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शहरों में भूजल की गुणवत्ता बनाए रखना जरूरी

शहर बढ़ने के साथ ही जल तथा सफाई की सेवाओं की मांग भी बढ़ती है मगर अक्सर गंदे पानी के शोधन की व्यवस्था उस रफ्तार से नहीं हो पाती है।

Last Updated- January 24, 2025 | 9:51 PM IST
It is important to maintain the quality of groundwater in cities शहरों में भूजल की गुणवत्ता बनाए रखना जरूरी

पानी कभी ठहरता नहीं.. रूप बदलता रहता है। बर्फ पिघलने से पानी बनता है, जो भाप बनकर उड़ जाता है और भाप इकट्ठी होकर एक बार फिर पानी की बूंदों में तब्दील हो जाती है। यह धरती पर तो रहता है मगर कभी एक रूप में ही नहीं रहता। प्रकृति के चक्र को देखें तो पानी यानी जल रिसकर जमीन में चला जाता है, जमीन के भीतर जलाशयों में इकट्ठा हो जाता है और वहां से भूजल के रूप में ऊपर आता रहता है।

20वीं शताब्दी के दौरान नलकूप की खुदाई और पंपिंग तकनीक उन्नत होने तथा ऊर्जा संसाधनों की उपलब्धता और भूविज्ञान की जानकारी बढ़ने से भूजल का इस्तेमाल एवं दोहन तेजी से बढ़ा। इस तरह भूजल मानव के कल्याण और आर्थिक विकास को सहारा देने वाला जरूरी स्तंभ बन गया, लेकिन लोग न तो इसे और न ही इसकी कीमत को समझ पाए हैं, जिस कारण इसे ठीक से संभाला नहीं जाता। आज दुनिया की तकरीबन आधी शहरी आबादी इसके बिना रह नहीं सकती मगर शहरों में विस्तार होने के साथ ही कचरे के खराब निपटान, गंदे पानी के रिसाव और कचरा जहां-तहां पाट दिए जाने से जलाशयों और जल की गुणवत्ता बिगड़ रही है।

केंद्रीय भूजल बोर्ड की 2024 की वार्षिक भूजल गुणवत्ता रिपोर्ट के मुताबिक देश भर से लिए गए भूजल नमूनों में से करीब 20 फीसदी में नाइट्रेट की मात्रा 45 मिलीग्राम प्रति लीटर की सुरक्षित सीमा से अधिक पाई गई। राजस्थान, महाराष्ट्र और तमिलनाडु जैसे राज्यों में तो स्थिति और गंभीर है जहां उर्वरकों के अत्यधिक इस्तेमाल और कचरे के घटिया निपटान के कारण नाइट्रेट भूजल में मिलता जा रहा है। इससे स्वास्थ्य के लिए भी कई खतरे पैदा हो गए हैं जैसे दूषित जल से होने वाली बीमारियां और शिशुओं में संक्रमण।

रिपोर्ट में नाइट्रेट के अलावा दूसरे विषैले रसायन भी खतरनाक स्तर तक पहुंच जाने की बात कही गई है। भूजल के 9.04 फीसदी नमूनों में फ्लोराइड की मात्रा निर्धारित सीमा से अधिक मिली और पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश तथा असम में खास तौर पर आर्सेनिक की मात्रा खतरनाक स्तर तक पहुंच गई है। भूजल की गुणवत्ता लगातार बिगड़ने से शहरों में रहने वाले लाखों लोगों के लिए खतरा बढ़ता जा रहा है और स्वच्छ तथा सुरक्षित पेयजल की उपलब्धता भी कम हो रही है।

शहर बढ़ने के साथ ही जल तथा सफाई की सेवाओं की मांग भी बढ़ती है मगर अक्सर गंदे पानी के शोधन की व्यवस्था उस रफ्तार से नहीं हो पाती है। विश्व बैंक के अनुमान हैं कि 2036 तक लगभग 60 करोड़ लोग भारत के शहरों में रह रहे होंगे। देश की आबादी का यह करीब 40 फीसदी हिस्सा होगा, जबकि 2011 आंकड़ा 31 फीसदी ही था। शहरों में बढ़ोतरी के साथ ही बड़े आर्थिक बदलाव भी नजर आने लगे हैं। अनुमान हैं कि देश के सकल घरेलू उत्पाद में शहरी क्षेत्रों का योगदान 70 फीसदी तक हो जाएगा। शहर तेजी से बढ़ रहे हैं तो कंक्रीट और चारकोल की सतह भी बढ़ती जा रही हैं, जिस कारण वर्षा का जल रिसकर धरती के अंदर नहीं जा पाता। इससे भूमिगत जल स्रोतों में हानिकारक तत्त्वों की मात्रा भी घनी होती जाती है।

