अप्रत्यक्ष कराधान व्यवस्था अगर त्रुटिपूर्ण हो तो यह आर्थिक वृद्धि की राह में एक बड़ा रोड़ा बन जाता है। हम इस प्रणाली को दुरुस्त करने के शुरुआती प्रयासों का भी हिस्सा थे जब मूल्य वर्द्धित कर (वैट) की तरफ कदम बढ़ाया गया था जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक स्थापित अप्रत्यक्ष कर धारणा थी। वैट को हमने भारत में वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) के रूप में पेश किया। इसका उद्देश्य एक स्वच्छ उपभोग कर बनाना है, जो उत्पादन के तरीकों या अंतरराष्ट्रीय व्यापार के प्रति तटस्थ हो। यह किसी भी देश में अप्रत्यक्ष कराधान का सही तरीका है।
इनपुट टैक्स क्रेडिट (आईटीसी) जीएसटी का एक दमदार प्रावधान है। व्यापक आईटीसी करों के अहितकारी प्रभावों को दूर करने के साथ यह भी सुनिश्चित करता है कि कर उत्पादन प्रत्येक स्तर केवल मूल्य वर्द्धन पर लगाया जाए। इससे यह तय होता है कि केवल उपभोग पर ही कर लगे जिससे एक एकीकृत राष्ट्रीय बाजार तैयार करने में मदद मिलती है।
मगर वर्तमान में जीएसटी इस प्रमुख सिद्धांत का उल्लंघन करता है। यह प्रणाली एक ऐसा उदाहरण बन चुकी है जिसे लैंट प्रिचेट ‘आइसोमॉर्फिक मिमिक्री’ (समरूपी अनुकरण) कहते हैं, यानी इसने वैधता हासिल करने के लिए आधुनिक जीएसटी का बाहरी चोला पहन लिया है मगर अंतर्निहित लक्ष्य पूरा नहीं कर पा रहा है। आईटीसी ढांचे की राह में कानूनी एवं प्रक्रियात्मक उलझनें बाधा डाल रही हैं। कई मामलों में भारतीय जीएसटी पूर्व की उत्पाद एव सेवा कर प्रणाली की तरह उत्पादन पर लगाई जाने वाली कराधान व्यवस्था बन कर रह गई है।
जीएसटी की कार्य प्रणाली एक निर्बाध आईटीसी प्रणाली पर तैयार की गई है। जब कोई व्यवसाय अपने कच्चे माल (इनपुट) जैसे सामग्री, सेवाओं या पूंजीगत वस्तुओं पर कर भुगतान करता है तो उसे तुरंत पूरा क्रेडिट मिलना चाहिए। इससे सुनिश्चित होता है कि कर का लाभ संबंधित व्यक्ति तक आसानी से पहुंच जाए। आईटीसी रुकने से आर्थिक तर्क कमजोर हो जाता है। कर उपभोग के बजाय व्यवसाय या उत्पादन में इस्तेमाल होने वाले कच्चे माल पर लगना शुरू हो जाता है, जो आपूर्ति श्रृंखला के माध्यम से एक लागत के रूप में जुड़ जाता है। इससे कराधान का प्रभावी स्तर बहुत अधिक हो सकता है।
एक बाधा ‘उलटे शुल्क संरचना’ (इन्वर्टेड ड्यूटी स्ट्रक्चर) के तहत रिफंड से जुड़ी है। यह समस्या तब सामने आती है जब इनपुट पर अंतिम उत्पादन की तुलना में अधिक दर पर कर लगाया जाता है। इस स्थिति में, अतिरिक्त क्रेडिट लौटाया जाना चाहिए (जैसा कि निर्यात के लिए शून्य-रेटिंग के साथ किया जाता है) लेकिन सीजीएसटी नियमों के प्रावधान 89(5) के अंतर्गत रिफंड भी केवल इनपुट वस्तुओं पर भुगतान किए गए कर तक ही सीमित है। इनपुट सेवाओं और पूंजीगत वस्तुओं पर जमा आईटीसी नहीं लौटाया जाता है।
नॉमिनल जीएसटी दर और प्रभावी कर बोझ के बीच का अंतर अपना प्रभाव दिखाता है। 5 फीसदी कर श्रेणी में एक व्यवसाय के लिए आईटीसी रुकने का मतलब है कि कर भार नॉमिनल दर से अधिक है। एक माल आपूर्तिकर्ता को 14 फीसदी की प्रभावी दर का सामना करना पड़ सकता है जबकि एक सेवा प्रदाता का बोझ बढ़कर 28.4 फीसदी हो सकता है। इस रूप में जीएसटी एक आधुनिक उपभोग कर नहीं है बल्कि उत्पादन पर लगने वाले पुराने कर जैसा है।
वास्तविक वैट से इतर जाना एक सैद्धांतिक समस्या नहीं है बल्कि यह पूरी अर्थव्यवस्था को व्यापक एवं स्थायी क्षति पहुंचाता है और हमारे सबसे गतिशील क्षेत्रों को प्रभावित करता है। यह नियम सेवाओं के क्षेत्र को असमान रूप से प्रभावित करता है। एक निर्माता अपने कच्चे माल पर रिफंड का दावा कर सकता है लेकिन उसे अब भी सेवाओं और पूंजीगत वस्तुओं के लिए इनपुट टैक्स क्रेडिट का संचय करना होगा। इसके उलट एक सॉफ्टवेयर या लॉजिस्टिक्स कंपनी (भले ही कानून में उसके साथ समान व्यवहार हो) को समान राहत नहीं मिलती है क्योंकि उनके इनपुट मुख्य रूप से अन्य सेवाएं और पूंजीगत साधन होते हैं। नतीजा यह होता है कि विनिर्माण एवं सेवा दोनों में लागत अधिक रहती है, लेकिन उन सेवाओं के मामले में बोझ और बढ़ जाता है जहां रिफंड प्रभावी रूप से सबसे अधिक अटके रहते हैं।
