भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) की मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) ने फरवरी और जून के बीच तीन किश्तों में नीतिगत रीपो दर में एक प्रतिशत अंक की कटौती के बाद, अगस्त महीने में दर को 5.5 प्रतिशत पर अपरिवर्तित छोड़ दिया था। इसके अलावा ‘तटस्थ’ मौद्रिक नीति रुख में भी कोई बदलाव नहीं किया गया। ये दोनों फैसले आरबीआई की छह सदस्यीय दर-निर्धारण समिति में सर्वसम्मति से किए गए थे। जून में नीतिगत दर को आधा प्रतिशत कम करते समय, आरबीआई ने अपना रुख ‘समायोजनकारी’ से बदलकर ‘तटस्थ’ कर दिया था।
अगस्त महीने में, आरबीआई ने वर्ष 2025-26 के लिए अपने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) वृद्धि अनुमान को भी 6.5 प्रतिशत पर अपरिवर्तित रखा, लेकिन वर्ष के लिए उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) आधारित मुद्रास्फीति दर के अपने अनुमान को घटा कर 3.7 से 3.1 प्रतिशत तक कर दिया। जून में, इसने इसे 4 प्रतिशत से घटाकर 3.7 प्रतिशत कर दिया था।
पिछली नीति की घोषणा करते हुए, आरबीआई गवर्नर संजय मल्होत्रा ने कहा था कि मौजूदा वृहद-आर्थिक परिस्थितियां, दृष्टिकोण और अनिश्चितताएं वास्तव में वर्तमान नीतिगत दर को बनाए रखने के संकेत दे रही हैं। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि पहले हुई बड़ी दर कटौती का ऋण बाजार और व्यापक अर्थव्यवस्था पर क्या असर होता है उसका इंतजार करना होगा ताकि पता चल सके कि इसका कितना फायदा हुआ है। इस वक्त अहम सवाल यह है कि अमेरिकी आयात शुल्क को लेकर अनिश्चितता की स्थिति बनी हुई है ऐसे में हम 1 अक्टूबर के एमपीसी से क्या उम्मीदें कर सकते हैं?
इस पर बात करने से पहले हम यह समझने की कोशिश करते हैं कि पिछली नीति के बाद से क्या बदलाव आए हैं। सितंबर के मध्य में, अमेरिका के केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व ने दिसंबर 2024 के बाद पहली बार अपनी बेंचमार्क ब्याज दर में कटौती की और संकेत दिए कि इस साल और कटौती होने की संभावना है। वॉलस्ट्रीट की उम्मीदों के अनुरूप, उसने चौथाई प्रतिशत अंक की कटौती की, जिससे उसकी मुख्य ऋण दर के लिए लक्ष्य सीमा 4-4.25 प्रतिशत हो गई।
इस साल दो बार और चौथाई प्रतिशत अंक की कटौती की उम्मीद है, लेकिन फेडरल रिजर्व के अध्यक्ष ने यह स्पष्ट कर दिया है कि आगे की कटौती ‘पूर्व-निर्धारित तरीके से नहीं’ होगी। यह इस तथ्य के बावजूद है कि ‘जोखिमों का संतुलन’ पहले के मुद्रास्फीति के पक्ष के बजाय, फेडरल रिजर्व के आदेश के मुताबिक रोजगार पक्ष की ओर स्थानांतरित हो गया है।
आरबीआई की पिछली मौद्रिक नीति के बाद, 10 वर्षीय सरकारी बॉन्ड पर यील्ड 9 आधार अंक बढ़कर 6.42 प्रतिशत हो गई क्योंकि बाजार ने नरमी के चक्र को खत्म होते देखा। यह रुझान अगस्त के अंतिम सप्ताह तक जारी रहा, जब 10 वर्षीय बॉन्ड यील्ड ने दिन के कारोबारी सत्र के दौरान 6.65 प्रतिशत के स्तर को छू लिया और 6.6 प्रतिशत पर बंद हुआ जो इस वित्त वर्ष में सबसे अधिक है। पिछले शुक्रवार को यह 6.5 प्रतिशत पर बंद हुआ।
पिछले सप्ताह जारी किए गए चालू वित्त वर्ष की दूसरी छमाही के लिए 6.77 लाख करोड़ रुपये सकल सरकारी उधारी कैलेंडर का यील्ड पर सकारात्मक प्रभाव पड़ना चाहिए। इसके अलावा, साप्ताहिक नीलामियों को फरवरी के बजाय मार्च तक बढ़ाना़ भी आपूर्ति के दबाव को कुछ हद तक कम करेगा।