शहरों में आबादी बढ़ने से पानी की और अपशिष्ट जल को साफ करने की व्यवस्था की मांग भी बढ़ती जा रही है। मगर आबादी जिस तेजी से बढ़ती है अक्सर उस तेजी से ये सुविधाएं तैयार नहीं हो पातीं। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने 2021 में कहा था कि भारत के शहरों में रोजाना 7,236.8 करोड़ लीटर अपशिष्ट जल निकल रहा है मगर हमारे पास 3,184.1 करोड़ लीटर पानी साफ करने की क्षमता है। उसमें भी हम केवल 2,686.9 करोड़ लीटर पानी ही साफ कर पाते हैं। इसका मतलब है कि केवल 28 फीसदी अपशिष्ट जल ही साफ हो पाता है और बाकी 72 फीसदी दूषित जल नदियों, तालाब और भूजल में मिल जाता है। बढ़ते संकट से निपटने के लिए भारत के शहरों को शहरी जल प्रबंधन के बारे में

अपने नजरिये पर एक बार फिर विचार करना होगा और आधुनिक समाधान भी अपनाने होंगे। इन समाधानों में तकनीक, पर्यावरण के अनुकूल तौर-तरीकों तथा एकीकृत नियोजन का मेल होना चाहिए। गंदे पानी के उपचार के लिए केंद्रीकृत संयंत्र बढ़ाना जरूरी है मगर इसकी विकेंद्रीकृत व्यवस्था भी होनी चाहिए। इसके लिए पास-पड़ोस में या इमारत के भीतर गंदा जल साफ करने के लिए छोटी मॉड्युलर इकाइयां लगाई जा सकती हैं।

इनसे दूषित जल को वहीं साफ कर दिया जाएगा, जहां से वह निकलता है और बड़ी जल-उपचार इकाइयों पर बोझ भी कम हो जाएगा। गंदे जल से कीमती पोषक तत्व (नाइट्रोजन और फॉस्फोरस) निकालने, बायोगैस बनाने जैसी तकनीक अपनाने और इस पानी का इस्तेमाल घरेलू कामों के अलावा दूसरे कामों में कर लेने से जल की चक्रीय अर्थव्यवस्था तैयार होगी, जिसमें जल और पोषक तत्त्वों का बार-बार उपयोग होता रहेगा।

शहरी केंद्र भूजल प्रबंधन के लिए तकनीक के इस्तेमाल पर भी विचार कर सकते हैं। इंटरनेट ऑफ थिंग्स, सेंसर और आर्टिफिशल इंटेलिजेंस वाले स्मार्ट वाटर नेटवर्क के इस्तेमाल से अत्याधुनिक समाधान मिलता है और जल की गुणवत्ता तथा मात्रा पर हर समय निगरानी भी रखी जा सकती है। जलवायु परिवर्तन के कारण वर्षा का तरीका, ऋतु, अवधि और स्थान बदलने लगे हैं, इसलिए कृत्रिम तरीके से जल का संग्रह, वर्षा जल संचयन और पानी का कम इस्तेमाल करने वाली तकनीकों के जरिये भूजल को इस तरह संभालना होगा कि जलवायु का उस पर फर्क न पड़े। ये सभी तरीके मिलकर मजबूत, लचीली शहरी जल प्रणाली तैयार कर सकते हैं, जो तेज शहरीकरण से आ रही चुनौतियों का सामना कर सकेगी।

भारत में 2019 में जल शक्ति अभियान की शुरुआत के साथ जल संरक्षण और भूजल संचय के लिए मजबूत बुनियाद रखी जा चुकी है। इसमें ग्रामीण एवं शहरी दोनों जिलों में वर्षा जल संचयन पर जोर दिया जाता है। अटल कायाकल्प एवं शहरी परिवर्तन मिशन (अमृत) 2.0 के जरिये भी शहरी क्षेत्रों में वर्षा जल संचयन एवं जल निकाय प्रबंधन को बढ़ावा दिया जा रहा है।

आवास एवं शहरी मामलों के मंत्रालय ने एकीकृत भवन उप-नियम और आदर्श भवन उप-नियम सहित दिशानिर्देश जारी किए हैं जिनका उद्देश्य जल संरक्षण एवं वर्षा जल संचयन को बढ़ावा देना है। जल प्रबंधन के उपायों को अधिक कारगर बनाने के लिए शहरी इलाकों में नई तकनीकी पहलों के साथ नियमित निगरानी करनी होगी। इससे संसाधनों का अधिक प्रभावी तरीके से इस्तेमाल हो सकेगा और भारत के तेजी से फैलते शहरों में गुणवत्ता भरा पानी अधिक समय तक मिलता रहेगा।

(लेखक इंस्टीट्यूट फॉर कंपेटिटिवनेस के अध्यक्ष हैं। इस आलेख में मीनाक्षी अजित ने भी योगदान किया है)

First Published - January 24, 2025 | 9:51 PM IST

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