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महंगी पड़ रहीं दवाएं तो घर पर खुद ही बनाएं!

एफटीवीसी विस्तार से बताता है कि ऑनलाइन मंगाए गए मामूली पुर्जों और वस्तुओं से उपकरण बनाकर घर पर ही केमिकल लैब कैसे लगाई जा सकती है।

Last Updated- September 23, 2024 | 10:35 PM IST
Pharma and Healthcare stocks

सोफोसब्यूविर नाम की दवा का इस्तेमाल हेपटाइटिस सी के इलाज में होता है। वायरस से होने वाली यह बीमारी हर वर्ष ढाई लाख लोगों की जान ले लेती है। अमेरिका में गिलियड साइंसेज इसे ‘सोवाल्डी’ नाम से बेचती है। हेपटाइटिस सी के कई उपचार एक साल तक चलते हैं और इस बीमारी में 70 फीसदी मरीज ठीक हो जाते हैं। इसके उलट सोवाल्डी की 84 गोलियों वाला 12 सप्ताह का कोर्स करने पर 90 फीसदी मरीज ठीक हो जाते हैं। परंतु सोवाल्डी की एक गोली की कीमत 1,000 डॉलर है यानी 12 सप्ताह के कोर्स का खर्च 84,000 डॉलर है। दिलचस्प है कि इसी दवा की 84 गोलियां केवल 75 डॉलर में भी मिल जाती हैं।

हैरान होने की जरूरत नहीं है। यह डू इट योरसेल्फ (डीआईवाई) यानी खुद ही दवा बनाने से मुमकिन है। इस बाजार की अगुआई कर रहा है फोर थीव्स विनेगर कलेक्टिव (एफटीवीसी)। एफटीवीसी विस्तार से बताता है कि ऑनलाइन मंगाए गए मामूली पुर्जों और वस्तुओं से उपकरण बनाकर घर पर ही केमिकल लैब कैसे लगाई जा सकती है।

यह मशीन लर्निंग प्रोग्राम केमहैक्टिका डाउनलोड करने की सुविधा भी देता है। इस तरह रसायनों का इस्तेमाल कर कई प्रकार की दवाएं घर पर ही बनाई जा सकती हैं।
इंटरनेट की तरह केमहैक्टिका एमआईटी-डिफेंस एडवांस्ड रिसर्च प्रोजेक्ट्स एजेंसी के प्रोजेक्ट आस्कोस का ही एक रूप है। इसने मशीन लर्निंग का इस्तेमाल कर मॉलिक्यूल बनाने के रास्ते बताता है। यह देखता है कि कितनी रासायनिक प्रतिक्रियाएं हो सकती हैं और उनमें से मॉलिक्यूल तैयार करने की सबसे सस्ती प्रतिक्रिया बताता है। यह संभावित रसायन सुझाता है और आसानी से मिलने वाले रसायन को इंटरनेट पर ढूंढ भी देता है।

एफटीवीसी ने ‘माइक्रो लैब’ तैयार की है, जो आसानी से ऑनलाइन मिलने वाले पुर्जों और हिस्सों से बना ओपन सोर्स नियंत्रित लैब रिएक्टर (सीएलआर) है। यह प्रयोगशालाओं में इस्तेमाल होने वाले सीएलआर का डीआईवाई संस्करण है।

एफटीवीसी कई मैनुएल, सर्किट बोर्ड और डाउनलोड होने वाले सॉफ्टवेयर बनाता है, जिनका इस्तेमाल माइक्रोलैब द्वारा किया जा सकता है। माइक्रो लैब प्रतिक्रिया के लिए इन रसायनों को डालती है, तापमान तय करती है, रसायन मिलाती है और ऐसे कई काम करती है। एफटीवीसी पर एक किताब ‘एपोथिकेरियम’ भी है, जिसमें कुछ दवाएं बनाने के फॉर्मूले और तरीके दिए गए हैं।

इसका इस्तेमाल किया जाए तो वाणिज्यिक यानी बड़े पैमाने पर दवा बनाने में जो खर्च होता है, उससे बहुत ही कम खर्च में कम मात्रा में दवा बनाई जा सकती है। कई बार दवा की किल्लत होती है या दवा मिल ही नहीं रही होती। एफटीवीसी खुद ही एपिपेन बनाने की सुविधा भी देता है। एपिपेन इंजेक्टर होता है, जिसकी मदद से किसी दवा की तय खुराक शरीर के भीतर पहुंचाई जा सकती है।

दूसरी परियोजना में एफटीसवची ने हेरोइन विक्रेताओं को उसमें ऐसी दवा मिलाने के लिए मना लिया, जिसके बाद सड़क पर हेरोइन लेने वालों में एचआईवी संक्रमण का खतरा कम हो जाता है। इससे सबको फायदा हो रहा है। नशा बेचने वाले खुश हैं कि उनके ग्राहक मर नहीं रहे और एक ही सुई का कई लोगों द्वारा इस्तेमाल करने के बाद भी एचआईवी संक्रमण के बहुत कम मामले आ रहे हैं।

