आदरणीय और प्रिय प्रोफेसर यूनुस,
मैं इस उलझन में हूं कि आपको बधाई दूं या आपके साथ सहानुभूति प्रकट करूं। आम तौर पर इस प्रकार सत्ता के शिखर पर पहुंचने वाले किसी भी व्यक्ति को सावधान रहने की जरूरत नहीं होती मगर भारतीय उपमहाद्वीप के एक बड़े, घनी आबादी वाले और कुल मिलाकर गरीब देश के नेतृत्व की अपनी चुनौतियां हैं जिन्हें हल्का नहीं माना जा सकता।
बहरहाल सबसे पहले आपको बधाई। 2016 के आरंभ में जब हुबली-धारवाड़ में एक सम्मेलन में मुझे आपके साथ कुछ दिन बिताने का मौका मिला था तब मैं आपकी गंभीरता, सौजन्य और विपरीत परिस्थितियों से निपटने की क्षमता पर आपका भरोसा देखकर दंग रह गया था।
तब हमने एक वीडियो साक्षात्कार रिकॉर्ड किया था, जिसमें आपने बताया था कि किस तरह शेख हसीना ने आपका बैंक छीन लिया और जवाब में आप अपने बैंक को विदेश ले गए। मैंने यह कहकर आपको घुमाने की कोशिश की थी कि हसीना की सरकार ने आपका बैंक छीना और आपने विदेश में बैंक बनाकर बदला ले लिया। मेरी बातों में फंसे बगैर आपने मुझसे कहा था कि आप बदला नहीं लिया बल्कि वही किया, जो सही था। मैं देख सकता था कि आप नाराज थे, परेशान थे और खुद को रोक रहे थे।
पिछले वर्ष अगस्त में हसीना सरकार के बेहद नाटकीय पतन के साथ आपको मौका मिल ही गया। आपको विदेश से वापस लाया गया ताकि आप नए प्रशासन का नेतृत्व संभाल सकें हालांकि आपने कोई कार्यकारी या राजनीतिक पद नहीं संभाला। आप ‘मुख्य सलाहकार’ बने रहे और शायद इस माह के अंत में आप इसी पद के साथ दावोस जाएंगे।
क्या मैं अपने पत्र के इस हिस्से को यह कहते हुए समाप्त कर सकता हूं कि हसीना ने आपसे बैंक छीना और आपने उनकी सरकार छीनकर बदला ले लिया है?
मैं ऐसा कहते हुए कोई नतीजा नहीं निकाल रहा हूं। वह जाहिर तौर पर अत्यधिक अलोकप्रिय थीं। हालिया चुनाव में तो पिछले चुनाव से भी अधिक फर्जीवाड़ा हुआ था, बिल्कुल वैसे ही, जैसे पाकिस्तानियों ने साजिश रचकर अपने यहां के एक प्रमुख दल और उसके नेता इमरान खान को चुनाव लड़ने से ही रोक दिया था।
क्या मैं कह सकता हूं कि अपने जख्मों का इलाज करते समय आप इस नाटकीय बदलाव के लिए बिल्कुल तैयार नहीं थे? आप इस बदलाव के लिए तभी तैयार हो सकते थे जब आप राजनेताओं की तरह ज्योतिष में यकीन करते हों और किसी विद्वान ज्योतिषी से मशविरा लेते हों। यकीनन लाल कृष्ण आडवाणी के ज्योतिषी से तो बेहतर ही होना चाहिए, जिसका उन्हें प्रधानमंत्री बनवाने का वादा झूठा साबित हुआ। परमाणु सौदे पर चर्चा के दौरान डॉ. मनमोहन सिंह ने संसद में इसी पर आडवाणी के ऊपर तंज भी कसा था।
सिंह ने एक और महत्वपूर्ण बात कही थी। उन्होंने बताया कि परवेज मुशर्रफ के साथ अपनी पहली मुलाकात में उन्होंने कहा था, ‘हम दोनों अपने-अपने देश के अचानक बने नेता हैं। सार्वजनिक पद का संबंध जनता के विश्वास से है। ऐसा नहीं हो सकता कि हम इस पद पर रहें और कुछ न करें।’ वह मुशर्रफ से कहना चाहते थे कि ‘हमें’ गंभीरता से बात करके भारत-पाकिस्तान के पुराने मुद्दों को सुलझाना चाहिए। यह सारी बातचीत उनके जीवित रहते प्रकाशित हो चुकी थी।
क्या मैं आपसे भी खुद को इसी कसौटी पर कसने का अनुरोध कर सकता हूं? आपका नाटकीय उभार मुशर्रफ के बजाय सिंह से ज्यादा मिलता-जुलता है। मुशर्रफ का उभार उतना नाटकीय या आकस्मिक नहीं था। पाकिस्तान में हर सैन्य अधिकारी सेना में आने के साथ ही सोचने लगता है कि वह राष्ट्रपति बन सकता है। आप तो भारत के अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री सिंह से खुशकिस्मत रहे हैं। आपके लिए कसौटी यह है कि अब जबकि आप सार्वजनिक पद पर हैं, तो इसका अर्थ जनता का भरोसा है। क्या आप इस पद पर बने रहेंगे और कुछ नहीं करेंगे? और अगर करेंगे तो क्या करेंगे?
