अगर हम बॉन्ड कारोबारियों से पूछें कि इन दिनों उनके दिमाग में कौन सी बात सबसे अधिक आ रही है तो अधिकांश यही कहेंगे कि भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) द्वारा खुला बाजार परिचालन (ओएमओ) के जरिये सरकारी प्रतिभूतियों की प्रस्तावित बिक्री को लेकर वे ऊहापोह में हैं। तो इसकी शुरुआत कब होगी?
RBI ने पिछली मौद्रिक नीति समीक्षा में ओएमओ बिक्री से संबंधित योजना की घोषणा की थी। RBI ने सितंबर में द्वितीयक बाजार में स्क्रीन आधारित कारोबार के जरिये कुछेक हजार करोड़ रुपये मूल्य के बॉन्ड की बिक्री की थी।
अब प्रस्तावित ओएमओ नीलामी के जरिये होगी। ओएमओ नकदी प्रबंधन का एक जरिया है और केंद्रीय बैंक समय-समय पर इसका इस्तेमाल करता रहता है। इसके परिणाम तीन स्तरों पर दिखते हैं।
बैंकिंग प्रणाली से नकदी निकालना या इसमें नकदी डालना ओएमओ के तीन उद्देश्यों में एक है। यह प्रतिफल प्रबंधित करने का भी तरीका है। जब ओएमओ के माध्यम से बॉन्ड बेचे जाते हैं तो इससे बाजार में बॉन्ड की आपूर्ति बढ़ जाती है।
इसका नतीजा यह होता है कि बॉन्ड पर प्रतिफल बढ़ जाता है। इस समय 10 वर्ष की परिपक्वता अवधि के बॉन्ड पर प्रतिफल लगभग 7.36 प्रतिशत के आसपास है।
6 अक्टूबर को मौद्रिक नीति समीक्षा में ओएमओ बिक्री की घोषणा के बाद यह 9 अक्टूबर को 7.39 प्रतिशत तक पहुंच गया था। चालू वित्त वर्ष में 17 मई को प्रतिफल 6.94 प्रतिशत के सबसे निचले स्तर पर आ गया था। वित्त वर्ष 2024 में सरकार ने बाजार से 15.43 लाख करोड़ रुपये उधार लेने का कार्यक्रम तैयार कर रखा है।
इनमें लगभग 55.57 प्रतिशत या 8.88 लाख करोड़ रुपये सितंबर तक पहली छमाही में उधार लिए जा चुके हैं। दूसरी छमाही में अब तक 94,000 करोड़ रुपये उधार लिए गए हैं। संयोग से नवंबर और जनवरी 2024 के बीच 2.81 लाख करोड़ रुपये मूल्य के बॉन्ड भुनाए जाएंगे। इससे वित्तीय प्रणाली में नकदी बढ़ जाएगी। क्या RBI इसी के साथ पहले चरण की ओएमओ नीलामी करेगा?
जब RBI ने पिछली मौद्रिक नीति में ओएमओ के जरिये बॉन्ड बेचने की योजना बनाई थी तो 10 वर्ष की अवधि पर प्रतिफल 7.23 प्रतिशत से बढ़कर 7.35 प्रतिशत हो गया था। ओएमओ का इस्तेमाल प्रतिफल बढ़ाने और इसे कम करने दोनों ही उद्देश्यों के लिए किया जाता रहा है।
जब बॉन्ड पर प्रतिफल बढ़ता है तो इसकी कीमतें कम हो जाती हैं। ओएमओ की घोषणा कर RBI ने कृत्रिम रूप से मार्च के आखिरी दिन बॉन्ड की कीमतें कम रखने का प्रयास किया था। RBI ने बैंकों के लिए प्रावधान की आवश्यकता कम कर दी थी और अगर ऐसा नहीं किया गया होता तो उनके मुनाफे पर असर हुआ होता।
संयोग से अगले वित्त वर्ष से बैंकों के निवेश पोर्टफोलियो-हेल्ड टू मैच्योरिटी (एचटीएम) बास्केट-पर सीमा हटाई जा रही है। इसका मतलब हुआ कि अगर कोई बैंक अपना पूरा निवेश पोर्टफोलियो इस बास्केट रखता है तो इसे कोई एमटीएम नुकसान नहीं उठाना होगा।
