भारत दीर्घ अवधि के लिहाज से उम्दा दांव बना हुआ है, मगर मूल्यांकन को लेकर निवेशकों के मन में चिंता लगातार बनी हुई है। बता रहे हैं आकाश प्रकाश
मुझे अमेरिका में वैश्विक निवेशकों एवं दीर्घ अवधि के लिए पूंजी लगाने वाले दिग्गजों के साथ कुछ समय व्यतीत करने का अवसर मिला था। इनमें कई निवेशक और लंबे समय के लिए दांव लगाने वाले लोग अपने क्षेत्र के महारथी हैं।
भारत में जब लोक सभा चुनाव के नतीजे आ रहे थे तब मैं अमेरिका में ही था। नतीजे आने के बाद वहां भारत को लेकर मैंने इन निवेशकों एवं धनकुबेरों के जो हाव-भाव देखे उनसे कई प्रमुख बातें सामने आईं।
चुनाव नतीजे चकित करने वाले थे क्योंकि ये अनुमान या उम्मीद के अनुरूप नहीं थे, मगर इन्हें लेकर किसी तरह की घबराहट नहीं दिखी। सभी यह सोचकर खुश थे कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक बार फिर सत्ता संभालेंगे। इसका एक कारण यह था कि कांग्रेस का अर्थशास्त्र उनके गले नहीं उतर पाया।
कुछ लोग गठबंधन सरकार चलाने में भारतीय जनता पार्टी (BJP) की काबिलियत को लेकर जरूर सशंकित थे मगर ऐसे लोगों की संख्या कम थी। अधिकांश लोगों का यही कहना था कि भाजपा को मिलीं 240 सीटें कम तो नहीं मानी जा सकती, इसलिए यह गठबंधन मजबूती के साथ अपना पांच वर्ष का कार्यकाल आराम से पूरा कर लेगा।
गठबंधन सरकार में सहयोगी दलों के विचारों की अनदेखी नहीं होती है और देश की विविधता भी सटीक तरीके से प्रतिबिंबित हो पाती है। हालांकि, भूमि एवं श्रम सुधारों में देरी हो सकती है, मगर चुनाव नतीजों से यह स्पष्ट हो गया कि भारत तुर्किये या हंगरी बनने के जोखिम से काफी दूर है। इन चुनाव नतीजों से आर्थिक वृद्धि को लेकर हमारे पूर्वानुमान और एवं इसकी (वृद्धि) चाल में निरतंरता दोनों ही और मजबूत हो सकते हैं।
ज्यादातर लोगों को लगा कि गठबंधन के घटक दल राज्य-विशेष के लिए संसाधनों से अधिक कुछ नहीं मांगेंगे और उन्होंने उम्मीद जताई कि इन चुनाव नतीजों के बाद आर्थिक विषयों और नीतियों पर अधिक ध्यान दिया जाएगा। इस बात को लेकर डर जरूर दिखा कि कहीं सरकार का झुकाव लोकलुभावन नीतियों की तरफ तो नहीं बढ़ेगा।
सरकार की नीतियों में निरंतरता दिखेगी या इनमें भटकाव आएगा, इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए आसन्न बजट पर सबकी नजरें रहेंगी। मोदी सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल में लोकलुभावन नीतियों के बजाय सार्वजनिक निवेश पर अधिक ध्यान केंद्रित किया। क्या यह सिलसिला जारी रह पाएगा? क्या सरकार लोकलुभावन नीतियों से दूरी बरतेगी?
सरकार के प्रमुख मंत्रालयों में कोई फेरबदल नहीं हुआ है, जो नीतियों में निरंतरता जारी रहने का संकेत है। हां, यह जरूर है कि रोजगार सृजन पर विशेष ध्यान देना होगा क्योंकि यह मतदाताओं की एक प्रमुख चिंता थी। उम्मीद की जा रही है कि नई सरकार शिक्षा एवं हुनर विकास के लिए अधिक प्रयास करेगी।
निवेशकों के मन में यह बात बार-बार कौंध रही थी कि भाजपा अपने उम्मीद से कमजोर प्रदर्शन के लिए किन कारणों को जिम्मेदार ठहराएगी। क्या इस विषय पर मंथन सरकार की नीति की दिशा बदलेगी? क्या हम सार्वजनिक निवेश घटाकर राजस्व व्यय की तरफ कदम बढ़ाना शुरू कर देंगे?
