आप क्या इस बात से सहमत नहीं हैं कि भारतीय प्रबंधकों की आयु जब 40 के करीब होने लगती है तो वे वास्तविक काम करना बंद कर देते हैं और बैठक करने, समीक्षा बैठकों की अध्यक्षता करने जैसे अनुष्ठान रूपी काम करने लगते हैं?
मुझसे यह सवाल एक मित्र ने पूछा था जब हम बीकेसी मुंबई में एक बेहतरीन रेस्तरां में दोपहर का भोजन कर रहे थे। मेरे मित्र ने मुझे यह कह कर मिलने के लिए बुलाया था कि हमें मिले हुए लंबा वक्त हो चुका है। वह एक आईटी सेवा कंपनी के संस्थापक और मुख्य कार्य अधिकारी हैं जहां 5,000 लोग काम करते हैं। हम लोग एक दूसरे को तब से जानते हैं जब हमने काम करना शुरू ही किया था।
मैं अपने मित्र के सवाल को हजम करने की कोशिश कर रहा था और एक सही उत्तर की तलाश कर रहा था। इस बीच मेरे मित्र ने मेरे चेहरे पर उग आए सवाल को समझ लिया और पूछा, ‘क्या आपने मेरा सवाल सुना?’ मैंने उनसे कहा कि मैं दरअसल उन प्रबंधकों के साथ अपने अनुभव के बारे में सोच रहा हूं जो 30 की उम्र के पार थे।
मैंने बताया कि मैं इस बारे में भी सोच रहा था कि क्या यही वह समय है जब उनके माता-पिता को उम्र से संबंधित स्वास्थ्य समस्याएं होने लगती हैं, उनके बच्चे उस समय शायद बेहतर कॉलेज में दाखिला लेने के लिए संघर्ष कर रहे होते हैं…।
शायद इन दबावों के कारण ही प्रबंधक इस आयु वर्ग में विचलित नजर आते हैं और काम को रस्मी तौर पर लेना शुरू कर देते हैं। मेरे मित्र ने कहा, ‘मुझे नहीं लगता है कि पारिवारिक दबाव इसकी वास्तविक वजह है। मैं मानता हूं कि यह भारतीयों का पुराना व्यवहार है जहां वे वित्तीय रूप से सहज स्थिति में पहुंचते ही रोजमर्रा के कामों से दूरी बनाने लगते हैं।’
मेरे दिमाग में अपने जीवन के बीते दो दशक घूम रहे थे। मेरा मित्र एक बात तो सही कह रहा था: मैं भी यह याद कर सकता हूं कि जब मैं बिज़नेस स्कूल कॉन्फ्रेंस आदि में वरिष्ठ प्रबंधकों से मिलता हूं तो अक्सर एमबीए के विद्यार्थियों को संबोधित करते हुए अपने भाषण में वे काम को दूसरों को बांटने पर जोर देते हैं, बजाय कि खुद काम करने के। हार्वर्ड बिज़नेस रिव्यू के हवाले से कहें तो, ‘नेतृत्व करने वालों के लिए सबसे कठिन बदलाव होता है काम करने वाले से नेतृत्व करने वाला बनना…।
इसका अर्थ है दूसरों के विचारों को आकार देना और अपनी प्राथमिकताओं को दूसरों के प्रेरित कदमों के जरिये जीवंत बनाना।’ दूसरे शब्दों में प्रबंधक बनने का अर्थ है खुद काम करना बंद करना और केवल दूसरों के विचारों को आकार देना। मैंने इस सवाल को चैटजीपीटी के सामने पेश किया: ‘अनुष्ठान क्या हैं और उनका उद्देश्य क्या है?’
