विकसित भारत के लक्ष्य ने भारत के सामने एक चुनौतीपूर्ण एजेंडा पेश किया है। इसका एक अहम पहलू है प्रति व्यक्ति सकल राष्ट्रीय आय को मौजूदा 3,348 डॉलर से बढ़ाकर 14,000 डॉलर पहुंचाना तथा देश को निम्न मध्य आय वाले देश से उच्च आय वाले देशों की श्रेणी में ले जाना।
बहरहाल अगर भारत ने 2047 तक यह लक्ष्य हासिल नहीं किया तो उसके समृद्ध होने से पहले ही उम्रदराज होने का भी खतरा है। उस समय तक देश की 14 फीसदी आबादी 65 वर्ष या उससे अधिक आयु की हो जाएगी। भारत की वार्षिक वृद्धि को 10 से 12 फीसदी से अधिक करना होगा जबकि फिलहाल यह छह या सात फीसदी से अधिक नहीं है। ऐसा करके ही हम मध्य आय के उस जाल से बच सकेंगे जिसमें मलेशिया, थाईलैंड और इंडोनेशिया जैसे देश उलझ गए थे। दक्षिण कोरिया अपनी प्रति व्यक्ति राष्ट्रीय आय को 1983 के 2,130 डॉलर से बढ़ाकर महज 25 वर्षों में 23,860 डॉलर करने में कामयाब रहा। ऐसा उसने इलेक्ट्रॉनिक्स, वाहन और रक्षा क्षेत्र में अहम पेशकश की बदौलत किया।
तकनीक आधारित ज्ञान वाली अर्थव्यवस्था में किसी उत्पाद की बौद्धिक संपदा उसके मूल्य में आधा योगदान करती है और केवल विनिर्माण के दम पर मूल्य निर्माण की बराबरी कर पाना चुनौतीपूर्ण होता है। चीन ने इस हकीकत को पहचान कर अपनी राह बदली और अब उसका लक्ष्य 2050 तक नवाचार में अगुआ बनने का है। भारत को भी विकसित भारत का लक्ष्य हासिल करने के लिए ‘मेक इन इंडिया’ से आगे बढ़कर ‘मेक प्रॉडक्ट इन इंडिया’ की दिशा में काम करना होगा। नई रणनीति कोविड-19 के दौर से तथा रक्षा क्षेत्र से अंतर्दृष्टि हासिल कर सकती है।
पहली बात, शोध एवं विकास कार्य को सरकारी क्षेत्र से परे ले जाने की आवश्यकता है। वैसे ही जैसा अंतरिक्ष और ड्रोन के क्षेत्र में किया गया। हमें परमाणु ऊर्जा और गहरे समुद्र के खनन को इस सूची में शामिल करना होगा। इसके लिए सरकार को बढ़चढ़कर यह प्रयास करना होगा कि पुराने सरकारी संस्थान निजी क्षेत्र के प्रवेश को बाधित न करें। रक्षा क्षेत्र में निजी क्षेत्र को 2001 में इजाजत दे दी गई थी लेकिन महत्त्वपूर्ण भागीदारी 2018 के बाद सामने आई जब मेक-2 और आईडेक्स योजनाओं ने आकार लिया तथा स्वदेशी हल बहुत कम लागत और समय में तैयार होने लगे।
उद्योग जगत से इनस्पेस जैसे नियामक के निर्माण ने भी सहायता की। प्रतिस्पर्धा को सार्थक साझेदारी में बदलने से भी कामयाबी हासिल हुई। उदाहरण के लिए कोविड महामारी के दौरान राष्ट्रीय विषाणु विज्ञान संस्थान ने सार्स-कोव-2 वायरस को अलग-थलग किया और उसे भारत बायोटेक के साथ साझा किया। इससे कोवैक्सीन का निर्माण हो सका जिसे कुछ ही महीनों में वाणिज्यिक रूप से उपलब्ध कराया जा सका। एक अन्य विकल्प है निजी-सरकारी भागीदारी जिसने अधोसंरचना क्षेत्र में बड़ी कामयाबी दिलाई है। शोध एवं विकास को उपयुक्त ढंग से संशोधित किया जा सकता है।
दूसरा, ‘नवाचार की सुगमता’ को नया मंत्र बनाना चाहिए। इसके लिए नियामकीय ढांचे में बदलाव की आवश्यकता होगी। यह स्वीकार करना कि नवाचारी उत्पाद मौजूदा मानकों और नियमों को चुनौती दे सकते हैं। नियामकों को नवाचार को प्राथमिकता देनी चाहिए। इसे भी महामारी के दौरान बल मिला जब नियमों के तहत आपात इस्तेमाल की मंजूरी न होने के बाद भी सरकारों ने टीकों के सीमित इस्तेमाल की इजाजत दी। जेनेटिक बदलाव को लेकर समीक्षा समितियों द्वारा नियामकीय मंजूरी महीनों या सालों के बजाय दिनों में दी गई। आईडेक्स में भी ऐसा ही देखने को मिला। कठोर अनुपालन और विशेष मांगों के बजाय सशस्त्र बलों ने व्यापक जरूरतों के आधार पर विशिष्टताओं को अपनाया और डेवलपरों को संभालने के लिए एक परियोजना सुविधा टीम की स्थापना की।
