पिछले सप्ताह 28 अप्रैल को इंडसइंड बैंक लिमिटेड के उप मुख्य कार्यकारी अधिकारी (डिप्टी सीईओ) ने इस्तीफा दे दिया। एक दिन बाद इसके प्रबंध निदेशक और सीईओ ने कई चूक और कृत्यों की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए अपना पद छोड़ दिया। बैंक के मुख्य वित्तीय अधिकारी ने जनवरी में ही अपना इस्तीफा दे दिया था। शीर्ष स्तर पर इस्तीफों की यह झड़ी, डेरिवेटिव लेनदेन से जुड़े लेखांकन में गड़बड़ियों के कारण लगी। डिप्टी सीईओ, बैंक के वैश्विक बाजार विभाग का नेतृत्व कर रहे थे जिसका हिस्सा डेरिवेटिव पोर्टफोलियो है। अब इस बात की जांच चल रही हैं कि बैंक के बहीखाते पर इसका क्या असर पड़ेगा।
एक अलग घटनाक्रम में, भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) द्वारा फरवरी में की गई एक जांच में एक बड़ी धोखाधड़ी का मामला सामने आया है जो न्यू इंडिया को-ऑपरेटिव बैंक के नकदी भंडार से 122 करोड़ रुपये के गबन से जुड़ा है। कथित तौर पर एक पूर्व महाप्रबंधक ने कुछ सहयोगियों की मदद से वर्ष 2019 और वर्ष 2025 के बीच इतना पैसा निकाल लिया। उन्होंने बैंक की तिजोरी से नकदी चोरी करने की बात कबूल की।
उससे पहले, नवंबर 2024 में, एक नियमित जांज के दौरान आवास वित्त नियामक, नैशनल हाउसिंग बैंक ने एविओम इंडिया हाउसिंग फाइनैंस लिमिटेड के म्युचुअल फंड निवेश में गड़बड़ी पाई जिससे नकद शेष राशि के बढ़ने का संकेत मिल रहा था। एक फॉरेंसिक ऑडिट में भी लेखांकन से जुड़ी धोखाधड़ी का पता चला। आरबीआई के गवर्नर संजय मल्होत्रा का कहना है कि ऐसी घटनाओं को वित्तीय प्रणाली में होने वाली ‘घटना/प्रकरण’ के रूप में देखा जाना चाहिए जिसमें बड़ी संख्या में खिलाड़ी शामिल हैं। डिप्टी गवर्नर स्वामीनाथन जे का कहना है कि आरबीआई कभी किसी भी संकट को यूं ही जाया नहीं होने देता है। जब भी ऐसी विफलता की स्थिति बनती है तब यह जोखिम कम करने के उपाय करता है और बोर्ड को निर्देश देता है कि उचित फॉरेंसिक जांच के साथ जवाबदेही के पहलू पर गंभीरता से विचार किया जाए ताकि यह पता लगाया जा सके कि कौन जवाबदेह है और फिर ‘कार्रवाई की जाए’।
लेखांकन में गड़बड़ी तथा सीधे तौर पर धोखाधड़ी दो प्रमुख रुझान हैं जो इन तीन घटनाओं में भी सामान्य तौर पर मौजूद हैं। ये आंतरिक नियंत्रण, ऑडिट और निरीक्षण की गुणवत्ता, चयन प्रक्रिया,बैंक के सीईओ की नियुक्ति के लिए आरबीआई की मंजूरी और प्रशासन के मामले में वरिष्ठ प्रबंधन के साथ-साथ बोर्ड की भूमिका पर भी कई सवाल उठाते हैं।
इंडसइंड बैंक के नए सीईओ की तलाश जारी है। बैंक के बोर्ड की नामांकन और पारिश्रमिक समिति एक बाहरी एजेंसी की मदद से सीईओ का चयन करती है जिसकी अध्यक्षता आमतौर पर बोर्ड के अध्यक्ष करते हैं। एजेंसी की सेवा तब ली जाती है जब आंतरिक स्तर के उम्मीदवार उपयुक्त नहीं पाए जाते हैं या फिर आरबीआई ही किसी बाहरी व्यक्ति को चाहता है। जब तक मौजूदा सीईओ का कार्यकाल जारी न रखने का कोई ठोस कारण न हो तब तक बोर्ड निरंतरता को प्राथमिकता देता है जैसा कि इंडसइंड के मामले में दिखा है। आमतौर पर, बोर्ड यह भरोसा करता है कि सीईओ कोई गलत काम नहीं करेंगे। निर्णय में त्रुटि हो सकती है लेकिन आम तौर पर वे गलत निर्णयों के पीछे दुर्भावनापूर्ण इरादे को देखने से इनकार करते हैं। बैंकिंग नियमन अधिनियमन के तहत सीईओ की नियुक्ति और दोबारा नियुक्ति में आरबीआई की ‘पूर्व’ मंजूरी लेनी आवश्यक है। केंद्रीय बैंक, सीईओ को हटाने का भी फैसला ले सकता है। जब