क्या भारत सरकार और राष्ट्रीय नियामकों को यह सोचना चाहिए कि देश के एक तबके की स्थिति में सुधार करने के लिए दूसरे को दंडित करना आवश्यक है? यह न केवल सैद्धांतिक तौर पर विरोधाभासी है बल्कि व्यवहार में भी अतीत में यह देश के आर्थिक विकास के लिए विरोधाभासी साबित हुआ है। इसके बावजूद कुछ हालिया निर्णयों के पीछे यही भावना नजर आती है, खासतौर पर चिकित्सा महाविद्यालयों के विस्तार पर लगे नए प्रतिबंधों के मामले में।
राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग देश में चिकित्सा शिक्षा के विभिन्न पहलुओं की निगरानी करता है। आयोग ने एक हालिया विवादास्पद नियमन में देश में चिकित्सा महाविद्यालयों के नेटवर्क के विस्तार को तब तक के लिए स्थगित कर दिया जब तक कि वे कुछ खास शर्तों को पूरा नहीं करते हैं।
विवाद इसलिए उत्पन्न हुआ कि जिन शर्तों की बात कही गई उनके जरिये गुणवत्ता मानक में सुधार नहीं किया गया बल्कि उनकी प्रकृति भौगोलिक थी। उनके माध्यम से देश के विभिन्न इलाकों में चिकित्सा शिक्षा संस्थानों की स्थानीय उपलब्धता के क्षेत्र में बढ़ती असमानता को दूर करना था। आयोग शायद यह भी मानता है कि चिकित्सा प्रशिक्षण संस्थानों की सीटों के असमान भौगोलिक वितरण ने क्षेत्रवार ढंग से चिकित्सकों का वितरण भी असमान कर दिया है।
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आयोग के निर्देशों का तात्पर्य यह था कि कुछ खास राज्यों में नए कॉलेज नहीं खोले जाएंगे तथा मौजूदा कॉलेजों में नई सीटें भी नहीं जोड़ी जाएंगी। इस प्रतिबंध से वही राज्य प्रभावित होंगे जहां पहले ही प्रति 10 लाख आबादी पर 100 चिकित्सा शिक्षा सीट हैं। इससे दक्षिण भारत के कई राज्यों में चिकित्सा कॉलेज नेटवर्क की विस्तार योजनाओं पर बुरा असर पड़ेगा। देश के अन्य हिस्सों में भी कुछ राज्य इससे प्रभावित होंगे।
कोई भी तार्किक व्यक्ति देश में स्वास्थ्य व्यवस्था पर नजर डालकर यही कहेगा हमारे यहां पर्याप्त संख्या में चिकित्सक नहीं हैं। अगर हमें विश्व स्वास्थ्य संगठन के प्रति एक हजार लोगों पर एक चिकित्सक की शर्त को पूरा करना है तो हमें वास्तविक चिकित्सकों में उन ‘पारंपरिक’ चिकित्सकों को शामिल करना होगा जिन्हें आयुष मंत्रालय ने मान्यता दे रखी है। देश में 13 लाख पंजीकृत चिकित्सक हैं और करीब पांच लाख ऐसे हैं जिन्हें आयुष मंत्रालय ने मान्यता दी है।
वास्तविक चिकित्सकों के वितरण में असमानता की बात करें तो वह राज्यों के संदर्भ में नहीं बल्कि शहरी और ग्रामीण इलाकों में अधिक नुकसानदेह है। सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में कर्मचारियों की काफी कमी है।
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भारतीय गैस्ट्रोएंट्रोलॉजी सोसाइटी के पूर्व अध्यक्ष राकेश कोचर ने समाचार पत्र द हिंदू में प्रकाशित ग्रामीण स्वास्थ्य सांख्यिकी के 2021-22 के आंकड़ों के मुताबिक बताया कि स्वास्थ्य केंद्रों में चिकित्सकों की उपलब्धता में 50 फीसदी की कमी है। ऐसे में दक्षिण भारत के राज्यों में चिकित्सकों की संख्या में कमी से उत्तर भारत के ग्रामीण इलाकों में चिकित्सकों की उपलब्धता बढ़ाने में कोई मदद नहीं मिलेगी।
यदि इस बात की विश्वसनीय वजह हैं जो बताती हों कि दक्षिण भारत के राज्यों में चिकित्सा महाविद्यालयों में दाखिले की भेदभावकारी व्यवस्था के कारण उत्तर भारत की पृष्ठभूमि वाले चिकित्सकों की संख्या कम हो रही है तो इस पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है।
हकीकत यह है कि दक्षिण भारत का मीडिया नियमित रूप से ऐसी खबरें प्रकाशित करता है कि कैसे उत्तर भारत के चिकित्सा महाविद्यालयों में दाखिला लेने वाले दक्षिण भारतीय बच्चों को गलत और दिक्कतदेह व्यवहार का सामना करना पड़ता है। 2016 के बाद आत्महत्याओं के सिलसिले ने इसे दक्षिण भारत के लोगों के लिए जीवंत और भावनात्मक मुद्दा बना दिया।
बहरहाल, एक ऐसे देश में सीटों की वास्तविक भौगोलिक स्थिति मायने नहीं रखनी चाहिए जहां लोग मुक्त आवागमन कर सकते हैं और निजी क्षेत्र में अध्ययन कर सकते हैं। इस बात में निश्चित रूप से दिक्कत है कि सरकारी कोटा के तहत आने वाली बहुत सारी सीटें निजी कॉलेजों में स्थानीय विद्यार्थियों के लिए आरक्षित हैं।
उदाहरण के लिए तेलंगाना ने बहुत सारी सीटें अपने राज्य के आवेदकों के लिए आरक्षित कर दी हैं। तेलंगाना के मामले में तो यह सीधे तौर पर आंध्र प्रदेश से निर्देशित है। आमतौर पर ऐसे व्यवहार को हतोत्साहित किया जाना चाहिए। परंतु नए कॉलेजों पर प्रतिबंध लगाना किसी दृष्टि से उचित नहीं है।
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यह सोच मूर्खतापूर्ण है कि देश कि किसी एक हिस्से के एक क्षेत्र में वृद्धि या समृद्धि को कम करने से दूसरे में विकास किया जा सकेगा। भारत में समाजवादी अतीत के दिनों में समता के नाम पर माल ढुलाई को समान करने जैसी नीतियां अपनाई गईं। इससे देश के उन हिस्सों में औद्योगीकरण की प्रक्रिया को क्षति पहुंची जो भारी उद्योगों के लिए निहायत बेहतर इलाके थे।
निश्चित रूप से अंतिम वांछित बात यही है कि देश भर के ग्रामीण इलाकों में अधिक चिकित्सक हों। इसके लिए अन्य तरीके इस्तेमाल किए जाने चाहिए। सरकारी सब्सिडी पाने वालों के लिए अनिवार्य ग्रामीण सेवाओं का विचार और शिक्षा तक प्राथमिकता वाली पहुंच जैसे विचार अतीत में सामने आ चुके हैं। अन्य देशों ने स्वास्थ्य पहुंच और क्षमता बढ़ाने के लिए यही तरीके अपनाए। भारत अभी विकास के उस मोड़ तक नहीं पहुंचा है जहां वह शिक्षा की उपलब्धता बढ़ाने के बजाय उसे कम करे।