों को यह संकल्प लेना होगा कि उनका लक्ष्य अब केवल विश्लेषकों को बैक ऑफिस के काम का प्रशिक्षण देना नहीं बल्कि यह होना चाहिए कि ऐसे निर्णय लेने वाले नेतृत्वकर्ता तैयार करने हैं जो अनिश्चित माहौल में भी परिणाम दे सकें।
(लेखक प्रौद्योगिकी और समाज के बीच संबंधों के अन्वेषण में लगे हैं)