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गुणवत्ता नियंत्रण और समझ-बूझ भरी नीति

क्यूसीओ का इस्तेमाल तब किया जाना चाहिए जब उसकी आवश्यकता हो लेकिन इसका इस्तेमाल कीमत या खास लक्ष्य हासिल करने के लिए नहीं किया जाना चाहिए। बता रहे हैं

Last Updated- May 22, 2025 | 11:19 PM IST
Trade
प्रतीकात्मक तस्वीर

भारत अपने बाजारों को लगातार खोलता जा रहा है, जिसके साथ अधिक विश्वास भरी, कम प्रतिक्रिया वाली तथा ज्यादा सक्रिय आयात नीति व्यवस्था की शुरुआत हो रही है। यह बदलाव पिछले वर्ष किसी समय आरंभ हो गया था लेकिन पिछले बजट के बाद इसने गति पकड़ी और अब मुक्त व्यापार समझौतों (एफटीए) की संभावना ने इसे और तेज किया।

स्पष्ट दिख रहा है कि भारतीय उद्योग जगत को एक दबंग बदमाश से बचने की जरूरत है मगर हम यह भी जानते हैं कि जरूरत से ज्यादा संरक्षण अच्छा नहीं होगा। बच्चों को आत्मनिर्भर बनने के लिए अकेला भी छोड़ना होता है। अगर हम बच्चे का आत्मसम्मान ही छीन लें तो वह हमेशा सहारा ही तकता रहेगा। हम जानते हैं कि विनिर्माण के क्षेत्र में चीन दबंगई दिखाता है। लेकिन इस चुनौती से निपटने की व्यवस्था भी है। हमें उन उपायों का इस्तेमाल करने की जरूरत है जो भारत के उद्योगों को समझदारी के साथ बचाएं। ज्यादा इस्तेमाल करेंगे तो विनिर्माण में इनकी हिस्सेदारी 16 से 17 फीसदी के बीच ही ठहर जाएगी।

संरक्षण के विभिन्न स्वरूपों में से ज्यादा चालाक तरीका ‘गुणवत्ता नियंत्रण आदेश’ या क्यूसीओ है। क्यूसीओ के तहत किसी भी उत्पाद को देश में बेचे या खरीदे जाने की इजाजत तभी मिलती है, जब वह खास तरह की गुणवत्ता हासिल कर ले। फिलहाल देश में सैकड़ों क्यूसीओ लागू हैं और दुनिया में तो इनकी संख्या अनगिनत है। जब किसी उत्पाद पर क्यूसीओ लागू किया जाता है तो घरेलू और वैश्विक, छोटे और बड़े, नए और पुराने सभी विक्रेताओं को गुणवत्ता मानकों का पालन करना होता है। आम तौर पर नए, छोटे और अंतरराष्ट्रीय उपक्रमों को इनका ज्यादा खमियाजा भुगतना पड़ता है मगर अंत में इसका असर भारतीय उपभोक्ताओं पर ही पड़ता है।

भारत के क्यूसीओ की बात करें तो इन्हें लागू करने में परीक्षण और मूल्यांकन की लागत, प्रमाणन की जरूरत, अस्पष्ट या अनुचित विनिर्देश, जटिल मूल्यांकन प्रक्रिया, सुविधाओं और कर्मचारियों की किल्लत, विलंब आदि की समस्या आती हैं। ध्यान रहे कि छोटे उपक्रम अक्सर अधिक प्रभावित होते हैं क्योंकि वे किसी एक उत्पाद पर अधिक निर्भर होते हैं और सरकार के साथ जुड़ नहीं पाते। इसलिए उन्हें अधिक देर का सामना करना पड़ता है और अपने आकार से अधिक लागत का भार वहन करना पड़ता है।

क्यूसीओ लागू हो तो अंतरराष्ट्रीय इकाइयों को भी उस देश में प्रमाणन की दरकार होती है। अगर उत्पाद कम कीमत वाला हो तो कंपनियां इसके लिए कोशिश भी नहीं करतीं। ऐसी कई इकाइयां भारतीय व्यापारियों के जरिये काम करती हैं, जो पहले ही खमियाजा भुगत रहे होते हैं। सूक्ष्म, लघु एवं मझोले उद्यमों समेत कारोबारियों से बातचीत में कई समस्याएं सामने आती हैं, जैसे संसाधनों की कमी से जूझता भारतीय मानक ब्यूरो या खराब तरीके से बनाई गई प्रक्रियाएं और नियम। इससे न केवल लागत बढ़ती है और कारोबारी सुगमता घटती है बल्कि पहले मिल रहे उत्पाद भी क्यूसीओ के बाद गायब हो जाते हैं।

ऐसे में क्यूसीओ लागू ही क्यों किए जाते हैं? दो वजह होती हैं। पहली, यह सुनिश्चित करने के लिए कि सस्ते और घटिया उत्पादों के चक्कर में अच्छी गुणवत्ता वाले उत्पादों की अनदेखी न हो जाए। यही वजह है कि सरकार न्यूनतम स्वीकार्य गुणवत्ता मानक लागू करती है ताकि बाजार में बेहतर गुणवत्ता सुनिश्चित की जा सके।

