देश के मुख्य न्यायाधीश ने अदालती मामलों के हल में देर को न्याय न मिलने के रूप में स्वीकार करके अच्छा किया है। न्यायिक विलंब अन्य देशों में भी समस्या है लेकिन दुनिया भर में इसकी सबसे बुरी स्थिति शायद भारत में ही है। विश्व बैंक के डूइंग बिजनेस सर्वे के अनुसार देश में अदालतों के जरिये किसी अनुबंध पर अमल कराने में औसतन 1,445 दिन यानी करीब चार वर्ष लग जाते हैं। विश्व बैंक सर्वे में बेशक कुछ खामियां हैं क्योंकि वैश्विक अंतर दिखाने वाले सर्वेक्षणों में अक्सर तुलना की चुनौती होती है। परंतु वैश्विक रैंकिंग में हम चाहें जहां खड़े हों तथ्य यही है कि न्यायिक विलंब हमारे देश में गंभीर समस्या है, जिसकी वजह से कई लोगों को न्याय नहीं मिल पाता।
आश्चर्य है कि इस बात को अच्छी तरह नहीं समझा जा रहा कि न्यायिक मामलों के हल में देर का अर्थव्यवस्था पर क्या प्रभाव पड़ता है। ऐसा इसलिए क्योंकि फंसे हुए मामले इतने ज्यादा और व्यापक हैं तथा पूरी प्रक्रिया इतनी जटिल है कि इसे मापना कठिन है। तमाम राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की अदालतों में न्यायिक विलंब बहुत अधिक है और सभी प्रकार की अदालतों में सभी स्तरों पर हो रहा है। इसमें दीवानी और फौजदारी दोनों मामले शामिल हैं।
मामलों के निपटारे में देर का आर्थिक गतिविधियों पर बहुत असर होता है। इससे परिसंपत्तियां, जमीन तथा अन्य संसाधन फंस जाते हैं, जिनका बेहतर इस्तेमाल किया जा सकता था। इसके अलावा नियमित निर्णय प्रक्रिया भी कई सालों के लिए प्रभावित होती है। एक अनुमान के मुताबिक करीब 200 अरब डॉलर मूल्य की संपत्ति जमीन संबंधी विवादों में फंसी हुई है।
दूसरा असर कानूनी खर्च या लागत का है, जिसमें कानूनी शुल्क के अलावा वरिष्ठ प्रबंधन का समय और उसके प्रयासों की कीमत भी शामिल हैं। ऐसे अध्ययन नहीं मिलते हैं जो इन आंकड़ों के बारे में स्पष्ट तरीके से बताते हों परंतु मुकदमों में देर के मामले देखते हुए इसमें शक नहीं कि इनकी तादाद बहुत अधिक है।
न्यायिक विलंब के इन प्रतिकूल प्रभावों पर एक अन्य तरह का प्रभाव असर डालता है: न्यायिक देर का अनुमान। कई आर्थिक रिश्ते जिन्हें लिखित अनुबंधों की मदद से औपचारिक बनाया जा सकता था, वे अनौपचारिक ही रह जाते हैं। इसके परिणामस्वरूप कारोबार में व्यक्तिगत रिश्तों पर निर्भरता बहुत बढ़ जाती है।
आधुनिकीकरण के बावजूद सामुदायिक नेटवर्क रहते हैं और छोटे कारोबार असंगठित क्षेत्र में रहना पसंद करते हैं। बड़ी कंपनियां और कॉरपोरेट घराने स्वाभाविक रूप से कानूनी मामलों का खर्च उठा सकते हैं। वे लंबे समय तक ऐसा कर सकते हैं लेकिन मझोली कंपनियों पर हमेशा बुरा असर होता है।
न्यायिक मामलों में अंतहीन देर का सबसे अहम प्रभाव शायद व्यवहार में बदलाव के रूप में दिखता है। अनैतिक कारोबारी आचरण को तुरंत चिह्नित करके दंडित करना होगा वरना वे अपवाद के बजाय सामान्य प्रचलन बन जाएंगे। बहरहाल न्यायिक देर की स्थिति में अपवाद ही चलन बन जाते हैं। इतना ही नहीं चूंकि अनुबंधों को अमल में लाना मुश्किल होता है इसलिए जोखिम लेने की प्रवृत्ति कम हो जाती है और अधिक सचेत रुख आ जाता है।
जब अनुबंध पर अमल नहीं होता तो कारोबारी नजरिया अल्पावधि पर केंद्रित होने की संभावना होती है। अक्सर दावे किए जाते हैं कि भारतीय कारोबार जोखिम से दूर रहते हैं और शोध तथा डिजाइन में निवेश नहीं करना चाहते। कई बार सोचता हूं कि यह वाकई भारतीय कारोबारों की संस्कृति है या न्यायिक देर के माहौल में ऐसा हो गया है।