संभावित उम्मीदवारों की सूची आरबीआई तक पहुंचती है तो नियामक का मुख्य जोर नियमों के अनुपालन पर होता है न कि क्षमता पर। चूंकि बोर्ड नामों की मंजूरी दे चुका होता है इसलिए आरबीआई किसी उम्मीदवार की योग्यता की बारीकियों में नहीं जाता है। यदि बोर्ड की सिफारिश में क्रमांक 1 ‘उपयुक्त’ है तो नियामक उम्मीदवार के नाम को मंजूरी दे देता है, भले ही वह पेशेवर क्षमता में क्रमांक 2 या क्रमांक 3 से कमतर हों। यह सब सामान्य परिस्थितियों में होता है। बेशक कुछ ऐसे उदाहरण हैं जब कुछ ऐसी भी परिस्थितियां बनीं जब नियामक ने क्रमांक 2 को चुना या पूरी सूची ही खारिज कर दी और बाहर के किसी व्यक्ति को चुन लिया। किसी बैंक के अध्यक्ष का पद महत्त्वपूर्ण होता है। वह व्यक्ति प्रवर्तक का मोहरा या एक बेहद स्वतंत्र पेशेवर हो सकता है। ऐसे उदाहरण हैं जहां एक गैर-कार्यकारी अध्यक्ष, एक कार्यकारी अध्यक्ष की तुलना में बैंक के कामकाज से अधिक जुड़े रहे जिससे सीईओ के लिए समस्याएं पैदा हुई हैं।
बैंक के बोर्ड के आकार की कोई सीमा नहीं है लेकिन इसके कम से कम 50 फीसदी सदस्य स्वतंत्र निदेशक होने चाहिए। निजी बैंकों के लिए आरबीआई ने निदेशकों के चयन के लिए उनकी योग्यता, विशेषज्ञता, रिकॉर्ड और ईमानदारी के आधार पर मानदंड निर्धारित किए हैं। उनमें से कम से कम 51 फीसदी के पास लेखा, कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था, बैंकिंग, सहकारिता, अर्थशास्त्र, वित्त, कानून और लघु उद्योग आदि क्षेत्रों में विशेषज्ञता वाला ज्ञान होना आवश्यक है।
बोर्ड किसी बैंक के कामकाज में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है, लेकिन अंतिम जिम्मेदारी बैंक के एमडी और सीईओ की होती है। बैंकिंग विनियमन अधिनियम की धारा 10बी स्पष्ट करती है कि एक निजी बैंक के मामलों का प्रबंधन एक एमडी को ‘सौंपा’ जाएगा, जो अपने अधिकारों का प्रयोग निदेशक मंडल के प्रबंधन, नियंत्रण और निर्देशन के अधीन करेगा।
बैंकिंग विनियमन अधिनियम की धारा 36एसीए, आरबीआई को किसी बैंक के निदेशक मंडल को ‘सार्वजनिक हित में या किसी बैंकिंग कंपनी के कामकाज को जमाकर्ताओं के हित के लिए हानिकारक तरीके से संचालित होने से रोकने के लिए निलंबित करने का अधिकार देती है।’ लेकिन यह छह महीने के लिए ही होना चाहिए। हालांकि, बोर्ड के निलंबन को एक वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है।
हाल में, आईसीआईसीआई बैंक लिमिटेड और येस बैंक लिमिटेड से जुड़े मामलों में बैंकों के बोर्ड, सीईओ, कॉरपोरेट गवर्नेंस और बैंक में क्या हो रहा है, इस पर नजर रखने में नियामक की अक्षमता जाहिर हुई।
भारतीय बैंकों, निजी और सार्वजनिक बैंकों दोनों में ही, प्रशासन के मानकों में कथित क्षरण को दूर करने के कई तरीके हैं। ऐसा ही एक विकल्प प्रशासनिक अधिकारियों की नियुक्ति हो सकती है। उनका काम नैतिकता की जिम्मेदारी लेने वाले अधिकारियों से बहुत अलग है, जिन्हें कुछ भारतीय कंपनियों ने नियुक्त करना शुरू कर दिया है, जिनमें बैंक भी शामिल हैं। हालांकि, एक बैंक का कंपनी सचिव काफी हद तक उसका प्रशासनिक अधिकारी होता है। आखिरकार सवाल यह भी है कि नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए वरिष्ठ बैंकर का इस्तीफा क्या इस तरह के प्रकरण पर पर्दा नहीं डालता है? आरबीआई द्वारा उठाए गए कठोर कदम से भविष्य में इस तरह के प्रकरण रोके जा सकते हैं। स्वामीनाथन ने वादा किया कि ‘कार्रवाई की जाएगी’। तो हम इंतजार करते हैं।