बिल्कुल सफेद बालों वाले मेरे मित्र बोले, ‘हमें एहतियात बरतना होगा कि जरूरत से ज्यादा जोश में मामला बिगड़ न जाए।’ मेरे मित्र प्रशासनिक सेवा से अरसे पहले रिटायर हो चुके हैं मगर उससे पहले उन्होंने औद्योगिक नीतियां बनाने वाली लगभग सभी शीर्ष सरकारी संस्थाओं में काम किया था। अब वह मुश्किल से बोल पाते हैं और सीधे चल भी नहीं पाते फिर भी नीतियों से जुड़ा कोई पेच परेशान करे तो मैं फौरन उनके पास पहुंच जाता हूं।
मैंने उनसे पूछा था, ‘क्या आपको लगता है कि स्टार्टअप के लिए हमारी केंद्र और राज्य सरकारें जो गजब का उत्साह दिखा रही हैं उससे वाकई देश का बहुत भला होगा?’ यह सवाल मैंने इसलिए किया था क्योंकि 1990 के दशक में जब मैं अपनी इंटरनेट स्टार्टअप रेडिफ डॉट कॉम पूरे जुनून के साथ चला रहा था तब भारत सरकार के नीति निर्माताओं ने विनम्रता के साथ मुझे बधाई दी थी, लेकिन उनके चेहरे पर अविश्वास झलक रहा था।
मेरे उन मित्र ने कहा, ‘तकनीकी स्टार्टअप भारत की अर्थव्यवस्था के लिए यकीनन शानदार हैं।’ उनकी बात सुनकर मैं खुश हो गया मगर तभी उन्होंने गंभीर सूरत के साथ कहा, ‘लेकिन उम्मीद है कि यह ‘आयात की जगह देसी उत्पादन’ वाले बुखार की तरह नहीं है, जो बरबादी के अलावा कुछ नहीं था।’ वह 1990 के दशक तक का दौर याद कर रहे थे, जब सरकार ने आयातित वस्तुओं की जगह देश में बनी वस्तुओं का इस्तेमाल बढ़ाने वाली नीतियों को खूब तवज्जो दी थी। इसके लिए ऊंचे शुल्क और दूसरे संरक्षणवादी उपायों का जमकर इस्तेमाल किया गया। कहा जाता है कि इसी वजह से उस दरम्यान भारत की आर्थिक वृद्धि बाकी दुनिया से धीमी रह गई मनमोहन सिंह ने 1991 में वित्त मंत्री बनने के बाद इसे विनाशकारी बताकर खत्म कर दिया।
उनकी बात ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया, ‘ क्या हमारी तकनीकी स्टार्टअप की फलती-फूलती दुनिया को कोई तबाह कर सकता है और वैसी ही बरबादी ला सकता है, जैसी आयात के बदले देसी माल की नीतियों से आई थी?’ स्टार्टअप के लिए इतना ज्यादा उत्साह देखकर मैं कल्पना ही नहीं कर पाया कि ऐसा भी हो सकता है। उदाहरण के लिए विश्व आर्थिक मंच की एक रिपोर्ट कहती है, ‘पिछले 10 साल में देश में 1,20,000 से अधिक स्टार्टअप पंजीकृत हुई हैं और स्टार्टअप की तीसरी सबसे बड़ी दुनिया यहीं बन गई है।’ इस मामले में अमेरिका और चीन ही हमसे आगे हैं। इतना ही नहीं तकरीबन हरेक आईआईटी (भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान) और आईआईएम (भारतीय प्रबंध संस्थान) में स्टार्टअप इनक्यूबेशन सेंटर बनाए गए हैं तथा कई शहरों में टेक्नॉलजी पार्क स्थापित किए गए हैं। इसके बाद भारत भर में अटल इनक्यूबेशन सेंटर जैसी संस्थाएं और नैस्कॉम द्वारा चलाए जा रहे इनोवेशन सेंटर हैं। ये प्रयास स्कूलों तक पहुंच गए हैं। छात्रों के बीच नवाचार बढ़ाने के लिए देश के करीब 10,000 स्कूलों में अटल टिंकरिंग लैब बना दी गई हैं।
स्टार्टअप के लिए भारत जिस कदर कोशिश कर रहा है, उसे देखकर मुझे ताज्जुब होता है कि उनके सामने बड़ी चुनौतियां आ भी सकती हैं या नहीं। मैंने तो पत्रिकाओं में लेख लिखने वाले विद्वानों और वेंचर कैपिटल फर्म के साझेदारों को हमेशा से यही कहते सुना है कि नए प्रौद्योगिकीगत नवाचारों के लिए भारत का देसी बाजार बहुत छोटा है।
