आसियान- भारत वस्तु व्यापार समझौते (एआईटीआईजीए) की समीक्षा इसी माह होनी है। देश का उद्योग जगत लंबे समय से इसकी मांग कर रहा था। वह समझौते के प्रावधानों में संशोधन चाहता है ताकि द्विपक्षीय व्यापार संतुलन, जो आसियान के पक्ष में है, उसे कम किया जा सके या पलटा जा सके। गत नवंबर में समीक्षा की घोषणा के तत्काल बाद भारतीय उद्योग जगत से आए वक्तव्यों में आसियान से चुनिंदा वस्तुओं का आयात बढ़ने को लेकर चिह्नित किया गया था। बहरहाल, अगर भारतीय वार्ताकार केवल इन आशंकाओं से निर्देशित न हों तथा अन्य उभरते वैश्विक तथा क्षेत्रीय व्यापार संदर्भों को भी ध्यान में रखें तो बेहतर होगा।
एआईटीआईजीए 2009 में हस्ताक्षरित एक उथला मुक्त व्यापार समझौता (एफटीए) है। इस मुक्त व्यापार समझौते के माध्यम से कुछ आसियान देशों को भी अपेक्षाकृत अधिक लाभ प्रदान किया गया जो प्राय: बड़ी नकारात्मक सूची वाले हैं। इसके अतिरिक्त रूल्स ऑफ ओरिजिन (आरओओ) ने सिंगापुर जैसे सदस्य देशों के साथ भारत के द्विपक्षीय एफटीए की तुलना में सीमित मूल्यवर्धित सामग्री की बात कही। सेवाओं के उदारीकरण से जुड़े समझौते में अपेक्षित क्षतिपूर्ति लाभ भी उस लंबी अवधि के कारण फलीभूत नहीं हो सका जिस दौरान वार्ता हुई। आसियान के अंदर सेवा क्षेत्र के सीमित उदारीकरण के कारण भी ऐसा हुआ।
आसियान के साथ बढ़ते घाटे के लिए भारत का उच्च टैरिफ अधिक बड़ी वजह है। इसके अलावा भारत की सीमित निर्यात प्रतिस्पर्धा क्षमता के कारण आसियान देशों को अपेक्षाकृत अधिक प्राथमिकता मार्जिन प्रदान किया जा रहा है। भारत के प्राय: सभी एफटीए में इन दोनों कारकों का योगदान है क्योंकि भारत गैर कृषि क्षेत्र में तरजीही देशों में अधिकांशत: अधिक औसत टैरिफ रखता है।
ऐसे में भारत के लिए यह उपयुक्त होगा कि वह संशोधन प्रक्रिया आरंभ होने के पहले आयात टैरिफ कम करे। समीक्षा वार्ता में यह बात भी ध्यान देने लायक हो सकती है कि कृषि और वस्त्र क्षेत्र को भारत अक्सर आसियान के गैर टैरिफ उपायों द्वारा उच्च सुरक्षा के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करता है, वे उन क्षेत्रों में से हैं जो दुनिया के अधिकांश एफटीए में तरजीही बाजार के दायरे से बाहर हैं।
बहरहाल, एफटीए समीक्षा के व्यापक संदर्भ को दूरगामी लाभ के नजरिये से देखना जरूरी है जो क्षेत्रीय और वैश्विक मूल्य श्रृंखला के एकीकरण के साथ भारत को हो सकता है। आसियान के साथ एफटीए में संशोधन भारत को अवसर देता है कि वह क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी (आरसेप) से बाहर रहने के कारण हुए नुकसान की भरपाई कर सके। इसके माध्यम वे वह क्षेत्रीय वैश्विक मूल्य श्रृंखला केंद्र के साथ भी जुड़ सकता है।
यह समय से उठाया गया कदम है क्योंकि क्षेत्रीय और वैश्विक मूल्य श्रृंखलाओं को लेकर आसियान की केंद्रीयता ‘चीन प्लस वन’ की विविधता की रणनीति के कारण नए सिरे से जोर पकड़ रही है। आसियान देशों की अर्थव्यवस्थाएं मोटे तौर पर भूराजनीतिक रुख से निरपेक्ष होती हैं, आर्थिक दृष्टि से मजबूत होती हैं, निर्यात की ओर उनका मजबूत झुकाव होता है और वे कई व्यापार और निवेश समझौतों में शामिल होती हैं। यह बात उन्हें चीन से परे वैश्विक मूल्य श्रृंखलाओं के लिए आकर्षक बनाती हैं।
जापान और कोरिया जैसी क्षेत्रीय अर्थव्यवस्थाएं अन्य आसियान अर्थव्यवस्थाओं के अलावा इंडोनेशिया, थाईलैंड और वियतनाम को सक्रिय रूप से सब्सिडी दे रही हैं और वहां ‘फ्रैंडशोरिंग’ कर रही हैं। फ्रैंडशोरिंग का अर्थ है निर्माण और सोर्सिंग के काम को ऐसे देशों में स्थानांतरित करना जो भू राजनीतिक सहयोगी हों। इस दृष्टि से वियतनाम अमेरिका के लिए सेमीकंडक्टर विनिर्माण का नया ठिकाना है।