इस बीच, रुपया जो पिछली नीति के दिन 87.73 रुपये प्रति डॉलर के स्तर पर कारोबार कर रहा था वह पिछले शुक्रवार को 88.72 रुपये पर बंद हुआ। पिछले सप्ताह की शुरुआत में, इसने डॉलर के मुकाबले एक नए निचले स्तर को छुआ और 88.75 रुपये पर बंद होने से पहले दिन के कारोबारी सत्र के दौरान 88.80 रुपये के स्तर को छू लिया। इस समय कमजोर रुपया कोई बड़ी समस्या नहीं हो सकता क्योंकि व्यापार संघर्ष में कमजोर मुद्रा मददगार साबित होती है जब तक कि कच्चे तेल की कीमत न बढ़ जाए।
जून नीति से पहले, जब आरबीआई ने रीपो दर में आधा प्रतिशत अंक की कटौती की थी तब बैंकों के नकद आरक्षित अनुपात (सीआरआर) को 1 प्रतिशत अंक कम करके अर्थव्यवस्था में 2.5 लाख करोड़ रुपये जारी किए थे (सितंबर के पहले सप्ताह और नवंबर के अंतिम सप्ताह के बीच)। साथ ही नीतिगत रुख को समायोजनकारी से तटस्थ में बदल दिया था, तब 10 वर्षीय बॉन्ड यील्ड 6.19 प्रतिशत थी और रुपया 85.63 प्रति डॉलर था।
जून में समाप्त तिमाही में भारत की अर्थव्यवस्था उम्मीद से अधिक 7.8 प्रतिशत की तेज वार्षिक दर से बढ़ी जो इसकी पिछली तिमाही के 7.4 प्रतिशत से अधिक थी। इस वृद्धि ने कई अर्थशास्त्रियों को हैरान कर दिया। यह वृद्धि दरअसल विनिर्माण, निर्माण और सेवा क्षेत्रों में आई तेजी के कारण संभव हुई थी। खुदरा मुद्रास्फीति अगस्त में बढ़कर 2.07 प्रतिशत हो गई। यह जुलाई 2025 में 1.55 प्रतिशत थी, जो जून 2017 के बाद सबसे कम स्तर था और आरबीआई के 2-6 प्रतिशत के लचीले मुद्रास्फीति लक्ष्य के दायरे के निचले सिरे से भी कम था।
अब सवाल यह है कि वृद्धि और मुद्रास्फीति पर क्या नजरिया है? भारतीय रिजर्व बैंक के मासिक बुलेटिन का रुख सितंबर महीने में देश की अर्थव्यवस्था को लेकर आशावादी रहा। इसमें यह बताया गया कि खपत मांग में लगातार सुधार हो रही है और अधिक निवेश तथा मजबूत वृद्धि का एक ‘बेहतर चक्र’ बन सकता है जो ‘लगातार बनी वैश्विक अनिश्चितताओं’ की स्थिति से निपट लेगा। इसके अलावा इसमें वस्तु एवं सेवा कर में सुधारों की तारीफ की गई है जिन्हें खपत बढ़ाने, व्यापार को आसान बनाने और खुदरा कीमतों को कम करने वाला बताया गया है। इसके अलावा वृद्धि में मदद करने वाले अन्य कारकों में ब्याज दर में बड़ी कटौती का असर, आयकर में राहत और रोजगार बढ़ाने के उपाय हैं।
ऐसे आशावादी माहौल में आखिर दर कटौती की उम्मीद क्यों की जा रही है? शायद यह दीवाली का तोहफा हो, या शायद जो बेहतर स्थिति दिखाई जा रही है वह उतनी बेहतर न हो। एक चिंता का कारण यह है कि जून तिमाही में नॉमिनल सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि दर 8.8 फीसदी रही, जो पिछली तिमाही के 10.8 फीसदी से कम है। यह पिछले तीन तिमाही में सबसे कम है।
अब सवाल यह है कि क्या मौद्रिक नीति समिति अभी कटौती करेगी, या वह दिसंबर की अगली बैठक तक इंतजार करेगी? दिसंबर तक, आयात शुल्क की अनिश्चितताएं कम हो सकती हैं। तब वित्त वर्ष 2026 की दूसरी तिमाही के जीडीपी के आंकड़े भी उपलब्ध होंगे और जीएसटी कटौती का मुद्रास्फीति पर पूरा असर दिख जाएगा। अगर आरबीआई इस सप्ताह दरों को यथावत रखता है तब नीतिगत रुख के ‘नरम’ रहने की उम्मीद है।
(लेखक जन स्मॉल फाइनैंस बैंक के वरिष्ठ सलाहकार हैं)