जब मैंने और भी वेंचर कैपिटल विशेषज्ञों से बात की तब मुझे पता चला कि भारत में तकनीकी स्टार्टअप के लिए बड़े पैमाने पर काम करना मुश्किल क्यों है: सबसे पहली वजह यह है कि देश की बड़ी आबादी पैसावसूल किस्म की है। नई तकनीक उन्हें पसंद आए तो भी उसका किफायती होना जरूरी है। फिर सांस्कृतिक कारण आता है। मसलन भारतीय समाज का एक हिस्सा नई तकनीक तभी अपनाता है, जब वे अच्छी साबित हो जाएं और खूब इस्तेमाल होने लगें। उसके बाद ‘वैल्यू फॉर मनी’ की मानसिकता आ जाती है यानी मौजूदा तकनीकों से बहुत बेहतर तकनीक होने पर भी वे तभी अपनाएंगे, जब उसकी कीमत भारतीय बाजार के हिसाब से हो।
बाकी विशेषज्ञों ने मुझसे पूछा: आंकड़े बताते हैं कि दुनिया में 90 फीसदी स्टार्टअप नाकाम हो जाती हैं, इस पर क्या कहेंगे? ऐसी स्टार्टअप को मदद देने का हमारा क्या तरीका है? क्या हमारे पास भारत में बनने वाली स्टार्टअप की लंबी कतार को मदद करने के लिए पर्याप्त भारतीय वेंचर कैपिटलिस्ट हैं? क्या हमारी आयकर नीतियां स्टार्टअप निवेश का ख्याल रखती हैं?
यह सब सुनकर और बतौर उद्यमी इनमें से कुछ समस्याओं से खुद रूबरू होने के कारण मुझे देश में एक हाईटेक कामयाबी का एक उदाहरण बरबस ही याद आ जाता है: यूनिफाइड पेमेंट इंटरफेस (यूपीआई)। मुंबई में मैं कोलाबा में रहता हूं और जब देखता हूं कि रिक्शा वाले और मछुआरिन सड़क किनारे फल की दुकान पर अपना मोबाइल फोन निकालते हैं और क्यूआर कोड स्कैन कर भुगतान कर देते हैं। यह देखकर मुझे कई बार तो अपनी आंखों पर यकीन ही नहीं होता।
देश में यूपीआई की कामयाबी तकनीक, नीति और सामाजिक आर्थिक कारकों के संगम का शानदार उदाहरण है। यह तकनीकी जीत भर नहीं है बल्कि राजनीतिक अर्थव्यवस्था की भी अहम कामयाबी है, जिससे बहुत कुछ सीखा जा सकता है। यूपीआई बनाने और चलाने का काम सरकारी कंपनी एनपीसीआई कर रही है, जिसे रिजर्व बैंक और इंडियन बैंक्स एसोसिएशन ने गैर लाभकारी संस्था के तौर पर तैयार किया था। यूपीआई की कामयाबी के पीछे बड़ी वजह यही कंपनी है क्योंकि यह गैर लाभकारी है, ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने की फिराक में लगी निजी कंपनी नहीं।
दूसरी बात, यूपीआई डिजिटल बुनियादी ढांचे की दूसरी पहलों आधार, ई-केवाईसी और डिजिलॉकर से जुड़ा है। सरकार ने कैशबैक और छूट के जरिये यूपीआई का खूब प्रचार प्रसार भी किया। इस बात से भी मदद मिली कि यूपीआई को ओपन एपीआई ढांचे पर तैयार किया गया है, जिस कारण कोई भी बैंक या कंपनी यूपीआई से जोड़े जाने लायक ऐप्लिकेशन बना सकती है। सरकार ने शुरू में एक तय रकम से नीचे के यूपीआई लेनदेन पर कोई शुल्क नहीं लगने दिया था, जिससे व्यापारियों ने इसे हाथोहाथ अपनाया क्योंकि कार्ड मशीन पर उन्हें शुल्क देना पड़ता है। इस तरह नकद पर बहुत निर्भर रहने वाला देश धीरे-धीरे डिजिटल भुगतान की ओर चला गया। क्या यूपीआई के उदाहरण में हम सबको यह सबक नहीं मिलता है कि अपनी स्टार्टअप को दुनिया भर में सफल कैसे बनाया जाए?