क्या सरकार राजकोषीय घाटा कम करने के संकल्प के साथ समझौता करेगी? क्या बड़े कारोबारी समूहों को बदनाम किया जाएगा? क्या सरकार अनुकूल नीतियां तैयार कर दिग्गज वैश्विक निवेशकों को भारत में निवेश के लिए प्रोत्साहित कर पाएगी?
सभी यह भी मान रहे थे कि सरकार नए उत्साह के साथ तत्काल अपना काम शुरू कर देगी। नीतिगत सुधारों को लेकर बड़ी उम्मीदें हैं और सभी ने सुन रखा था कि मंत्रालयों को शुरुआती 100 दिन की योजनाएं तैयार करने के निर्देश दे दिए गए हैं।
भारतीय बाजार पहले से ही 7-8 फीसदी वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद (GDP) वृद्धि और 15 फीसदी से अधिक प्रति शेयर आय वृद्धि के अनुमान पर बढ़ चुका है। मूल्यांकन ऊंचे स्तर पर बरकरार रखने के लिए हमें आगे बेहतर नतीजे देने होंगे। सरकार की गति धीमी पड़ी तो इसे नकारात्मक नजरिये से देखा जाएगा और गठबंधन राजनीति को लेकर चिंता फिर बढ़ जाएगी।
भारत में रकम झोंकने की राह में ऊंचा मूल्यांकन चिंता का एक कारण है। भारत अब दुनिया में स्पष्ट रूप से सर्वाधिक महंगा बाजार बन गया है। घरेलू निवेशक बाजार में तेजी ला रहे हैं और ज्यादातर लोग समझ रहे हैं कि स्थानीय निवेशकों के पास कोई दूसरा विकल्प नहीं है मगर यह चिंता फिर भी सता रही है कि यह सिलसिला थम गया तो क्या होगा।
एक आम सवाल यह था कि स्थानीय स्रोतों से निवेश बढ़ने की कोई ठोस वजह है या फिर यह खोखला उत्साह भर है? सभी लोग भारत में वायदा/विकल्प कारोबार में बेवजह भारी लेनदेन होने के कमजोर पहलू से वाकिफ हैं।
सच्चाई यह है कि पिछले 2.5 वर्षों में भारत में विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों की तरफ से आने वाला शुद्ध निवेश शून्य रहा है। अगर दूसरे शब्दों में कहा जाए तो ज्यादातर तेजी से उभरते बाजारों के निवेशकों में भारत को लेकर उत्साह पहले की तरह मजबूत नहीं रह गया है। जो निवेशक भारत में शुरुआती दौर में ही आ गए थे वे अपने पोर्टफोलियो का पुनर्संतुलन कर मुनाफा कमा रहे हैं।
नए निवेश के लिए हमें वैश्विक फंडों पर ध्यान केंद्रित करना होगा। जब तक बाजार थोड़ी सांस न ले ले और कुछ समय के लिए अपनी स्थिति सुदृढ़ नहीं कर ले तब तक विदेश से बड़ा निवेश आने की उम्मीद नहीं की जा सकती। दीर्घ अवधि के लिए निवेशक भारत पर दांव लगाना चाहते हैं मगर इसे लेकर उन्हें कोई जल्दी भी नहीं है।
विदेशी पूंजी भारतीय बाजार में वाजिब गिरावट आने का इंतजार कर रही है मगर घरेलू निवेशकों का भारी उत्साह ऐसा होने नहीं दे रहा है।
परिसंपत्ति श्रेणियों के संदर्भ में बात करें तो वेंचर कैपिटल (वीसी) और कुछ प्राइवेट इक्विटी फंडों (पीई) के साथ हताशा के भाव का अंदाजा लगाया जा सकता था। प्रत्येक बैठक में मुझसे भारतीय आरंभिक सार्वजनिक निर्गम (IPO) बाजार के बारे में पूछा गया। मेरा उत्तर यह था कि भारत का आईपीओ बाजार काफी व्यापक है और उचित मूल्य पर कोई भी कंपनी सूचीबद्ध हो सकती है।
