देश में इस समय यह लोकलुभावन मांग जोरों पर हैं अमीरों से संपत्ति छीनकर उसे गरीबों में बांट दिया जाए। यह रास्ता निरंतर गरीबी और आर्थिक नाकामी की ओर ले जाता है। इन दिनों संपत्ति कर और विरासत कर के रूप में जिन दो विषयों पर चर्चा की जा रही है वे सार्वजनिक वित्त के क्षेत्र में सुपरिचित विषय हैं। पूरी दुनिया में इनी उपयोगिता कम होने को लेकर विश्लेषण हुए हैं। भारत में भी इन्हें लगाने की कोशिश की जा चुकी है। इन्हें दोबारा नहीं लगने देना चाहिए।
आमतौर पर एक दशक में एक बार भारत में संपत्ति और विरासत पर कर का मुद्दा बहस में आता है। ये मुद्दे 19वीं सदी से ही विचार में आते रहे हैं और कई देशों ने इन्हें अपनाने का प्रयास भी किया। अधिक आजादी हासिल करने के लिए इन करों को हटाए जाने के साथ ही अच्छी खासी समृद्धि हासिल हुई है।
भारत में 1953 से 1985 तक संपदा शुल्क लगता था। इसकी दरें 85 फीसदी तक थीं लेकिन व्यवहार में संग्रह की राशि बहुत कम होती थी। राजीव गांधी ने इसे समाप्त किया। संपदा या विरासत पर कर लगाने की व्यवस्था कई देशों में आज भी लागू है। औसतन 24 ओईसीडी देशों में यह कर राजस्व में 0.5 फीसदी का हिस्सेदार है। सार्वजनिक प्रशासन की दृष्टि से देखें तो इसमें मामूली राजस्व के लिए काफी जटिलताओं का सामना करना होता है।
संपत्ति कर के मामले में संभावनाएं और भी कमजोर हैं। भारत में इसकी शुरुआत 1957 में की गई थी। इससे 2012-13 में 800 करोड़ रुपये का राजस्व जुटाया गया। इसे 2015 में समाप्त कर दिया गया। चार ओईसीडी देशों में यह लागू है और इससे नाम मात्र का राजस्व आता है।
इन्हें हासिल करने की प्रक्रिया में कीमत चुकानी होती है: मसलन देश में समझदारी भरी कर व्यवस्था लागू करने के बुनियादी काम पर ध्यान नहीं दे पाना। भारत में कराधान काफी ऊंचे स्तर पर है। देश में व्यक्तिगत आय कर की उच्चतम दर 42 फीसदी है। कॉर्पोरेट आय कर 25 फीसदी और अधिकतम जीएसटी की दर 18 फीसदी है।
आयात, गैर टैरिफ अवरोध आदि पर कर स्थिर गति से बढ़ रहा है। अगर 1991 के बाद के दौर से तुलना करें तो हमारे यहां आयात कर की दर काफी अधिक है। इससे अत्यधिक उच्च कर वाला माहौल तैयार होता है और कर अधिकारियों को मनमाना अधिकार प्रदान करता है। कर नीति में हमारी प्राथमिकता संपदा कर या विरासत की चुनौती से जूझने के बजाय कर नीति और कर प्रशासन के क्षेत्र में बेहतर काम की होनी चाहिए।
एक अर्थशास्त्री ऐसा व्यक्ति होता है जो किसी काम के व्यवहार में सफल होने पर यह देखता है कि क्या यह सिद्धांत में भी सफल है। क्या कोई अनुभव केवल चुनिंदा दुर्घटनाओं पर आधारित होता है या फिर कोई अवधारणात्मक आधार होता है जिनसे बचा न जा सके। ऐसे में तह तक जाकर यह सवाल पूछना सही होगा कि विरासत कर और संपदा कर का प्रदर्शन सही रहेगा या नहीं? लोग प्रोत्साहन पर प्रतिक्रिया देते हैं। अधिक कराधान को लेकर पहली प्रतिक्रिया कम काम के रूप में सामने आती है। अगर विरासत और संपदा कर से दंडित किया जाएगा तो लोग संपत्ति बनाने के लिए कम काम करेंगे। यह देश के लिए नुकसानदायक होगा।
