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नियामक संस्थाओं पर काबिज होते पूर्व नौकरशाह, विविध प्रतिभाओं के लिए खुले नियामकीय नेतृत्व

वित्तीय क्षेत्र परिपक्व हो रहा है और ऐसे में आवश्यकता इस बात की है कि नियामकीय एजेंसियों के दरवाजे अधिक विविधता वाली प्रतिभाओं के लिए खोल दिए जाएं। बता रहे हैं

Last Updated- August 20, 2025 | 11:41 PM IST
RBI MPC MEET

एक पुराना अवलोकन एक बार फिर उभर आया है। देश के प्रमुख वित्तीय नियामकों मसलन भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई), भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) और भारतीय बीमा नियामक एवं विकास प्राधिकरण (आईआरडीएआई) आदि सभी के मौजूदा नियामक भारतीय प्रशासनिक सेवा के पूर्व अफसरशाह हैं। अक्सर इस तथ्य के साथ एक कथानक यह जोड़ दिया जाता है कि उनमें निरंतरता होती है और उन्हें सार्वजनिक व्यवस्था की गहरी समझ होती है और यह बात उन्हें इस काम के लिए सर्वथा उपयुक्त बनाती है। तर्क यह दिया जाता है कि यह कोई संयोग नहीं बल्कि उनके कौशल को मान्यता देना है जो सीमित क्षेत्रीय विशेषज्ञता से परे सामरिक सोच, आपदा प्रबंधन तक जाती है और उन्हें सरकारी मशीनरी के कामकाज की पूरी समझ होती है।

हम पीछे मुड़कर इन संस्थानों के इतिहास को देख सकते हैं और इस नज़रिये की पुष्टि के लिए प्रमाण तलाश कर सकते हैं। रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नरों की लंबी सूची में एस वेंकटरमणन, सी रंगराजन, विमल जालान, वाईवी रेड्डी और डी सुब्बाराव तक सभी अफसरशाही से आए थे और उनका लोक सेवा में लंबा करियर था। इसी प्रकार सेबी में 1992 से बने चेयरमैन मसलन जीवी रामकृष्ण, डीआर मेहता, जीएन वाजपेयी, एम दामोदरन, सीबी भावे और यूके सिन्हा भी वहीं से आए थे। आईआरडीएआई पर भी यही बात लागू होती है। उसके शुरुआती प्रमुखों में एन रंगाचारी, सीएस राव, जे हरि नारायण और टीएस विजयन अफसरशाही से आए थे।

इस तरह से देखते हुए यह नतीजा निकालना आसान है कि भारत ने सफलतापूर्वक अफसरशाहों का ऐसा कैडर तैयार किया जो नियामकीय संस्थाओं के नेतृत्व के लिए अनुकूल थे। परंतु यह धारणा खतरनाक रूप से भ्रामक है। यह हकीकत को वांछित परिणामों के साथ भ्रमित करती है। हम जो देख रहे हैं वह व्यवस्था की कामयाबी नहीं बल्कि उसकी अपरिपक्वता की निशानियां हैं। अफसरशाहों को निरंतर प्राथमिकता देने का अर्थ यह नहीं है कि हम ढेर सारे योग्य उम्मीदवारों के बीच से चयन कर रहे हैं बल्कि यह संस्थागत कमजोरी का नतीजा है जिसके चलते किसी और के कामयाब होने की संभावना कम है।                                                                                            

नियामकीय नेतृत्व के दुनिया भर में प्रचलित समझदारी भरे मॉडल्स की बात करें तो वे किसी एक तरह के पेशेवरों के बजाय विविधतापूर्ण नेतृत्व पैकेज पर काम करते हैं। किसी नियामक के लिए एक अच्छा नेतृत्व वह होता है जिसने संबंधित उद्योग में काम किया हो, व्यावहारिक कठिनाइयों, उसके प्रोत्साहनों और मुश्किलों से परिचित हो। इस व्यक्ति के पास गहन बौद्धिक क्षमता भी होनी चाहिए। अगर वह शोध या अकादमिक जगत से हो तो और भी अच्छा। इससे उसे बिना तात्कालिक हालात से प्रभावित हुए ठोस तरीके से सोच-विचार करने में सुविधा होगी। आखिर में, उसमें लोक प्रशासन, कानून और राजनीति की गहरी समझ होनी चाहिए। एक लोकतांत्रिक ढांचे मे अर्द्ध विधायी और अर्द्ध न्यायिक संस्था को चलाने के लिए यह आवश्यक है।

भारत में हमें इस आदर्श को हकीकत में उतारने में मुश्किल होती है। अफसरशाहों के बीच जो सद्भाव नजर आता है वह दरअसल एक ऐसी व्यवस्था का परिणाम है जो किसी और चीज को संभालने में सक्षम नहीं होती। हमने ठोस संस्थागत बुनियाद नहीं रखीं। अगर हम ऐसा करते तो शायद गैर अफसरशाह नियामकों को पनपने का मौका मिलता। जब बाहरी व्यक्ति को भीतर लाया जाता है तो अक्सर उन्हें काफी कठिनाई होती है क्योंकि नियामक संस्थाएं पारदर्शी औपचारिक प्रक्रियाओं और कानून के शासन द्वारा संचालित नहीं होतीं। वे अक्सर अनौपचारिक नेटवर्क, अलिखित परंपराओं और सरकार के कामकाज की उस गहरी समझ पर निर्भर होती हैं जो केवल आजीवन अफसरशाह रहे व्यक्ति के पास होती है।