आप कह सकते हैं कि लोकतंत्र की बहाली, संस्थानों के पुनर्निमाण और उन्हें दोबारा वैधता प्रदान करने के बाद आप एक कृतज्ञ देश को छोड़कर आगे बढ़ जाना चाहते हैं। सवाल यह उठता है कि आप यह सब हासिल करने के लिए आप खुद को कितना समय देते हैं? क्या आपने कोई मियाद तय की है?
आपने सुधारों के लिए अलग-अलग आयोग गठित करने की बात कही है। अच्छी बात है। मगर हमारे देश में तो ऐसे आयोग अनिश्चित काल तक बने रहते हैं। अल जजीरा के साथ आपके हालिया साक्षात्कार में मैंने देखा कि आप इसकी कोई आखिरी तारीख यानी मियाद नहीं बता रहे हैं। बल्कि आपने तो कहा कि इसमे चार साल लग सकते हैं।
क्या वाकई आपके पास इतना समय है? यकीनन आपका स्वास्थ्य बेहतर है और आप दीर्घायु हों तथा परिपूर्ण जीवन जिएं। लेकिन इस तरह की अस्थायी व्यवस्था में शीर्ष पद पर ज्यादा समय तक बना नहीं रहा जा सकता है। आपके बड़े विरोधी, दबदबे वाले राजनीतिक दल पहले ही बेसब्र हो रहे हैं। मैं यह भी नहीं मानता कि आप उपमहाद्वीप के बिशप मुगाबे या महातिर मुहम्मद बनना चाहते हैं। आप जैसा शिक्षित और समझदार व्यक्ति ऐसे मुगालतों से दूर ही रहेगा। आप इस्लामिक चरमपंथियों को तुष्टीकरण के जरिये चुप रखे हुए हैं मगर समय के साथ उनका भी धैर्य चुक जाएगा। अब तो उनके पास उनके सपनों के गणतंत्र का खाका भी है।
आपने बांग्लादेश में एक नया गणतंत्र बनाने का जो वादा किया है वह आपकी सबसे बड़ी मुसीबत है। सन 1972 के बाद से पाकिस्तान की तरह बांग्लादेश के संविधान में कई दोहराव हो चुके हैं। अब आप पूरी तरह नया संविधान रचने जा रहे हैं। इस बीच आपको लोकतंत्रवादियों और इस्लाम कि हिमायतियों से भी निपटना है और अपने दार्शनिक विचारों को भी ध्यान में रखना है। ऐसे चमत्कार आसानी से नहीं होते। खास तौर पर संविधान सभा, संसद और पारंपरिक राजनेताओं के बगैर तो बिल्कुल नहीं। क्या आपको लगता है कि ऊपर से थोपे गए संविधान को वैधता मिलेगी? बांग्लादेश और पाकिस्तान के अनुभव बताते हैं कि आपके बाद आने वाला हर व्यक्ति अपना संविधान लाएगा।
मैं चिंता के साथ कहना चाहता हूं कि आपका प्रशासन देश की आबादी को शांत रखने के लिए पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान की पुरानी तरकीब अपना रहा है – भारत विरोध। आप भारत को हसीना का मित्र मानते हैं लेकिन क्या इस वजह से भारत का विरोद करने पर आपको खुशी के अलावा कुछ और हासिल होगा? मैं तो इसे बचकानी हरकत ही कहता मगर आपकी उम्र और मेधा को देखते हुए ऐसा नहीं कहूंगा। जहां तक पाकिस्तान की बात है तो वह राजनीतिक, दार्शनिक और पंथवाद के बोझ के अलावा बांग्लादेश को शायद ही कुछ दे पाएगा। भारत इकलौता पड़ोसी है जो आपके लिए मायने रखता है और बांग्लादेश पूर्व दिशा में हमारा सबसे कीमती पड़ोसी है। आप इस रिश्ते को क्यों खराब करना चाहेंगे? दशकों से इन मसलों पर निगाह बनाए रखने के कारण मैं कह सकता हूं कि बांग्लादेश के लिए भारत कोई खतरा नहीं है। अतीत की बात छोड़ दें तो बांग्लादेश ने भी बीते दो दशकों में भारत के लिए कोई मुश्किल खड़ी नहीं की है। हसीना ने दोनों के बीच के अतीत को बदल दिया और भारत यह न माने या इसकी सराहना न करे तो गलत होगा। यह बांग्लादेश के लिए भी कारगर रहा क्योंकि इस दौरान उसने बेहद तेज वृद्धि की और सामाजिक संकेतकों में भी सुधार किया।
अब हमारे बीच कोई विवाद नहीं बचा। हमारे बीच केवल साझा हित और साझा लाभ के मसले हैं। अगर भारत से आपको यही दिक्कत है कि हसीना यहां हैं तो आप यह न सोच लें कि भारत हसीना को आपके हाथ सौंप देगा। आपसे गुजारिश है कि इसे हमारे रिश्तों का आखिरी दांव बनाने से बचें।
आखिर में आपके बारे में जरूरी बात। आपने सेवानिवृत्त होने के बाद के लिए क्या सोचा है? उपमहाद्वीप के अनिर्वाचित शासकों को पद छोड़ने में दिक्कत हुई है। उनमें से कोई भी सेवानिवृत्ति के बाद गोल्फ खेलने, किताब लिखने या पुराना काम करने में कामयाब नहीं रहा है। इस बारे में आपने क्या सोचा है? कहीं आप यह तो नहीं मान बैठे हैं कि सेवानिवृत्त होने के बाद आप नए ‘बंगबंधु’ बनेंगे जबकि मूल बंगबंधु इतिहास के पन्नों और लोगों की यादों से गायब हो चुके हैं।