विपक्ष को एकजुट करने की कोशिश में ही द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम (द्रमुक) अध्यक्ष एम के स्टालिन नई दिल्ली में पार्टी कार्यालय के उद्घाटन के अवसर पर समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव के साथ नजर आए। विडंबना यह है कि मजबूत विपक्ष के महत्त्व को विपक्षी नेतृत्व ने नहीं बल्कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के शीर्ष नेतृत्व में शामिल एक व्यक्ति ने रेखांकित किया। पुणे में एक मराठी समाचार पत्र द्वारा आयोजित समारोह में केंद्रीय मंत्री और वरिष्ठ भाजपा नेता नितिन गडकरी ने कहा कि लोकतंत्र के लिए एक मजबूत विपक्ष अपरिहार्य है। गडकरी ने कहा, ‘अटल बिहारी वाजपेयी सन 1950 के दशक में लोकसभा चुनाव हार गए लेकिन वह (तत्कालीन कांग्रेसी प्रधानमंत्री) पंडित जवाहरलाल नेहरू की सराहना पाने में कामयाब रहे। इसलिए एक लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। मैं हृदय की गहराइयों से यह कामना करता हूं कि कांग्रेस मजबूत बनी रहे। आज जो नेता कांग्रेस में हैं, उन्हें अपनी विचारधारा पर टिके रहना चाहिए और कांग्रेस में बने रहना चाहिए। उन्हें हार से हताश होने के बजाय काम करते रहना चाहिए।’ उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया कि कम से कम वह इस मान्यता से सहमत नहीं हैं कि भाजपा को अपने मिशन में सफल तभी माना जाएगा जब ‘भारत कांग्रेस मुक्त’ हो जाएगा और यह भी कि भाजपा के दरवाजे कांग्रेस से आए सभी दलबदलुओं के लिए खुले ही रहेंगे। यह एक भाजपा नेता के लिए बहादुरी की बात है क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह दोनों ने कांग्रेस मुक्त भारत को हमेशा प्रमुख इच्छा के रूप में जाहिर किया है। परंतु गडकरी की चिंता अलग थी। उन्होंने कहा कि कांग्रेस के कमजोर होने का अर्थ यह है कि क्षेत्रीय पार्टियों का उदय हो रहा है जो भारतीय राजनीति के लिए अच्छी बात नहीं है।
देश में पार्टी आधारित विपक्ष की प्रकृति कैसी होने वाली है? क्या कांग्रेस लगातार चुनावी हारों के सामने झुकेगी और विशुद्ध राजनीतिक आत्मरक्षा के कदम के रूप में क्षेत्रीय पार्टियों के लिए जगह मुहैया कराने को तैयार होगी। यह संभव है लेकिन ऐसा होने के कोई संकेत नहीं दिख रहे। 2021 में संसद के पूरे शीतकालीन सत्र के दौरान तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) के सांसदों ने दोनों सदनों में केंद्र द्वारा उनके राज्य से उबले चावल यानी उसना खरीदने से इनकार करने का भारी विरोध किया। नवंबर 2021 में भारतीय खाद्य निगम ने तेलंगाना के किसानों से यह स्पष्ट कर दिया था कि उसके पास उबले चावल का कोई इस्तेमाल नहीं है और वह उसे नहीं खरीदेगा। इसके बाद मुख्यमंत्री और टीआरएस प्रमुख के चंद्रशेखर राव ने किसानों से कहा कि वे और धान न बोएं। लेकिन करीबनगर और नलगोंडा जिलों में ही 1,000 से अधिक मिलें हैं जो उबले चावल तैयार करने का काम करती हैं। यदि कोई उनसे चावल नहीं खरीदेगा तो वे बोझ बन जाएंगी। उनमें से ज्यादातर ने मशीनों के लिए कर्ज ले रखा है। इस चावल के उत्पादन में हजारों श्रमिक काम करते हैं।