एफटीवीसी का वैज्ञानिक पक्ष मजबूत है। टीवी शो ब्रेकिंग बैड में रसायन विज्ञान का एक शिक्षक मेथमफिटामाइन बनाने के लिए खुद ही लैब बना लेता है। एफटीवीसी का शोध और विकास भी इसी तरह योग्य केमिस्ट करते हैं। वे पर्चे पर मिलने वाली दवाओं की रिवर्स इंजीनियरिंग करते हैं यानी उनमें मौजूद सामग्री और बनाने के तरीके समझ लेते हैं।

एफटीवीसी इस परियोजना को ‘द राइट टु रिपेयर द बॉडी’ कहता है। इसके तहत महंगी दवाओं को निजी इस्तेमाल के लिए तैयार करने के सस्ते रास्ते तलाशे जाते हैं। इसके लिए आम रसायनों और उपकरणओं का इस्तेमाल किया जाता है। दवा कंपनियों के उलट एफटीवीसी दवाओं की नकल करने पर होने वाले कानूनी झंझटों की फिक्र नहीं करता और न ही बड़े पैमाने पर दवा बनाना चाहता है। यह दवा बनाने की पूरी जानकारी मुफ्त में देता है।

दवाएं उनमें शामिल सामग्री के मुकाबले बहुत महंगी इसलिए भी होती हैं क्योंकि दवा कंपनियों को अपना निवेश वापस वसूलना होता है। नई दवा बनाने में बहुत खर्च होता है। उसका व्यावसायिक यानी बेचने के लिए उत्पादन करने से पहले शोध एवं विकास, परीक्षण, पेटेंट आदि की प्रक्रिया होती है। पेटेंट वाली दवाओं पर जो प्रीमियम मिलता है, उसे देखकर ही कंपनियों को नई दवाएं तैयार करने का हौसला मिलता है।

परंतु पेटेंट प्रणाली का दुरुपयोग संभव है और इसके कारण कम गुणवत्ता वाली दवाएं भी बन सकती हैं। दवाओं के शोध एवं विकास में अक्सर उन बीमारियों पर ध्यान दिया जाता है, जो अमीरों को ज्यादा होती हैं। वायग्रा और ओजेम्पिक में मलेरिया की दवा से अधिक मुनाफा मिलता है। कोई भी बड़ी औषधि कंपनी नए एंटीबायोटिक्स बनाने के लिए शोध पर पैसे खर्च नहीं करती। इसी कारण ऐसे बैक्टीरिया दुनिया भर को चपेटमें ले रहे हैं, जिन पर एंटीबायोटिक्स का असर ही नहीं होता।

दवा कंपनियां मुनाफा कमाने के लिए अपनी मर्जी से दाम करती हैं, जो उनके हिसाब से बाजार में मिल सकते हैं। सोवाल्डी जैसे उदाहरण बताते हैं कि उत्पादन में होने वाले खर्च और कीमत में बहुत अधिक अंतर है। मगर सार्वभौमिक सरकारी स्वास्थ्य सेवा वाले देश जैसे यूरोपीय संघ या स्वास्थ्य बीमा वाले देश मसलन भारत अथवा अमेरिका इनमें से कुछ दवाएं खरीदते हैं।

डीआईवाई के जरिये तैयार दवाओं के साथ कानूनी दिक्कते हैं और गुणवत्ता के कारण कई बार ये बहुत नुकसानदेह साबित हो सकती हैं। परंतु एफटीवीसी की विज्ञान पर मजबूत पकड़ और दवा बनाने का विस्तृत ब्योरा चिंताओं को कम कर देता है। जहां डॉक्टरी पर्चे पर ही मिलने वाली दवाओं की किल्लत हो, वहां डीआईवाई दवाएं जीवन रक्षक हो सकती हैं। अमेरिका के कुछ राज्यों में आपातकालीन गर्भनिरोधक इसका उदाहरण हैं।

अवैध डीआईवाई दवाओं का असर बाजार पर भी दिखता है। अधिकतर लोग प्रयोगशाला लगाकर खुद दवा बनाने का झंझट करने के बजाय दुकान से दवा खरीदना पसंद करते हैं। परंतु डीआईवाई के कारण कीमतों पर लगाम कस जाती है। अगर पर्चे पर मिलने वाली दवा बहुत ही कम कीमत में घर पर भी बनाई जा सकती है तो लोग उसे खुद ही बनाना पसंद करेंगे।

First Published - September 23, 2024 | 10:35 PM IST

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