तीसरा, सरकारी खरीद में नवाचार को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। ओईसीडी का 2017 का सर्वेक्षण बताता है कि 80 फीसदी देशों ने नवाचार आधारित खरीद को नीतिगत या विधिक उपायों की मदद से बढ़ावा दिया। सरकारी खरीद नवाचार करने वालों को एक तरह की वैधता प्रदान करती है, ग्राहक उन पर भरोसा करने लगते हैं और राजस्व आना सुनिश्चित होता है। इससे जोखिम कम होता है। कोविड-19 और आईडेक्स के मामलों में हमने देखा कि सुनिश्चित सरकारी खरीद नवाचार की कामयाबी में अहम है। स्वदेशी तौर पर विकसित वस्तुओं की खरीद के लिए स्पष्ट ढांचा तैयार किए जाने की आवश्यकता है। इसमें स्वदेशी रूप से विकसित उत्पाद को परिभाषित करना तथा उचित कीमत तय करना जरूरी है।
चौथा, उत्पाद विकास में सरकारी फंडिंग की मदद से जोखिम को कम करना। अंतरिम बजट में 50 वर्ष की अवधि के साथ एक लाख करोड़ रुपये की घोषणा उल्लेखनीय है लेकिन परिचालन ब्योरों पर विचार करना होगा। अमेरिका में डीएआरपीए और इजरायल में जोज्मा जैसे सफल मॉडल से उल्लेखनीय अंतर्दृष्टि हासिल की जा सकती है। भारत का जीवंत स्टार्टअप परिदृश्य और फंड्स के फंड तथा आईडेक्स मॉडल की कामयाबी का लाभ लिया जा सकता है। आईडेक्स मॉडल का विस्तार रक्षा से इतर अन्य क्षेत्रों में किया जा सकता है और शोध एवं विकास आधारित फंड्स के फंड पर काम किया जा सकता है। इससे निजी निवेश जुटाने में मदद मिलेगी और नवाचार से जुड़़ा जोखिम कम होगा।
पांचवां, भारत की जनांकीय बढ़त का लाभ उठाकर उभरती तकनीक के सहारे एक उल्लेखनीय टैलेंट पूल बनाने की जरूरत। विश्वविद्यालयों को भी उद्यमिता और नवाचार को बढ़ावा देने वाले केंद्रों में बदलने की आवश्यकता है। इसके लिए स्टैनफर्ड विश्वविद्यालय से सबक लिया जा सकता है।
छठा, गहन वैश्विक प्रतिस्पर्धा के बीच स्वदेशी ब्रांड का विकास अहम है। इसके आधार पर ही आयातित वस्तुओं को चुनौती दी जा सकती है। स्थानीय वस्तुओं को बढ़ावा देने के लिए नारेबाजी से आगे बढ़कर काम करना होगा और उसे
सरकारी नीति बनाना होगा। इसके अलावा सरकार को नीतिगत रूप से स्वदेशी रूप से विकसित उत्पादों को द्विपक्षीय और बहुपक्षीय प्रणाली के तहत निर्यात करना होगा।
सातवां, उत्पाद विकास के मानक तैयार करने और उसे अपनाने पर जोर देने की जरूरत है। भूराजनीति मानक निर्माण में अहम भूमिका निभाती है। कोवैक्सीन को मंजूरी में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने जो समय लिया वह इसका उदाहरण है। प्रभाव पर जोर देने के लिए सरकार को उद्योग जगत के साथ मिलकर काम करना चाहिए ताकि वैश्विक संस्थाओं में निर्णय लेने वाली भूमिका सुनिश्चित हो सके। प्राथमिक कदम के रूप में राष्ट्रीय मानक निर्माण संस्थानों को उद्योग जगत के नेतृत्व वाला बनाना आवश्यक है।
आखिर में संरक्षणवाद से बचाव जरूरी है ताकि विश्वस्तरीय उत्पाद विकास व्यवस्था कायम की जा सके। भारतीय नवाचार दुनिया में सर्वश्रेष्ठ का मुकाबला कर सकता है और भारतीय उपभोक्ताओं को स्वदेशी विकास के नाम पर कमतर उत्पाद नहीं मिलने चाहिए।
एक उत्पाद आधारित देश के रूप में भारत उच्च आय वाले रोजगार तैयार करेगा जो लोगों का जीवन बेहतर बनाएंगे। नवाचार से सामाजिक और पर्यावरण संबंधी जरूरतें पूरी करने में भी मदद मिलेगी। भारत में उत्पाद तैयार करना एक रणनीतिक जरूरत है और चुनाव के बाद सरकार को इस पर तत्काल ध्यान देना चाहिए।
(लेखक भारत के पूर्व रक्षा सचिव और आईआईटी कानपुर के विशिष्ट अतिथि प्राध्यापक हैं)