एक अव्यवस्थित क्रेडिट श्रृंखला में आयात के पक्ष में अधिक झुकाव है। एक घरेलू उत्पाद पर नॉमिनल 5 फीसदी जीएसटी लगाया जा सकता है, लेकिन इसकी अंतिम तय कीमत में इसके इनपुट पर बिना क्रेडिट वाले करों के कारण बढ़ोतरी हो जाती है जिससे प्रभावी कर बोझ 14 फीसदी या उससे अधिक हो जाता है। हालांकि, सीमा पर ऐसे ही आयातित उत्पाद पर नॉमिनल दर पर कर लगाया जाता है। यह घरेलू उत्पादकों को एक संरचनात्मक नुकसान की स्थिति में पहुंचा देता है। सेवाओं के मामले में नुकसान अधिक होता है जहां इनपुट और पूंजीगत वस्तुओं पर रुके क्रेडिट प्रभावी कर बोझ और अधिक बढ़ा देते हैं। इससे प्रतिस्पर्धात्मकता कम हो जाती है।
जीएसटी निवेश पर लगने वाला कर बन कर रह गया है। पूंजीगत वस्तुओं पर भुगतान किए गए जीएसटी के लिए क्रेडिट अक्सर तब तक रोक दिया जाता है जब तक कोई परियोजना परिचालन शुरू नहीं करती और स्वयं अपनी कर देनदारी खड़ी नहीं करती है। लेकिन वर्तमान समय का 100 रुपये का क्रेडिट अगले तीन वर्षों में 100 रुपये के क्रेडिट से अधिक मूल्यवान हो जाता है। इस देरी से पूंजी की लागत बढ़ जाती है।
इस त्रुटिपूर्ण प्रणाली के बीच सितंबर 2025 में हुए ‘जीएसटी 2.0’ सुधारों ने कई चीजें और खराब कर दी हैं। 12 फीसदी कर श्रेणी को 5 फीसदी कर श्रेणी में विलय करने से कैस्केडिंग टैक्स के तहत आने वाली वस्तुओं का दायरा बढ़ गया है और प्रभावी उत्पादन कराधान अधिक हो गया है। जीएसटी के तहत निर्यातकों के लिए अंतर्निहित कराधान पूरी तरह से बेअसर नहीं हो पाता है, क्योंकि रिफंड में पूंजीगत वस्तुओं पर आईटीसी शामिल नहीं है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर श्रेष्ठ व्यवहार पूर्ण रूप से शून्य-दर वाला निर्यात करना है ताकि हम कभी किसी विदेशी पर कर न लगाएं। लेकिन हमारे नियम विदेशी खरीदारों पर कर लगाने और भारतीय निर्यातकों की प्रतिस्पर्द्धात्मकता बाधित करने की कोशिश करते हैं।
आईटीसी रुकावट का एमएसएमई पर कहीं अधिक असर पड़ता है। बड़ी कंपनियां रिफंड का प्रबंधन कर सकती हैं, आपूर्ति श्रृंखलाओं का पुनर्गठन कर सकती हैं या वित्त पोषण से जुड़ी लागत अवशोषित कर सकती हैं। कम मार्जिन और कर्ज तक सीमित पहुंच के साथ काम करने वाले एमएसएमई में ऐसा लचीलापन नहीं है। उनकी लागत अधिक रहती है, उनकी प्रतिस्पर्द्धात्मकता कम हो जाती है और उन्हें गहरे आयात पूर्वाग्रह का सामना करना पड़ता है। इस तरह, कर प्रणाली छोटी कंपनियों को असमान रूप से दंडित करती है।
पारंपरिक जीएसटी सुधार एजेंडे ने दो लक्ष्यों पर ध्यान केंद्रित किया है। पहला, व्यापक आधार के साथ एक एकल दर हासिल करना और आयात व निर्यात के साथ होने वाले व्यवहार में सुधार करना। अब एक तीसरी प्राथमिकता जोड़ी जानी चाहिए और वह है वास्तविक जीएसटी/वैट बनाने के लिए एक शुद्धतावादी इनपुट टैक्स क्रेडिट तंत्र की बहाली।
आगे के रास्ते के लिए तीन-आयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता है। सबसे पहले कानून में संशोधन किया जाना चाहिए ताकि सभी इनपुट-वस्तुओं, सेवाओं और पूंजीगत वस्तुओं में प्रवाह-आधारित, तत्काल और पूर्ण आईटीसी की गारंटी दी जा सके। दूसरा, एक बार क्रेडिट श्रृंखला तय हो जाने के बाद निचली दरों को ऊपर से मिलाकर लगभग 12-14 फीसदी के साथ राजस्व-तटस्थ दर में तब्दील कर दर संरचना को युक्तिसंगत बनाया जाना चाहिए। अंत में, रिफंड से जुड़े कार्यों में सुधार की आवश्यकता है। वैट प्रणाली में रिफंड एक लगातार समस्या रही है मगर भारत के पास इससे निपटने की तकनीक है। सफल आयकर सीपीसी प्रारूप पर आधारित एक जीएसटी-सीपीसी (सेंट्रल प्रोसेसिंग सेंटर) रिटर्न की प्रक्रिया को स्वचालित बना सकता है और जोखिम-आधारित जांच के आधार पर रिफंड जारी हो सकते हैं।
(लेखक पुणे इंटरनैशनल सेंटर और एक्सकेडीआर फोरम से संबद्ध हैं।)