मैंने डीपीआई (प्रति निवेश वितरण या डिस्ट्रीब्यूशन पर इन्वेस्टमेंट) के बारे में पहली बार सुना और मुझे बताया गया कि यह अनुपात भारतीय वेंचर कैपिटल के लिए अत्यंत कम है। यह देखते हुए कि अधिकांश पूंजीपतियों के समक्ष नकदी से जुड़ी चुनौतियां थीं इसलिए वे भारत में अपने वेंचर कैपिटल साझेदारों से अधिक सहयोग की उम्मीद कर रहे थे। वे यह नहीं समझ नहीं पाए कि वेंचर कैपिटल समर्थित अधिक कंपनियां क्यों सूचीबद्ध नहीं हो रही हैं।
मैंने उन्हें बताया कि सार्वजनिक बाजार के निवेशकों को वेंचर कैपिटल समर्थित उन कंपनियों से अधिक मुनाफा नहीं हुआ है, जो 2021 और 2022 में सूचीबद्ध (एक या दो कंपनियों को छोड़कर) हुई थीं। मुझे लगता है कि अधिकांश वेंचर कैपिटल इकाइयों पर सूचीबद्धता में तेजी लाने का दबाव बढ़ जाएगा।
इनका स्वागत किया जाना चाहिए क्योंकि इनमें ज्यादातर उच्च गुणवत्ता वाली कंपनियां बाजार में दाखिल होंगी। इससे आईपीओ लाने की कतार में खड़ी कंपनियों की संख्या बढ़ती ही जाएगी। इन आईपीओ के जरिये पूंजी जुटाने से हमारे बाजार का दायरा और बढ़ेगा और यह अधिक परिपक्व हो जाएगा।
चीन को लेकर विचारों में लगभग कोई बदलाव नहीं आया। चीन के बाजार में बढ़ोतरी हुई तो इस मौके का फायदा उठाया जाएगा। चीन में सार्वजनिक इक्विटी निवेश पहले ही घटाने के बाद दिग्गज निवेशक निजी कंपनियों में भी निवेश धीरे-धीरे घटा रहे थे। ज्यादातर चीन के फंड नई पूंजी के लिए मध्य-पूर्व और एशियाई सॉवरिन फंड की तरफ मुड़ चुके हैं। अमेरिका से नई रकम जुटाना लगभग असंभव हो गया है।
कई वैश्विक फंडों के दांव ठीक नहीं थे। ऐसे कई मौके थे जब भारत में निवेश करने का उनका निर्णय तो ठीक था मगर वे गलत शेयरों में निवेश कर बैठे थे। निजी बैंकों, भारतीय सूचना-प्रौद्योगिकी (IT) कंपनियों और उपभोक्ता उन्मुख कंपनियों में उन्होंने भारी निवेश किया था। इनमें कई शेयरों में तो पिछले चार वर्षों में शायद ही कोई प्रगति हुई।
क्या अब उन्हें अपने दांव में बदलाव करने चाहिए? क्या निजी बैंक एक बार फिर तेजी दिखाना शुरू करेंगे? अधिकांश वैश्विक निवेशक स्थानीय सूचकांकों के साथ नहीं चल पा रहे हैं। दीर्घ अवधि वाले उम्दा फंडों को मौजूदा बाजार और इसमें विभिन्न क्षेत्रों के प्रदर्शन के साथ तालमेल बैठाने में मुश्किल पेश आ रही है। पिछले दशक में जिन शेयरों का प्रदर्शन बढ़िया रहा था अब वे चुनौती का सामना कर रहे हैं। मगर जहां तक घरेलू निवेशकों की बात है तो उनका जज्बा बरकरार है।
सारांश यह है कि चुनाव नतीजों से भारत को लेकर किसी की सोच नहीं बदली है। यह दीर्घ अवधि के निवेश के लिए बड़ा दांव है, हां मूल्यांकन जरूर काफी महंगा है। वैश्विक निवेशक फिलहाल भारतीय बाजार में उतरने के लिए तैयार नहीं हैं और उन्हें गिरावट या कम से कम एक अवधि तक बाजार के सुदृढ़ होने का इंतजार है।
पिछले तीस वर्षों के दौरान अमेरिका और भारत दो सबसे बड़े बाजार रहे हैं। उनके प्रदर्शन का स्तर एवं उनमें निरंतरता प्रभावशाली रही है। वर्तमान में ये दोनों बाजार सर्वाधिक महंगे हैं। क्या कोई औसत पर वापसी का खेल खेलेगा और इन दो बाजारों के बाहर निवेश करेगा, या निरंतर बेहतर प्रदर्शन पर दांव लगाएगा? यह सवाल कई दक्ष निवेशकों के दिमाग में घूम रहा है।
(लेखक अमांसा कैपिटल से जुड़े हैं)