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अतार्किक विकल्प: परियोजनाओं में देरी से बढ़ती लागत

पिछले दो बजट में प्रत्येक में सरकार ने 10 लाख करोड़ रुपये से अधिक का आवंटन किया गया है और इस आवंटन स्तर को बनाए रखने की योजना है।

Last Updated- July 26, 2024 | 10:33 PM IST
परियोजनाओं में देरी से बढ़ती लागत, Irrational choice: increasing costs due to delay in projects

पिछले दिनों सोशल मीडिया पुलों के ढहने, हवाईअड़्डों की छतों के गिरने, नए-नए बने एक्सप्रेसवे के बह जाने या उनमें बड़ी दरारें बनने, नवनिर्मित हवाईअड्डों या ट्रेन स्टेशनों की छतों से बारिश का पानी गिरने के संदेशों से भर गया। देशवासी निर्माणाधीन बुनियादी ढांचे की गुणवत्ता को लेकर चिंतित हैं, खासतौर पर जब से सरकार ने बड़े पैमाने पर बुनियादी ढांचे पर खर्च में भारी बढ़ोतरी की है।

पिछले दो बजट में प्रत्येक में सरकार ने 10 लाख करोड़ रुपये से अधिक का आवंटन किया गया है और इस आवंटन स्तर को बनाए रखने की योजना है। लेकिन चिंता केवल बन रहे बुनियादी ढांचे की गुणवत्ता को लेकर ही नहीं है, बल्कि एक बड़ा सवाल देश की बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के निर्माण में लगातार होने वाली देरी भी है। यह आंकड़ों में भी दिखाई देता है जो सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय द्वारा पेश किया गया है।

1 अप्रैल, 2024 तक यह मंत्रालय 1873 परियोजनाओं की निगरानी कर रहा था जिन्हें 612 परियोजनाओं (1,000 करोड़ रुपये और इससे अधिक की लागत वाली) और 1,261 बड़ी परियोजनाओं (150-1,000 करोड़ रुपये तक की) में विभाजित किया गया था। इन 1,873 परियोजनाओं में से 449 परियोजनाओं की लागत स्वीकृत लागत से कहीं अधिक बढ़ गई जबकि 779 परियोजनाओं को देरी का सामना करना पड़ा। इन परियोजनाओं की लागत 26.87 लाख करोड़ रुपये होने की उम्मीद थी लेकिन अब इनकी लागत में 18.65 प्रतिशत की उछाल आई है और यह 31.88 लाख करोड़ रुपये हो गई है।

इत्तफाक से सबसे बड़ा खर्च सड़क परियोजनाओं का है (1,093 परियोजनाओं की निगरानी की जा रही है) जहां लागत में तेजी काफी कम है और यह महज 8.38 लाख करोड़ रुपये से बढ़कर 8.68 लाख करोड़ रुपये तक है। लेकिन रेलवे में क्रियान्वयन की रफ्तार सही नहीं रही जिसके खाते में स्वीकृत परियोजनाओं का दूसरा सबसे बड़ा हिस्सा है।

करीब 249 रेलवे परियोजनाओं पर काम चल रहा है जिनकी मूल लागत 4.44 लाख करोड़ रुपये से बढ़कर अब तक 6.85 लाख करोड़ रुपये हो गई है जो 54 प्रतिशत की तेजी को दर्शाता है। जल संसाधन परियोजनाओं के क्षेत्र की लागत में बढ़ोतरी देखी जा रही है और यह 200 प्रतिशत बढ़ गई है। करीब 23,466 करोड़ रुपये की मूल मंजूरी के मुकाबले ऐसा अनुमान है कि इन परियोजनाओं पर 69,700 करोड़ रुपये खर्च होंगे। परमाणु ऊर्जा, पेट्रोलियम और बिजली तीन ऐसे क्षेत्र हैं जहां लागत में भारी उछाल देखी
गई है।

अब हम बात करते हैं उन परियोजनाओं की जिनमें देरी हो रही है। उक्त मंत्रालय द्वारा निगरानी की जा रही 1873 परियोजनाओं में से 701 परियोजनाएं समय पर हैं जबकि 779 परियोजनाओं में देरी हो रही है। इनमें से 202 परियोजनाओं में 1-12 महीने तक की देरी हुई, 181 परियोजनाओं में 13-24 महीने की देरी, 277 परियोजनाओं में 25-60 महीने और 119 परियोजनाओं को 60 महीने से अधिक समय की देरी का सामना करना पड़ा है।

औसत समय-सीमा 36.04 महीने या तीन वर्ष थी। इससे भी खराब बात यह है कि मंत्रालय के पास 393 परियोजनाओं के चालू होने की समय-सीमा के बारे में कोई जानकारी नहीं है। हाल के वर्षों में सरकार स्पष्ट रूप से इस संख्या को कम करने की दिशा में काम कर रही है। लेकिन वित्त वर्ष 2018 में निगरानी की जा रही 1,232 परियोजनाओं में से 55 प्रतिशत (या 731 परियोजनाओं) खुली थीं यानी उनके पूरा होने की कोई निश्चित समय-सीमा नहीं थी।