केवल तेलंगाना में नहीं, ओडिशा, पश्चिम बंगाल और बिहार में भी उबला चावल पसंद से खाया जाता है। बल्कि बंगाल में 1.15 करोड़ टन चावल की खपत है और उसमें से 90 प्रतिशत उबला चावल ही होता है। बीजू जनता दल के सांसद पी आचार्य ने गत वर्ष दिसंबर में लोकसभा में कहा था कि ओडिशा में इस वर्ष स्थानीय कल्याण योजनाओं की जरूरतों के बाद भी 28 लाख टन अधिशेष उबला चावल बचा है।
आचार्य ने शून्य काल के दौरान कहा, ‘हम एफसीआई के जरिए अपने अधिशेष चावल की आपूर्ति कर रहे थे। खेद की बात है कि ओडिशा, तेलंगाना और अन्य राज्यों के किसानों की समस्याओं में इजाफा करते हुए इस वर्ष केंद्र सरकार ने निर्देश दिया है कि हमारे राज्य से उबले चावल का एक दाना भी नहीं खरीदा जाएगा।’ केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल का बचाव कूटनीतिक लेकिन मुखर था। उन्होंने सदन को बताया, ‘स्थिति ऐसी है हम ऐसा चावल मुहैया करा सकते हैं जिसे अन्य राज्यों में भी लोग खाते हैं। हम लोगों पर किसी खास तरह का चावल नहीं थोप सकते। एफसीआई वही चावल खरीद सकता है जो अन्य राज्यों में भी खाया जाता है।’
गत सप्ताह कांग्रेस सांसद राहुल गांधी ने तेलंगाना सरकार और केंद्र सरकार दोनों पर हमला बोलते हुए कहा कि उन्होंने धान किसानों को बहुत मुश्किल हालात में डाल दिया। एक मसला जो नमक सत्याग्रह जैसा बड़ा विषय बन सकता था (और जिसे प्रधानमंत्री के वोकल फॉर लोकल के नारे के खिलाफ इस्तेमाल किया जा सकता था) वह मामूली कहासुनी में बदल गया। पूर्व केंद्रीय मंत्री और कांग्रेस नेता मणिशंकर अय्यर ने बताया कि कांग्रेस के साथ समस्या क्या है। उन्होंने कहा, ‘कांग्रेस पार्टी जहां हर किसी की पार्टी बनना चाहती है, वहीं हमारे मतदाताओं में से कई मानते हैं वह अब किसी की पार्टी नहीं रह गई है। भारतीय राजनीति के विभाजन ने कांग्रेस को बचेखुचे अवशेषों पर छोड़ दिया है।’ वह कहते हैं कि कांग्रेस नेतृत्व को 2004 में वापस जाना होगा और वह करना होगा जो उस समय सही साबित हुआ था। वह कहते हैं, ‘सोनिया गांधी ने 2004 में क्या हासिल किया: उन्होंने अपनी समावेशन वाली पार्टी को समावेशन वाले गठबंधन यानी संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन में बदला। यह एक ऐसा इंद्रधनुषी गठबंधन था जिसमें विशिष्ट हितों की राजनीति करने वालों के हिमायती थे। गठबंधन का पहला कार्यकाल इतना अच्छा रहा कि 2009 में लगातार दूसरी बार सरकार बनी और कांग्रेस 2004 की 140 सीट से बढ़कर 2009 में 206 सीट पर पहुंच गई।’
ताजा पहल पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने की है। उन्होंने संघवाद को पहुंच रही क्षति पर चिंता जताते हुए विपक्षी दलों को लिखा, ‘मैं हर किसी से अनुरोध करती हूं कि वे साथ आएं और सबकी सुविधा और उपयुक्तता के हिसाब से तयशुदा जगह पर बैठकर विचार करें। आइए एकीकृत और सैद्धांतिक विपक्ष तैयार करने को लेकर प्रतिबद्धता जताएं जो देश में ऐसी सरकार का मार्ग प्रशस्त करेगा जैसी देश को मिलनी चाहिए।’ उन्हें कांग्रेस के प्रत्युत्तर का इंतजार है।
