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नीतिगत बदलाव और निवेश का गणित, जोखिम से कैसे निपटेगा निजी क्षेत्र?

सरकार के स्तर पर नीतियों को उलट-पुलट करने से निजी निवेश की समस्या में कोई खास कमी नहीं आती है। बता रहे हैं अजय शाह

Last Updated- September 09, 2024 | 9:26 PM IST
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क्या नीतियों को बार-बार पलटने वाले माहौल में नीतिगत जोखिम होते हैं और वह निजी निवेश को प्रभावित करता है? बाजार अर्थव्यवस्था के फलने-फूलने के लिए एक मजबूत सरकार के साथ निरंकुश नियंत्रण की आवश्यकता नहीं होती जो समय-समय पर ऐसे निर्णय लेता हो जिन्हें बदला न जा सके। अहम बात है अच्छी नीतियां हासिल करना और शक्तियों का बंटवारा इसी का माध्यम है।

नीतियों को अपनाने के ऐसे भी तरीके हैं जहां कम नीतिगत जोखिम होता है। एक ओर जहां रोजमर्रा के नीतिगत निर्णयों में हमेशा रणनीतिक ब्योरे होंगे, वहीं नीतियों में सुसंगतता और रणनीतिक विचार हमेशा नीतिगत जोखिम कम करने में मददगार होते हैं। निजी क्षेत्र की कारोबारी भावना मायने रखती है और भारतीय राज्य में सुधार को लेकर रणनीतिक नजरिया इन्हें आकार देता है।

आर्थिक वृद्धि वास्तव में भौतिक क्षमता में पारंपरिक निजी निवेश (तयशुदा संपत्तियों में इजाफा आदि) तथा उच्च उत्पादकता पाने में निजी निवेश में निहित होता है।
ऐसा निवेश जोखिम भरा होता है और राज्य के रुख से बहुत हद तक प्रभावित होता है। क्या हालिया नीतिगत पलटाव ने संभावित नीतिगत जोखिमों पर और इस प्रकार निजी निवेश पर विपरीत प्रभाव डाला? इस बात की संभावना कम है।

विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच कठिन बातचीत, जिसकी वजह से नीतियों में बदलाव आते हैं, वे आर्थिक सफलता के साथ असंगत नहीं हैं। दुनिया के विकसित देश आर्थिक संदर्भ में काफी सफल हैं। अमेरिका का प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद भारत से 10 गुना है। सभी विकसित देश उदार लोकतांत्रिक देश हैं जहां प्रतिद्वंद्वी हितों और नजरियों के बीच रोज नीतिगत उभार होता है।

कारोबारी जगत के कुछ लोगों में शक्ति को लेकर बहुत सहज अवधारणा होती है। यह ऐसी इच्छा है कि शक्तिशाली मुख्य कार्यपालक अधिकारी हों जो शक्तिशाली नेताओं के साथ जल्दी सौदेबाजी कर लें और अपनी यात्रा पर तेजी से आगे बढ़ें। वास्तव में सभी सरकारें जटिल होती हैं। एक अच्छे मुल्क में सौदेबाजी की अधिक गुंजाइश नहीं होती। जब निवेश के लिए 20 से 40 वर्ष का समय हो तो सत्ताधारी दल के साथ सौदेबाजी करना जोखिम को कम नहीं करता।

जब निजी लोग नीतिगत जोखिम का आकलन करते हैं तो वे संस्थानों के बारे में सोचते हैं, प्रक्रियाओं और उन नीतिगत कदमों के बारे में सोचते हैं जो आगामी 20 से 40 वर्षों के दौरान लागू होंगे। एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में हमेशा नीतगत बदलाव होते रहेंगे। नीतियों को वापस लेने में कुछ भी गलत नहीं। जो बात मायने रखती है वह है अच्छे नतीजे हासिल करना। उदाहरण के लिए ब्रॉडकास्ट बिल को लेकर नतीजे अच्छे रहे लेकिन नैशनल पेंशन सिस्टम (एनपीएस) के मामले में नहीं।

कम नीतिगत जोखिम के साथ बेहतर नतीजे हासिल करने वाली नीतिगत प्रक्रिया क्या है? भारत में इसका तरीका सभी को पता है। सरकारी संगठनों को गहरी जानकारी, ज्ञान से जुड़े संगठनों के साथ साझेदारी और निजी क्षेत्र के साथ गहरी संबद्धता की आवश्यकता होती है। हर क्षेत्र को लेकर मजबूत जानकारियों की आवश्यकता है जिनमें प्रतिपक्षी नीतिगत तौर तरीकों को लेकर समुचित अंर्तदृष्टि और बहसें उपलब्ध हों।

विशेषज्ञ समितियां बहसों के बीच से गहन बौद्धिक सहमति बनाने में मदद करती है ताकि विचारार्थ आने वाली बातों को संक्षेप में जुटाया जा सके। वास्तविक मशविरा मसौदा दस्तावेज की कमियों का पता लगाने में मदद करता है और उनमें सुधार लाने में भी। अच्छे मंत्री अपने संयुक्त सचिवों को चुनौती देते हुए उनसे कहते हैं कि वे उस दिन प्रकाशित विचारों को लेकर बेहतर प्रतिक्रिया दें और संसद की स्थायी समितियां आमतौर पर विधेयकों में सुधार करती हैं।

