भारत में अठारहवीं लोक सभा के चुनाव आगामी 19 अप्रैल से 1 जून तक होने जा रहे हैं। यह न केवल भारत बल्कि पूरी दुनिया के लिए एक बड़ा आयोजन है और इसका प्रबंधन करना खासा चुनौतीपूर्ण है। 1.4 अरब की आबादी में करीब एक अरब लोग अपने संवैधानिक अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए उन लोगों का चुनाव करेंगे जो अगले पांच वर्ष तक उन पर शासन करेंगे।
ऐसा अन्य उदाहरण नहीं मिलता और यह सभी भारतीयों के लिए जश्न और गौरव का विषय है। लोकतंत्र के लिए केवल चुनाव पर्याप्त नहीं हैं लेकिन वे इसके लिए अनिवार्य हैं। वे चुने हुए राजनीतिक नेतृत्व को वैधता प्रदान करते हैं ताकि वह शासन कर सके। यह दीगर विषय है कि ऐसे नेतृत्व का समझदारी और जिम्मेदारीपूर्वक इस्तेमाल किया जाता है या नहीं।
लोकतंत्र की अवधारणा छठी सदी ईसा पूर्व के एथेंस में देखी जा सकती है जहां पहली बार जनता के शासन का विचार सामने रखा गया। समय के साथ ‘लोगों’ की परिभाषा बदलती गई और इस दौरान यह अधिक समावेशी होती गई। जिन लोगों को अपने नेता चुनने का अधिकार था वे संपत्ति धारण करने वाले हो सकते थे। महिलाओं को इससे बाहर रखा गया क्योंकि उन्हें दास माना जाता था। लोकतंत्र का अर्थ समानता नहीं था। बहरहाल, सीमित दायरे में ही सही प्रतिनिधित्व वाली सरकार को राजनीतिक आदर्श के रूप में स्थापित किया गया।
इसके विपरीत राष्ट्रवाद अपेक्षाकृत नया विचार है। इसकी जड़ें सत्रहवीं सदी में तलाश की जा सकती हैं जब यूरोप में तीस वर्ष के युद्ध के बाद वेस्टफेलिया का शांति समझौता हुआ था। इससे ऐसे नियम उभरे जो यूरोप के राजनीतिक क्षेत्र पर काबिज सत्ताओं के बीच के रिश्तों का संचालन करने वाले थे। हर सत्ता को मानचित्र पर तय ढंग से अपनी क्षेत्रीय सीमाओं को स्पष्ट रूप से परिभाषित करना होता था जिसे अन्य देश मान्यता प्रदान करते थे। इन सीमाओं के भीतर राजनीतिक संस्थाओं को
अधिकार प्राप्त होते हैं और उनके पास शक्तियों के स्तर पर भी एकाधिकार होता है।
इसी आधार पर क्षेत्रीय सीमाओं के भीतर उनके संप्रभु नियंत्रण को पहचाना जाता, अन्य संस्थाओं द्वारा उनका सम्मान भी किया जाता और इसमें बाहरी हस्तक्षेप नहीं होता। यह इतिहास का सबसे अहम राजनीतिक और वैचारिक घटनाक्रम था। इसके साथ ही राष्ट्रीय संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता की अवधारणा पैदा हुई। एक राष्ट्र राज्य की अवधारणा भी मानचित्रों की कला में प्रगति से संभव हुई क्योंकि उसकी बदौलत सटीक सीमांकन संभव हुआ।
अपने शुरुआती दौर में राष्ट्रवाद जातीय पहचान और संबद्धता से जुड़ा था। देशों के बारे में अक्सर यही माना जाता था कि वे साझा इतिहास और संस्कृति वाले जातीय समूहों से बने होते थे। राष्ट्रवाद ने ऐसी जातीय पहचानों पर नए सिरे से जोर दिया। परंतु ऐसे देश उदाहरण के लिए फ्रांस और जर्मनी आदि 18वीं और 19वीं सदी में बहु जातीय, बहु सांस्कृतिक और बहु धार्मिक साम्राज्यों के साथ मौजूद रहे।
इनमें ऑस्ट्रियन-हंगेरियन और ऑटोमन साम्राज्य शामिल थे। प्रथम विश्व युद्ध के बाद ये कई देशों में बंट गए जो अधिकतर साझा जातीयता पर आधारित थे। रूस इसका अपवाद था जहां 1917 की क्रांति के पश्चात जार के दौर के बहु जातीय और बहु धार्मिक साम्राज्य के स्थान पर सोवियत समाजवादी साम्राज्य तैयार हुआ। यह सात दशक तक बना रहा और फिर इसका भी कई राष्ट्र राज्यों में विभाजन हो गया।