दूसरी प्रतिक्रिया है कर किफायत ढांचे में नई जान फूंकना। अपने अंतिम समय में वसीयत बनाने के बजाय लोग अपनी परिसंपत्ति जिंदा रहते ही चुने हुए लोगों को हस्तांतरित कर देंगे। यह सरकार की राजस्व प्राप्ति की क्षमता को बाधित करते हुए उनके व्यवहार में विसंगति लाएगा।
कई माता-पिता कर से बचने के लिए बच्चों को जल्दी संपत्ति देकर अधिकार खोने के बजाय अप्रत्याशित निधन के पहले के वर्षों में बार-बार वसीयत को बदलना पसंद कर सकते हैं। तीसरी प्रतिक्रिया है कारोबारी गतिविधियों को किसी मित्रतापूर्ण क्षेत्र मसलन दुबई, श्रीलंका, केमैन आइलैंड, सिंगापुर या आयरलैंड में स्थानांतरित करना। यह बात कर राजस्व को प्रभावित करती है।
अगर भारत की अर्थव्यवस्था एक खुली अर्थव्यवस्था होती तो कुछ भी गलत नहीं होता। एक व्यक्ति आयरलैंड में कर चुकाता और भारत में कारोबारी गतिविधियां संचालित करता। परंतु भारत खुली अर्थव्यवस्था वाला देश नहीं है। हमारे यहां सीमा पार गतिविधियों को लेकर कई दिक्कतें हैं। चालू खाते और पूंजी खाते में परिर्वतनीयता अनुपस्थित है। ऐसे में एक बार जब कोई व्यक्ति अपना कर आवास देश के बाहर कर लेता है तो एक तरह के अलगाव की भावना घर कर जाती है तथा देश में संगठन बनाने की भावना कमजोर पड़ती है।
भारत का भविष्य करीब 10,000 कंपनियों के हाथ में है और यह बेहतर है कि भारतीय राज्य को इस प्रकार तैयार किया जाए कि वह इन नेतृत्वकारी टीम में से प्रत्येक की ऊर्जा और महत्त्वाकांक्षा का पोषण करे। संक्षेप में कहें तो संपत्ति कर और विरासत कर कमजोर प्रदर्शन करते हैं क्योंकि वे लोगों के व्यवहार को बाधित करते हैं जिससे जीडीपी को नुकसान पहुंचता है।
लोगों के व्यवहार में आई विसंगति कर राजस्व को प्रभावित करती है। ऐसे में ये कर दुनिया के सबसे बुरे उदाहरण पेश करते हैं। व्यवहारगत विकृतियां जीडीपी को प्रभावित करती हैं, एक जटिल कर अफसरशाही तैयार होती है जो भारत जैसे देश में कर अधिकारियों को मनमाना अधिकार दे सकती है और कर राजस्व में कमी आती है।
यह बहस पुनर्वितरण बनाम वृद्धि की व्यापक पहेली में सटीक बैठती है। हमें ऐसी बहसों में अपना ध्यान नहीं भटकाना चाहिए कि एक पिज्जा किस प्रकार बांटा जाएगा। भारत एक निम्न मध्य आय वाला देश है। हमारे सामने एक बड़ी चुनौती है और वह है आगामी 100 वर्षों तक वृद्धि को बरकरार रखना तथा विकासशील राज्य की क्षमता बनाए रखना।
सन 1947 में गरीब रहे देशों में से केवल चार आज उन्नत अर्थव्यवस्था वाले देश बन सके हैं। विकास की यात्रा एक कठिन यात्रा है जहां सफलता की कोई गारंटी नहीं। ऐसे में वर्ग को लेकर जंग छेड़ना निजी गतिशीलता पर बुरा असर डालेगा और राज्य की क्षमता को प्रभावित करेगा।
लैंट प्रिचिट कहते हैं कि दुनिया भर में गरीबी की दर में 99 फीसदी अंतर को केवल एक आंकड़े से समझा जा सकता है और वह है: औसत आय। अगर हम गरीबी दर में बदलाव करना चाहते हैं तो हमें औसत आय पर ध्यान देना होगा। कर, सामाजिक कार्यक्रम आदि के माध्यम से पुनर्वितरण के सरकार के सभी प्रयास शेष एक फीसदी में बैठते हैं और कम वृद्धि की कीमत पर आते हैं।
(लेखक एक्सकेडीआर फोरम में शोधकर्ता हैं)