मुझे जो जवाब मिला वह इस प्रकार है: ‘अनुष्ठान में प्रतीकात्मक कदम और समारोह शामिल होते हैं। ये विविध संदर्भों में कई तरह की भूमिकाएं निभाते हैं। सांस्कृतिक स्तर पर वे सामाजिक पहचान को परिभाषित करते हैं और उस पर जोर देते हैं।
ऐसा करके वे साझा विरासत के साथ तमाम पीढ़ियों को जोड़ते हैं। धार्मिक स्तर पर अनुष्ठान लोगों को उच्च शक्तियों से जोड़ते हैं, भक्ति प्रकट करते हैं, मार्गदर्शन लेते हैं और आध्यात्मिक लक्ष्यों को चिह्नित करते हैं। वहीं भावनात्मक स्तर पर अनुष्ठान एक शांत और जमीनी प्रभाव प्रदान करते हैं, चिंता को कम करके और नियंत्रण की भावना के जरिये समग्र कल्याण में योगदान करते हैं।’ इससे मेरे दिमाग में चीजें बेहद साफ हुईं लेकिन मुझे अभी भी आश्चर्य होता है कि हम मनुष्य हर रोज जिन ढेर सारी चीजों में शामिल रहते हैं वे आनुष्ठानिक ही होती हैं और उनका कोई अर्थ नहीं होता।
उदाहरण के लिए अनेक पर्यवेक्षकों का मानना है कि भारतीय कारखाने और कार्यालय आईएसओ, सिग्मा आदि प्रमाणन हासिल करने के लिए कड़ी मेहनत करते हैं लेकिन इन कारखानों और कार्यालयों को अधिकांश समय इन मानकों को हासिल करने की दिशा में मेहनत करने और कई सौ पन्नों के दस्तावेज तैयार करने में बीतता है जिनमें इन मानकों को पूरा करने पर ध्यान दिया जाता है जबकि गुणवत्ता में वास्तविक सुधार की दिशा में काम नहीं किया जाता है। प्रमाणन मंत्रों की तरह होते हैं और इनके द्वारा दी जाने वाली व्यवस्था को पवित्र माना जाता है।
जब बात भारत में शिक्षा की आती है तो इस बात पर आत्मावलोकन करने की आवश्यकता है कि क्या अपने शैक्षणिक संस्थानों को शीर्ष पर ले जाने की चाह के कारण हम प्रवेश परीक्षाओं पर कुछ ज्यादा ही जोर देने लगे हैं। कोटा के बारे में हमें जो खबरें सुनने को मिलती हैं वे इस बात का उदाहरण हैं कि हमारी शिक्षा व्यवस्था में ट्यूशन देने वाले कॉलेजों का प्रभाव बहुत बढ़ गया है। क्या मौजूदा प्रवेश परीक्षाओं में रटने पर जोर दिया जाता है? क्या रटने की इस संस्कृति में यह खतरा शामिल है कि पढ़ना एक रस्मी प्रक्रिया में बदल जाएगा?
शायद देश में सबसे बड़ी त्योहारी रस्म दीवाली, क्रिसमस, नया साल, पोंगल या ओणम नहीं बल्कि जीडीपी की समय-समय पर होने वाली घोषणा है। इसके बारे में माना जाता है कि यह हमारे आर्थिक जीवन की बेहतरी का द्योतक है। आमतौर पर सत्ताधारी दल जश्न मनाता है और विपक्षी दल चुनौती देते हैं।
जोसेफ स्टिगलिट्ज और अमर्त्य सेन जैसे विद्वान बता चुके हैं कि जीडीपी का पैमाना नागरिकों की बेहतरी के आकलन के लिए खासा कमजोर है। इसके बावजूद यह रस्म जारी है: संवाददाता सम्मेलन, सार्वजनिक भाषण और सोशल मीडिया पर होने वाले शोर की तुलना आसानी से दीवाली, ओणम, पोंगल और अन्य अवसरों से की जा सकती है।
आखिर में शायद यह सही है कि जैसे-जैसे हम डिजिटल युग में आगे बढ़ते जा रहे हैं, हमारे रोज तैयार होकर सुबह नौ से शाम पांच बजे तक काम पर जाने की रस्म भी कमजोर पड़ने वाली है। क्या अधिकांश लोगों के लिए काम का मतलब घर से काम करना होता जा रहा है? क्या शानदार मुख्यालय बनाना भी जल्दी ही मंदिर और चर्च तथा मस्जिद बनाने जैसा बन जाएगा, मानो बेहतर कारोबार चलाने के लिए ऐसा करना जरूरी हो।
शायद मेरे सामने ये कठिन सवाल रखने वाले मित्र सही थे। इस बात पर शोध करना उपयोगी होगा कि आखिर 30 से अधिक आयु के प्रबंधक रस्मी जीवन क्यों जीने लगते हैं।
(लेखक इंटरनेट उद्यमी हैं)