परंतु यहां एक दिलचस्प बात है: गतिशील, बढ़ती अर्थव्यवस्था में, मूल्य और गुणवत्ता के जोड़ का समीकरण सभी उत्पादों और बाजार क्षेत्रों में होना चाहिए। मंझे हुए बाजार में कम गुणवत्ता वाली वस्तुएं भी उतनी ही अहम होती हैं जितनी बेहतर गुणवत्ता वाली। फिर चाहे वह खाद्य पदार्थ हों, स्टील हो, रसायन हो या खिलौने हों। यह विविधता विनिर्माण को लचीला बनाती है, नवाचार में सहायता करती है, जिससे ग्राहकों के सामने कई विकल्प आ जाते हैं और समावेशन भी होता है। किसी भी बाजार में खरीदार और विक्रेता दोनों गुणवत्ता का फर्क पहचान सकते हैं और उन्हें यह बताने के लिए किसी सरकारी विभाग की जरूरत नहीं है।

अगर वे खरीदने से पहले गुणवत्ता परख नहीं पाते तो भी एक बार घटिया सामान आ जाने पर विक्रेता की साख और बिक्री पर असर जरूर पड़ता है। इसलिए अगर खरीदार घटिया गुणवत्ता को पहचान नहीं पाता है तो भी हमें क्यूसीओ की जरूरत नहीं है। इसकी जरूरत तभी होती है, जब दो पैमाने एक साथ आते हैं: पहला, खरीदार उत्पाद की गुणवत्ता नहीं पहचान सकता और दूसरा, इसके इस्तेमाल से होने वाला असर बहुत बड़ा है और उसे पलटा नहीं जा सकता।

भारत ही क्यों? किसी भी देश के क्यूसीओ को इन दो कसौटियो पर कसिए तो बड़ी तादाद में क्यूसीओ हटाने पड़ेंगे। परंतु भारत में क्यूसीओ लागू करने की एक और वजह हो सकती है। वह वजह है किसी नए क्षेत्र या कंपनी को आयात से बचाना। भारत ने ज्यादातर क्यूसीओ उन्हीं उत्पाद श्रेणियों में लगाए हैं, जहां चीन से बहुत आयात हो रहा है। अगर यही समस्या है तो जरूरी नहीं कि चुनौती गुणवत्ता की हो, वह कीमत की भी हो सकती है। ऐसे में मूल्य से जुड़े उपाय अपनाना ही सही होगा – टैरिफ और ऐंटी डंपिंग उपाय। यानी क्यूसीओ लागू करने का निर्णय लेने के पहले अहम सवाल यह है कि इसकी जरूरत क्या है? क्या खरीदार खुद अपनी खरीद की गुणवत्ता नहीं समझ सकते?

आम तौर पर संरक्षणवाद के विभिन्न स्वरूपों जिनमें क्यूसीओ भी शामिल है, का उपयोग कमजोर और छोटे उपक्रमों को बड़े और शक्तिशाली उपक्रमों से बचाने में होना चाहिए। लेकिन कई क्यूसीओ बड़ी देसी कंपनियों द्वारा बनाए जा रहे उत्पादों पर लागू हैं। इससे बड़ी कंपनियां तो बचा ली जा रही हैं मगर असर छोटी कंपनियां और उपभोक्ता झेल रहे हैं। जरूरी नहीं कि यह प्रवृत्ति जानबूझकर अपनाई गई हो बल्कि उद्योग की राजनीतिक अर्थव्यवस्था के कारण भी ऐसा हो सकता है। बड़ी कंपनियों के पास हमेशा छोटी कंपनियों की तुलना में सरकार के साथ जुड़ने के बेहतर संसाधन होते हैं। यदि वही उत्पाद सरकारी कंपनी भी बना रही हों तो संरक्षणवादी प्रवृत्तियों की आशंका और बढ़ जाती है।

अब जबकि भारत एक परिपक्व अर्थव्यवस्था और विनिर्माण केंद्र के रूप में तैयार हो रहा है तो नीतिगत उपायों का भी सोच-समझकर इस्तेमाल करना होगा। कुल मिलाकर जरूरत पड़ने पर क्यूसीओ का इस्तेमाल किया जाना चाहिए क्योंकि वे भारत को लाभ से अधिक नुकसान पहुंचा रहे हैं। ऐसे में भारत को सभी क्यूसीओ का नए सिरे से आकलन करना चाहिए और मौजूदा हजारों क्यूसीओ की जगह चुनिंदा क्यूसीओ को ही जारी रखना चाहिए।

 (लेखक सीएसईपी रिसर्च फाउंडेशन के प्रमुख हैं)

First Published - May 22, 2025 | 10:37 PM IST

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