इनसे भी आगे सरकार से जुड़े मुकदमों की समस्या है, जहां कुल मुकदमों में बड़ी संख्या उनकी है, जिनमें सरकारी विभाग शामिल हैं। सरकार के भीतर राजस्व और श्रम विभाग सबसे अधिक मुकदमों में शामिल होते हैं। चूंकि मुकदमे लंबे अरसे तक खत्म नहीं होते तो इन मुकदमों का कुल असर कम नहीं होता। अध्ययनों में यह भी बताया गया है कि सरकार के विधिक विभाग मामलों की जरूरतों पर समय से उचित प्रतिक्रिया नहीं दे पाते। दूसरे शब्दों में केंद्र और राज्य सरकारों को अपनी क्षमताओं में निवेश करने की जरूरत है।
उपरोक्त सभी कारक सौदों और वृद्धि पर नकारात्मक असर डालते हैं। हालांकि इस विषय में सीमित अध्ययन हुए हैं लेकिन अनुमान है कि न्यायिक विलंब की वजह से सकल घरेलू उत्पाद वृद्धि में सालाना 1 से 2 फीसदी की कमी आई। अधिक सूक्ष्म आर्थिक अध्ययन पाते हैं कि जो उद्योग संबंधों के बल पर सौदों और निवेश पर अधिक निर्भर होते हैं, उन पर न्यायिक देर ज्यादा बुरा असर डालती है। आज के जटिल माहौल में सब कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि सौदों या करारों पर सही ढंग से तथा समय से अमल हो।
इसमें शक नहीं कि सरकारें इस बात से अवगत हैं और इस समस्या पर बहुत कुछ लिखा भी गया है। विधि आयोग, वित्त आयोग, केंद्र सरकार के मिशन और सर्वोच्च न्यायालय की पहलों से जुड़ी रिपोर्ट आदि में विभिन्न समस्याओं और संभावित समाधानों पर काफी कुछ लिखा गया है। एक अनुशंसा के मुताबिक न्यायिक पदों की संख्या बढ़ानी चाहिए, रिक्त पदों को भरा जाना चाहिए, पर्याप्त अदालतें बनानी चाहिए तथा न्यायिक ढांचा मजबूत करना चाहिए।
नई सूचना प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल बढ़ाने की बात भी कही गई। 1.4 अरब की आबादी को देखते हुए हर स्तर पर न्यायाधीशों की संख्या बढ़ानी होगी और उसे वर्तमान 25,000 से दोगुना या तीन गुना करना होगा। यकीनन इसके लिए अधिक निवेश की जरूरत होगी ताकि अदालतें, पुस्तकालय, सुनवाई के लिए जरूरी कर्मचारी बढ़ाए जा सकें। प्रक्रियाओं में सुधार के लिए आईटी का इस्तेमाल बढ़ाना होगा और इस क्षेत्र में भारी भरकम बुनियादी ढांचे की आवश्यकता होगी। न्यायाधीशों को जल्दी-जल्दी बदलना तथा अन्य प्रशासनिक मसले भी हैं जिनमें बदलाव लाकर गति और क्षमता बढ़ाई जा सकती है।
केवल न्यायिक पद बढ़ाने और बुनियादी ढांचा सुधारने से समस्या हल नहीं होगी क्योंकि न्यायिक देर व्यवस्था के कारण होती है। इसके कई कारण हैं, मसलन खराब ढंग से बनाए गए कानून, नियम और प्रक्रियाएं। विशेष और त्वरित अदालतें भी लंबी अवधि में कारगर नहीं रहीं। 2017-18 की आर्थिक समीक्षा के मुताबिक विशेष पंचाटों की आरंभिक सफलता के बाद लंबित मामले तेजी से बढ़े।
पुराने कानून खत्म करने या बदलने की आवश्यकता है। स्थगन, न्यायाधीशों को बदलना, मामले विशेषज्ञ न्यायाधीश को आवंटित नहीं करना जैसे कई कारणों से न्यायपालिका में लंबित मामले कम नहीं हो पा रहे हैं। इनमें से कई बदलावों के लिए न्यायपालिका और सरकार को मिलकर काम करना होगा।
राज्य और केंद्र दोनों स्तरों पर सरकार और न्यायपालिका के बीच तालमेल की गंभीर कमी नजर आती है। इसे दूर करना होगा। सरकार के पास एक रास्ता यह है कि वह न्यायपालिका के किसी सम्मानित सदस्य के निर्देशन में एक उच्चस्तरीय समिति का गठन करे। वह सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश के अधीन समिति बना सकती है। समिति से कहा जा सकता है कि उसे समयबद्ध तरीके से केंद्र और राज्य स्तर पर न्यायपालिका और सरकार के बीच तालमेल के तौर तरीके तलाशने हैं।
(लेखक सेंटर फॉर सोशल ऐंड इकनॉमिक प्रोग्रेस के अध्यक्ष हैं)