यह एक बड़ी कमी है। उद्योग और शोध संस्थानों के रूप में दो अलग-अलग दुनियाओं से हासिल ज्ञान और नजरिया कोई विलासिता नहीं है। वे आधुनिक प्रभावी नियमन की आवश्यकता हैं। उद्योग जगत के पेशेवर बाजार व्यवहार, नवाचार और जोखिम की जबरदस्त समझ रखते हैं। शोधकर्ताओं के पास अहम प्रमाण आधारित मानसिकता होती है और उनमें यह बौद्धिक क्षमता होती है कि वे उभरती चुनौतियों का सामना कर सकें। इसमें जटिल वित्तीय उपायों से लेकर नई तकनीक के नियमन तक शामिल होते हैं। एक ऐसी व्यवस्था जो सुरक्षित ढंग से और समझदारीपूर्वक इन विशेषज्ञताओं को उच्चतम नेतृत्व में शामिल नहीं कर सके, वह बुनियादी रूप से अधूरी व्यवस्था होती है।

इस समस्या का निदान मौजूदा हालात को लेकर रूमानी होना या यथास्थिति को अपनाना नहीं है बल्कि इसका हल बेहतर और अधिक मजबूत संस्थान बनाना है। हमें ऐसा माहौल बनाना चाहिए जहां मनमोहन सिंह, सी रंगराजन, विमल जालान, विजय केलकर और एम एस आहलूवालिया जैसे असाधारण लोग मझोले-वरिष्ठ स्तर पर सरकार में शामिल हों और आगे बढ़ें। इस दौरान वे अपनी पेशेवर काबिलियत और अकादमिक नेटवर्क को बरकरार रखते हुए ऐसा कर सकें।

ये सारे लाेग किसी एक व्यवस्था की उपज नहीं हैं। वे विशेषज्ञों के एक समुदाय का हिस्सा थे जो सरकार, अकादमिक जगत, अंतरराष्ट्रीय संस्थानों और बाजार जैसे विविध क्षेत्रों में आवाजाही करते रहे। हालांकि इनमें से अधिकांश लोग विदेशी संस्थानों से आए लेकिन वे किसी संस्था में सीधे शीर्ष स्तर पर नहीं शामिल हुए। इसके बजाय वे देश की सार्वजनिक व्यवस्था में पनपे और उन्होंने आगे बढ़ते हुए व्यवस्थागत जटिलताओं को भी समझा।

संस्थागत सुधारों को यही बात जटिल बनाती है। आगे की राह इस बात पर निर्भर करती है कि हम नियामकीय संस्थानों को कितना मजबूत बनाते हैं और उनके कामकाज को विधि के शासन के अनुरूप कितना ढालते हैं। वित्तीय क्षेत्र विधायी सुधार आयोग यानी एफएसएलआरसी का काम इस बदलाव को बखूबी दर्शाता है।  भारतीय विधि संहिता का मसौदा जहां वित्तीय नियमन का खाका है वहीं इसमें कानून की 140 धाराएं हैं जो किसी भी नियामक पर लागू की जा सकती हैं, न कि केवल वित्तीय क्षेत्र के नियामकों पर। इन प्रावधानों को इस प्रकार तैयार किया गया है कि इनके कामकाज के बारे में एक नए तरह की स्पष्टता आती है। इनका लक्ष्य असंगठित क्षेत्र के नेटवर्क की जगह एक औपचारिक नियम आधारित प्रक्रिया को अपनाना है।

यह संस्थागत सुधार केवल इस पर निर्भर नहीं है कि हमारे नियामकों का नेतृत्व कौन करेगा बल्कि यह देश की विकास यात्रा का भी अहम हिस्सा है। एक आधुनिक अर्थव्यवस्था अस्पष्ट और व्यक्तित्व आधारित प्रशासनिक राज्य पर नहीं बन सकती। इसके लिए एक ऐसी व्यवस्था की आवश्यकता है जहां निर्णय अनुमान लगाने योग्य न हों, प्रक्रियाएं स्पष्ट हों और जवाबदेही साफ हो।

एफएसएलआरसी द्वारा सुझाए गए सुधारों का अनुकरण करके हम ऐसे नियामकीय संस्थान बना सकते हैं जो इतने मजबूत हों कि उद्योग, शोध और सार्वजनिक प्रशासन जैसे क्षेत्रों से नेतृत्व का स्वागत कर सकें। इससे हमें यह क्षमता मिलेगी कि हम उन चुनिंदा पेशेवरों द्वारा प्रदान की गई स्थिरता के भ्रम से आगे बढ़ने में सक्षम हो पाएंगे और यह एक वास्तव में परिष्कृत और प्रभावशाली नियामक नेतृत्व का निर्माण करने में मदद करेगा, जिसकी भारत को वैश्वीकृत दुनिया में समृद्ध होने के लिए आवश्यकता है।

First Published - August 20, 2025 | 11:17 PM IST

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