ओएमओ बिक्री का तीसरा मकसद स्थानीय मुद्रा में कमजोरी को दूर करना है। 16 अक्टूबर को रुपया अमेरिकी मुद्रा डॉलर की तुलना में 83.28 पर बंद हुआ था। यह रुपये का सबसे निचला स्तर था और अक्टूबर 2022 में कारोबार के दौरान 83.29 के सर्वाधिक निचले स्तर से थोड़ा ही कम रहा।
सितंबर से छह सप्ताहों के दौरान भारत की विदेशी मुद्रा विनिमय दर लगभग 15.3 अरब डॉलर कम हो गई है। RBI की तरफ से डॉलर की बिक्री के अलावा डॉलर की तुलना में रुपये के मूल्य में ह्रास और अन्य मुद्राओं के मुकाबले इसमें तेजी से विदेशी मुद्रा भंडार में कमी आई है।
अगर ओएमओ बिक्री से सरकारी बॉन्ड पर प्रतिफल चढ़ता है तो अमेरिकी और भारतीय बॉन्ड के बीच प्रतिफल में अंतर अधिक हो जाएगा। इसमें कमी आती जा रही है।
सोमवार को अमेरिका के 10 वर्ष की अवधि के बॉन्ड पर प्रतिफल 5 प्रतिशत को पार कर गया जो जुलाई 2007 के बाद सबसे ऊंचा स्तर है। अमेरिका और भारत के बॉन्ड के प्रतिफलों के बीच अंतर कम होकर लगभग 2.5 प्रतिशत अंक रह गया है।
यह स्तर आखिरी बार अप्रैल 2006 में दिखा था। अमेरिका और भारतीय बॉन्ड के प्रतिफल के बीच सबसे कम अंतर 0.61 प्रतिशत दर्ज हुआ था, जो 2004 में देखा गया था। पिछले दो से ढाई दशकों के दौरान औसत अंतर 4.64 प्रतिशत अंक रहा है और सबसे अधिक अंतर 31 मई, 2012 को 6.94 प्रतिशत अंक देखा गया था।
भारतीय एवं अमेरिकी बॉन्ड के प्रतिफलों के बीच अंतर कम होने से भारत में विदेशी रकम का प्रवाह सुस्त हो गया है। निवेशकों की नजरों में अमेरिकी बॉन्ड अधिक आकर्षक हो गए हैं जिसका नतीजा यह हुआ है कि स्थानीय मुद्रा दबाव में आ जाती है।
ओएमओ बिक्री से डॉलर की तुलना में रुपये में कमजोरी थामने में मदद मिलेगी। RBI गवर्नर शक्तिकांत दास ने कई बार कहा है कि केंद्रीय बैंक महंगाई 4 प्रतिशत पर नियंत्रित रखना चाहती है। कम तरलता, ऊंचे बॉन्ड प्रतिफल और पूंजी प्रवाह में सुधार से रुपये को मदद मिलेगी और महंगाई से भी लड़ने में मदद मिलेगी।
RBI की मौजूदा नीति का मकसद अधिशेष नकदी खींचना है। यह नीति का रुख ‘प्रोत्साहन’ वापस लेने पर केंद्रित है। जहां तक मुद्रा की बात है तो केंद्रीय बैंक के पास तीन विकल्प मौजूद हैं। पहला विकल्प तो यह है कि रुपये को कमजोर होने दिया जाए।
दूसरा विकल्प यह है कि डॉलर की बिक्री की जाए मगर इससे विदेशी मुद्रा भंडार कम हो जाएगा। तीसरा विकल्प यह है कि रुपये में गिरावट थामने के लिए बॉन्ड पर प्रतिफल बढ़ने दिया जाए।
संयोग से तेजी से उभरते देशों की मुद्राओं की तुलना में रुपये का प्रदर्शन बेहतर रहा है। वित्त वर्ष 2024 की पहली तिमाही में इसमें डॉलर की तुलना में मामूली तेजी आई थी मगर इसके बाद दूसरी तिमाही में यह 1.2 प्रतिशत लुढ़क गया।
ब्लूमबर्ग की हाल की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि तेल के दाम में तेजी, डॉलर में मजबूती और भू-राजनीतिक अस्थिरता भारत और इंडोनेशिया पर नकारात्मक असर डाल सकते हैं। मुद्रा से जुड़ी चिंताएं दूर करने के लिए ओएमओ बिक्री अनोखा तरीका है।
(लेखक जन स्मॉल फाइनैंस बैंक लिमिटेड में वरिष्ठ सलाहकार हैं)