परियोजनाओं में हो रही देरी से चिंतित प्रधानमंत्री ने पिछले साल फरवरी महीने में सभी सरकारी एजेंसियों को निर्माण पूर्व कार्यों को पूरा करने के लिए कहा जिनमें पहले से ही जरूरी चीजों का हस्तांतरण और भूमि अधिग्रहण करने जैसी प्रक्रिया शामिल है। एक राष्ट्रीय दैनिक में प्रधानमंत्री के हवाले से कहा गया, ‘क्या आपको देरी को लेकर दुख नहीं होता (परियोजनाओं को पूरा करने में होने वाली देरी)।’

मार्च 2015 में सरकार ने ‘प्रगति’ का गठन किया जो सक्रिय प्रशासन और समय पर क्रियान्वयन के लिए गठित संस्था का संक्षिप्त नाम है। इसका मकसद दो उन मुद्दों को जोड़ना था जिनका एक-दूसरे से कोई ताल्लुक नहीं है जैसे कि जनता की शिकायतों का निवारण और परियोजनाओं पर समय पर अमल करना। उस वक्त सरकारी प्रेस विज्ञप्ति में दावा किया गया था कि प्रगति एक विशिष्ट संवाद मंच है जो तीन तकनीकों जो जोड़ता है जिनमें डिजिटल डेटा प्रबंधन, वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग और भू-स्थानिक प्रौद्योगिकी शामिल है जो भारत सरकार के महत्त्वपूर्ण कार्यक्रमों और परियोजनाओं की निगरानी और समीक्षा के साथ-साथ राज्य सरकारों द्वारा चिह्नित परियोजनाओं के लिए जरूरी हैं।

निश्चित तौर पर प्रगति का बेहद कम प्रभाव पड़ा है और केवल उन परियोजनाओं में वृद्धि हुई है जिनकी पूरा करने की तारीख है जबकि बड़ी तादाद में ऐसी परियोजनाएं हैं जिन्हें पूरा करने की कोई तारीख नहीं है।

मंत्रालय ने लागत में बढ़ोतरी के जो कारण बताए हैं उनमें मूल लागत का कम आकलन, विदेशी मुद्रा विनिमय दरों और वैधानिक शुल्क में परिवर्तन, पर्यावरण सुरक्षा और पुनर्वास उपायों की लागत, भूमि अधिग्रहण की लागत, परियोजनाओं के दायरे में परिवर्तन और समय-सीमा में होने वाली देरी।

समय सीमा में देरी के कारणों को कुछ इस तरह सूचीबद्ध किया गया है, जैसे कि परियोजनाओं के दायरे में बदलाव, अतिक्रमण, अदालती मामले और बुनियादी ढांचे के समर्थन में कमी, भूमि अधिग्रहण में देरी, वन/पर्यावरण मंजूरी, परियोजना की फंडिंग के लिए करार, इंजीनियरिंग, निविदा, ऑर्डर, उपकरणों की आपूर्ति की विस्तृत प्रक्रिया के साथ ही स्थानीय प्रशासन द्वारा मंजूरी मिलना शामिल है।

ये सभी कारण सर्वविदित हैं और दशकों से चले आ रहे हैं। कोई भी सरकार सत्ता में रहे, लागत और समय-सीमा में देरी का कारण बनने वाली व्यवस्था में कोई बदलाव नहीं हुआ है। हमें यह मान लेना चाहिए कि ये सभी कारक भविष्य में भी लागत और समय-सीमा में देरी का कारण बनते रहेंगे। इस पृष्ठभूमि में रक्षा उत्पादन, शहरी बुनियादी ढांचा, रेलवे, अक्षय ऊर्जा, परिवहन, जल आपूर्ति आदि पर किए गए भारी वृद्धि वाले खर्चों का क्या होता है? केंद्र सरकार का पूंजीगत व्यय, कुल व्यय के प्रतिशत के रूप में वित्त वर्ष 2024 में, वित्त वर्ष 2014 के 14 प्रतिशत से बढ़कर असाधारण रूप से 28 प्रतिशत पर पहुंच गया। उसी कानूनी, सामाजिक, राजनीतिक और प्रशासनिक तंत्र के दायरे में काम करते हुए देरी और लागत कई गुना बढ़ने वाली है।

बुनियादी ढांचा कारोबार में जुड़ी कंपनियों को सरकार के भारी खर्च से फायदा हुआ है। इनमें से कई कंपनियां सूचीबद्ध हैं और पिछले दो वर्षों में इनकी शेयर कीमतों में भारी तेजी देखी गई है। विडंबना यह है कि समय और लागत में देरी से उन्हें शायद और मदद मिलेगी। लेकिन देरी और अधिक लागत के व्यापक आर्थिक परिणाम होते हैं।

बढ़ते हुए राजकोषीय घाटा और मुद्रास्फीति के दबाव के अलावा अधिक खर्च करने का मतलब यह होता है कि फिर उन क्षेत्रों के लिए कम पूंजी उपलब्ध होगी जहां पूंजी की वास्तव में आवश्यकता है जैसे कि प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा तथा सार्वजनिक स्वास्थ्य जिसमें भारत बहुत कम पूंजी निवेश करता है।

(लेखक मनीलाइफडॉटइन के संपादक और मनीलाइफ फाउंडेशन में ट्रस्टी हैं)

First Published - July 26, 2024 | 10:04 PM IST

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