वैश्विक मूल्य श्रृंखलाओं का इस प्रकार गहन होना और इस संदर्भ में संभावित लाभार्थी आसियान अर्थव्यवस्थाओं की बढ़ती तादाद एक अहम तत्त्व है जिसे एफटीए समीक्षा की प्रक्रिया में महत्त्व दिया जाना चाहिए। इस बात को ध्यान में रखते हुए एआईटीआईजीए की समीक्षा को लेकर तीन अहम बातें हैं।
सबसे अधिक ध्यान समुचित आरओओ के गठन पर दिया जाना चाहिए। भारत को अत्यधिक जटिल, दोहरे मानकों पर आधारित आरओओ से बचना चाहिए और प्रमाणन की प्रक्रिया को सरल बनाना चाहिए। जरूरत यह भी है कि आसियान देशों ने आरसेप के जरिये जिस क्षेत्र व्यापी संचयन को चुना है उस पर सावधानीपूर्वक विचार किया जाए।
आरसेप के तहत 40 फीसदी स्थानीय सामग्री का नियम क्षेत्रीय मूल्य श्रृंखलाओं के लिए अहम है और वैश्विक मूल्य श्रृंखलाओं को नई जगह स्थापित करने के लिए एक बड़ा आकर्षण है। संभव है कि आसियान आरसेप का इस्तेमाल एआईटीआईजीए की समीक्षा के लिए नमूने के तौर पर करे। आरओओ में किसी तरह की क्षेत्रव्यापी व्यवस्था को अपनाने सेभारत आरसेप से बाहर रहने की सीमाओं से निजात पा सकेगा और क्षेत्रीय एवं वैश्विक मूल्य श्रृंखलाओं के साथ एकीकृत हो सकेगा।
दूसरा महत्त्वपूर्ण पहलू निवेश चैप्टर से संबंधित है जिस पर भारत को अब तक अपने एफटीए में बातचीत करना मुश्किल लगता रहा है। आसियान की अपेक्षाओं को ऑस्ट्रेलिया-न्यूजीलैंड के साथ उसके ताजा एफटीए में उन्नयन से समझा जा सकता है जो अग्रगामी सोच का है। विवाद निस्तारण और निवेशकों के साथ तरजीही मुल्क वाला व्यवहार, घरेलू सामग्री के इस्तेमाल जैसी प्रदर्शन से जुड़ी शर्तें और न्यूनतम निर्यात आवश्यकताओं आदि को संशोधित निवेश चैप्टर में शामिल किया गया है। ये तत्त्व क्षेत्रीय अर्थव्यवस्थाओं को निवेश के लिए आकर्षक बनाते हैं। ऐसे में भारत के लिए यह आवश्यक है कि वह अपने रुख में बदलाव करे जो 2016 की द्विपक्षीय निवेश संधि के उच्च प्रतिबंधात्मक मॉडल पर आधारित है।
तीसरा, एआईटीआईजीए के अनुभव लेते हुए समीक्षा वार्ता एक साथ और व्यापक आधार पर की जानी चाहिए। वस्तुओं, सेवाओं और निवेश उदारीकरण को इसमें शामिल किया जाना चाहिए। हर घटक की सीमा के लिए अलग वार्ता, क्षेत्रों के पार सौदेबाजी और व्यापार गतिरोध की संभावनाओं को सीमित करती है। इससे वार्ताकार पक्षों की महत्त्वाकांक्षा ढांचागत रूप से सीमित हो जाती है।
बहरहाल यह अहम है कि सेवाओं के उदारीकरण में भारत चरण-4 उदारीकरण से परे सोचे और उन क्षेत्रों पर विचार करे जो विनिर्माण के साथ जुड़कर निर्यात प्रतिस्पर्धा बढ़ाने में मदद करेंगे। इसमें सुधार और रखरखाव जैसे भारत की तुलनात्मक बढ़त वाले क्षेत्र और डिजिटल सेवा क्षेत्र शामिल है जिस पर क्षेत्रीय आर्थिक समुदाय के नजरिये से आसियान का विशेष ध्यान है।
आखिर में, भारत को ‘पूर्व की ओर देखो’ नीति के महत्त्व की सराहना करनी चाहिए। उत्तरी अमेरिका और यूरोपीय संघ द्वारा व्यापार संरक्षण और अंतर्मुखी क्षेत्रवाद को अपनाने के विपरीत एफटीए के नियमों का पालन करने वाला यह इकलौता ऐसा क्षेत्र है।
अमेरिका के साथ हालिया व्यापार नीति मंच की वार्ताओं ने ऐसा कोई संकेत नहीं दिया कि भारत के लिए प्राथमिकताओं के लिए सामान्यीकृत व्यवस्था की बहाली होगी। वैश्विक मूल्य श्रृंखलाओं के लिए अहम हिंद-प्रशांत आर्थिक ढांचे के व्यापार स्तंभ समझौते पर भी सदस्य अर्थव्यवस्थाओं में सहमति नहीं बन सकी। यूरोपीय संघ के साथ भारत का एफटीए भी कुछ खास प्रगति नहीं कर सका है। ऐसे में भारत को लाभकारी वार्ता और एआईटीआईजीए की समीक्षा प्रक्रिया से समय पर निष्कर्ष के लिए परिश्रमपूर्वक पूर्व तैयारी सुनिश्चित करनी चाहिए।
(लेखिका जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अंतरराष्ट्रीय अध्ययन केंद्र में अर्थशास्त्र की प्राध्यापक हैं। लेख में उनके निजी विचार हैं)