ये नए राज्य पुरानी जातीय और सांस्कृतिक पहचानों पर आधारित थे, बस सोवियत संघ का हिस्सा होने के कारण अब उनमें अन्य जातीयताओं के लोग भी शामिल हो गए थे और यह उनके बीच आपसी तनाव की वजह भी बना जैसा कि हमने हाल ही में नगोर्नों कराबाख को लेकर अजरबैजान और अर्मीनिया के विवाद में देखा।
बहरहाल कई देश बहु जातीय और बहुधार्मिक भी बन गए और इसके पीछे ऐतिहासिक कारण थे। धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान के साथ जातीयता भी लोगों की राष्ट्रीयता में अहम भूमिका निभाती है।
एक वास्तविक बहुलतावादी राज्य अधिक हाल की घटना है और इसके सूत्र दूसरे विश्व युद्ध के दौर में तलाशे जा सकते हैं जब बड़े पैमाने पर प्रवासियों ने असाधारण तरीके से राष्ट्रीय सीमाएं पार की थीं और समता के विचार ने जोर पकड़ा। यूरोप के कई देश तथा अमेरिका बहुलतावादी देश बन गए। सबसे बड़ा बदलाव यह है कि नागरिकता का आधार जातीय, सांस्कृतिक या धार्मिक नहीं रहा बल्कि राज्य के प्रति वफादारी इसकी वजह बन गई। स्वतंत्र भारत ने भी इसे अपनाया। इसकी वजह से प्रवासियों और मूल समुदायों के बीच तनाव की स्थिति बन सकती है और बनती है।
एक राष्ट्र राज्य को लोकतंत्र की आवश्यकता नहीं होती है, हालांकि लोकतंत्र हर नागरिक को देश की सफलता में हिस्सेदारी देकर राष्ट्रवाद को बल दे सकता है। दो शक्तिशाली राजनीतिक विचारों यानी राष्ट्रवाद और लोकतंत्र के साथ आने से देश बनाने वाले लोगों में बदलाव आ सकता है।
भारतीय संविधान का निर्माण करने वालों के सामने एक अहम चुनौती यह थी कि सन 1947 में औपनिवेशिक शासन से आजाद होने वाले भारतीय राष्ट्र राज्य के लिए कौन सी राह तय की जाए। क्या भारत की विविधता और बहुलता को देखते हुए उसे एक राष्ट्र राज्य बनाया जा सकता था? कौन सी बात इसे जोड़े रखती? उन्होंने यह निर्णय लिया कि देश की विविध पहचानों को दबाकर राष्ट्र की भावना पैदा करने की कोशिश आत्मघाती होगी।
उन्होंने नागरिकता की एक व्यापक अवधारणा तैयार की जो मौजूदा धार्मिक, भाषाई और सांस्कृतिक विविधता का दमन नहीं करती थी। उन्होंने एक लोकतांत्रिक राजनीतिक प्रतिष्ठान का चयन किया जिसने देश के नागरिकों को यह अधिकार प्रदान किया कि वे अपनी पसंद का नेता चुन सकें। चुनावी प्रक्रिया में भागीदारी से ही राष्ट्रीयता की भावना प्रबल होती है। इसके अलावा लोकतंत्र उस बहुलता की गुंजाइश तैयार करता है जो भारत को परिभाषित करती है।
भारत में लोकतंत्र और राष्ट्रवाद दोनों उसके बदलाव के मजबूत उपकरण हैं लेकिन अन्य मजबूत उपकरणों की तरह उनका भी समुचित इस्तेमाल किया जाना चाहिए। देश के संविधान में बहुत हद तक संवैधानिक अधिकार प्राप्त संस्थानों और प्रक्रियाओं के रूप में ऐसे उपाय शामिल किए गए हैं जो जवाबदेही सुनिश्चित करते हैं और नागरिकों के मूल अधिकारों को संरक्षित करते हैं।
लोकतंत्र में बहुमत का शासन होता है लेकिन केवल संविधान में उल्लिखित नियमों के अनुरूप ही शासन किया जा सकता है। एक लोकतांत्रिक देश में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव इस दिशा में पहला और अपरिहार्य कदम है। जनता और उसके कल्याण के प्रति जवाबदेह संवैधानिक रूप से सशक्त संस्थानों को मजबूत बनाए रखने की प्रतिबद्धता को भी राष्ट्रीय एजेंडे में प्राथमिकता पर रखना चाहिए।
(लेखक पूर्व विदेश सचिव हैं)