जब इस तरह की प्रक्रिया का इस्तेमाल किया जाता है मसलन 2004 में जिस प्रकार एनपीएस लाया गया, तब नीतिगत संभावनाओं का दायरा सबको पता होता है। सरकार की ओर से आने वाले दस्तावेज अच्छी गुणवत्ता के होते हैं और चकित करने वाली बातें कम तथा नतीजे बेहतर होते हैं। नीतियों को पलटना महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण है विचार की प्रक्रिया और यह देखना कि वे किस हद तक अच्छे नतीजे प्रदान कर सकते हैं।

सरकारें बहुत बड़ा संगठन होती हैं जहां हजारों जगहों पर निर्णय लिए जाते हैं। इससे नीतिगत सुसंगतता की दिक्कत बढ़ती है। इन्हें छोड़ दिया जाए तो विभिन्न जगहों पर निर्णय लेने से समन्वय की कमी होती है और कई बार तो आपसी टकराव की स्थिति भी बनती है। जब इन नाना प्रकार के कदमों को निजी लोग देखते हैं तो भ्रम की स्थिति बनती है और नीतिगत जोखिम पैदा होता है। नीतिगत सुसंगतता सिद्धांतों, विचारों और दर्शन से उत्पन्न होती है।

उदाहरण के लिए 1991-2011 के बीच की अवधि में अधिकांश समय जिन सुधारों को अंजाम दिया गया, उन्हें लेकर बौद्धिक सहमति रही। ये विचार भारतीय राज्य में घर कर गए और हजारों स्वायत्त निर्णयकर्ताओं ने उन्हें अपने-अपने तरीके से लागू करना शुरू कर दिया। सरकारी क्षेत्र के हजारों लोगों के बदले हुए व्यवहार ने निजी क्षेत्र के लोगों में यह विश्वास पैदा किया कि सुधार हो रहे हैं।

एनिमल स्पिरिट यानी कारोबारी उत्साह की भावना का प्रयोग निजी निवेश संबंधी निर्णयों में भरोसे, निवेश में तेजी और तेज विकास को लेकर आशावाद के लिए किया जाता है। कारोबारी उत्साह की भावना जगाने के लिए प्रचार तंत्र की मदद लेने की इच्छा हो सकती है लेकिन यह प्रभावी नहीं है।

प्रगति और वैकल्पिक तथ्यों के दावों से इतर केवल नीतिगत प्रगति की मदद से ही निजी क्षेत्र की चिंताओं को दूर किया जा सकता है। देश की सैकड़ों नीतिगत दिक्कतों में से कुछही ऐसी हैं जिन्हें कुछ सालों में दूर किया जा सके। राज्य की क्षमता हमेशा बेहतर नहीं रहती और जब ऐसा होता है तब लाभ धीमे होते हैं। ऐसे में निवेश में तेजी कैसे आई?

हमें ऐसी स्थिति के बारे में नहीं सोचना चाहिए जहां पहले राज्य में सब बेहतर हो और उसके बाद निवेश में तेजी आए। कारोबारी उत्साह की भावना चार चीजों से बनती है: पहला, नेतृत्व को प्रगति के लिए एक सुसंगत रणनीति पेश करने की जरूरत है जहां सुधारक नियोजन को कम करने, विधि के शासन को बेहतर बनाने और राज्य की क्षमता बढ़ाने के लिए काम करें।

दूसरा, इन दस्तावेजों के अलावा कुछ क्षेत्रों में बेहतर टीमों और सफल कार्रवाईयों की भी जरूरत है। 1991-2011 की तेजी के दौरान भारतीय राज्य का अधिकांश हिस्सा सही ढंग से काम नहीं कर रहा था परंतु कुछ क्षेत्रों में फिर भी प्रगति हुई। तीसरा, चूंकि भारतीय राज्य अधिकांशतया ठीक से काम नहीं कर रहा इसलिए निजी व्यक्ति अक्सर मुश्किल में पड़ते हैं।

उन्हें इस आत्मविश्वास की जरूरत है कि वे नीति निर्माताओं तक पहुंच सकते हैं और महत्त्वपूर्ण समस्याओं को हल कर सकते हैं। कारोबारी भावना के स्वरूप में समाज के संघर्षों की भी भूमिका होती है। जब समूची संस्कृति सामंजस्य और आशावाद होगा तो कारोबारी भावना बेहतर होगी। जब व्यापक संस्कृति में गुस्सा और हिंसा होंगे तो निजी लोगों में निवेश का भरोसा जगाना मुश्किल होगा।

(लेखक एक्सकेडीआर फोरम में शोधकर्ता हैं)

First Published - September 9, 2024 | 9:26 PM IST

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