मैं इस पूरे मामले की शुरुआत एक पेचीदा प्रश्न से कर सकता हूं। वह प्रश्न यह है कि अगर युद्ध में एक पक्ष ने 13 विमान गंवा दिए और दूसरे पक्ष के 5 विमान नष्ट हो गए तो आखिर जीत किसकी हुई? भारत-पाकिस्तान के सभी सक्रिय युद्धों एवं झड़प की अवधि काफी कम रही है। 1965 में दोनों देशों के बीच हुआ युद्ध 22 दिनों तक खिंचा था। ‘ऑपरेशन सिंदूर’ तो महज तीन दिन से थोड़ा अधिक चला। जब भी आत्मसमर्पण एवं सामूहिक समर्पण जैसे निर्णायक नतीजे नहीं दिखते हैं तो दोनों पक्षों के पास जीत का दावा करने की गुंजाइश मौजूद रहती है।
हालांकि, कुछ स्थितियों में तस्वीर बिल्कुल साफ रही है। हम भारतीय मानते हैं कि सभी युद्ध या झड़प में हम विजयी रहे हैं, मगर यह स्वीकार करते हैं कि 1962 की लड़ाई चीन से हार गए थे। ठीक इसी तरह, पाकिस्तान के लोग 1971 में हुई हार स्वीकार करते हैं। अब यह जानते हैं कि 1971 में किस वायु सेना ने पूर्वी क्षेत्र में युद्ध के दौरान कितने विमान खो दिए?
टेल नंबर (विमानों की विशिष्ट पंजीकरण संख्या) और पायलट के नामों के साथ जो आंकड़े सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध हैं उनके अनुसार भारत को 13 और पाकिस्तान को 5 विमानों का नुकसान हुआ। कोई भी इन आंकड़ों पर अंगुली नहीं उठाता। ये सभी विमान युद्ध में मार गिराए गए थे न कि दुर्घटनाओं का शिकार हुए।
अब हम फिर उसी पेचीदा सवाल पर आ जाते हैं। भारतीय वायु सेना (आईएएफ) ने पूर्वी क्षेत्र में पाकिस्तानी वायु सेना (पीएएफ) की तुलना में लगभग तीन गुना अधिक विमान युद्ध में खो दिए। भारत के जब इतने विमान गिर गए तो फिर युद्ध कौन जीता? क्या यह सवाल पूछने लायक भी है? आईएएफ को इन 13 विमानों का नुकसान कैसे हुआ? इनमें दो हवाई युद्ध में गिराए गए (जैसा कि पीएएफ के 5 विमानों के साथ हुआ) और शेष जमीन से दागे गए छोटे हथियारों के निशाने पर आ गए।
पीएएफ के मैदान छोड़ने के बाद भी आईएएफ के लिए युद्ध समाप्त नहीं हुआ। उसने सेना को ताकत देने और उसका नुकसान कम करने के लिए जोखिम की परवाह किए बिना अपनी पूरी ताकत झोंक दी। आईएएफ के 13 में से 11 विमान बहुत नीचे उड़ान भरते हुए पाकिस्तान की सेना द्वारा जमीन से दागे गए हथियारों के निशाने पर आ गए। दोनों वायु सेनाओं के बीच यह मूलभूत अंतर है। एक रक्षात्मक हवाई जंग एवं अपने बचाव को लेकर जुनूनी है तो दूसरी व्यापक राष्ट्रीय प्रयास के लिए एक आक्रामक रुख अपनाती है। पीएएफ संख्या को लेकर जुनूनी है तो आईएएफ अंतिम नतीजे को अधिक तवज्जो देती है।
पीएएफ और पाकिस्तानी जनमत के लिए केवल यह बात मायने रखती है कि उन्होंने कितने विमान मार गिराए हैं। माहौल इतना खुशनुमा है कि पाकिस्तान के लोग इसे अपनी वायु सेना की जीत मान रहे हैं मगर इसका सेहरा सेना प्रमुख के सिर बांध दिया है और उन्हें हास्यास्पद रूप से फील्ड मार्शल का तमगा दे दिया।
इन बातों से दोनों वायु सेनाओं के बीच सैद्धांतिक दृष्टिकोण में अंतर साफ झलकता है। पीएएफ अपनी आत्मरक्षा पर अधिक केंद्रित उस मुक्केबाज की तरह है जो पीछे हटते हुए अपना चेहरा छुपाकर प्रतिद्वंद्वी के हमले का इंतजार करती है और मौका देख दांव चलती है। इसके उलट आईएएफ आक्रामकता के साथ पूरी ताकत से दुश्मन पर टूट पड़ती है और कुछ चोट खाने के लिए भी तैयार रहती है। अगर पीएएफ जोखिम से बचने में लगी रहती है तो आईएएफ जोखिम लेने में विश्वास करती है।
‘ऑपरेशन सिंदूर’ के तीन उद्देश्य थे। पहला, मुरीदके में लश्कर-ए-तैयबा और बहावलपुर में जैश-ए-मोहम्मद के मुख्यालयों को नेस्तनाबूद करना। दूसरा, पाकिस्तान द्वारा किसी भी जवाबी हमले को रोकना और बचाव करना। और तीसरा, अगर वह ऐसा करना जारी रखता है तो उसे करारा जवाब देना। आईएएफ ने इन तीनों उद्देश्यों को पूरा कर लिया। जैसा कि कई शीर्ष सैन्य अधिकारियों ने कहा कि शुरू में कुछ नुकसान जरूर हुआ था। पहले और तीसरे उद्देश्यों की पूर्ति होने के सबूत के तौर पर भारत ने बहुत साफ तस्वीरें और वीडियो जारी किए हैं।
पीएएफ 6 और 7 मई की दरमियानी रात में पहले 22 मिनट में अपनी कथित हवाई-से-हवाई ‘सफलता’ के अलावा किसी और चीज के बारे में बात नहीं करेगी। पीएएफ इसी मानसिकता में जीती रही है। अगर आपकी नजर पीएएफ द्वारा उक्त घटना पर दिए विवरण पर रही है तो गौर करेंगे कि ‘स्थिति जन्य जागरूकता’ का बार-बार इस्तेमाल हुआ है। जाहिर है, यह हवाई युद्ध के बारे में ही बात करती रहेगी। मगर वास्तविकता यह है कि 15 दिन पहले चेतावनी मिलने के बावजूद पीएएफ अपने किसी भी ठिकानों की रक्षा नहीं कर पाई।
यह आईएएफ के जंगी विमानों को चुनौती नहीं दे सकी। आईएएफ ने सिंधु के पूर्व और उसके दूसरी तरफ पूरे पाकिस्तान में पीएएफ के ठिकानों, हवाई रक्षा स्थानों और महत्त्वपूर्ण हथियार भंडारों को निशाना बनाने के लिए मिसाइलें बरसाईं। पीएएफ लड़ाई के लिए कभी तैयार ही नहीं थी। भारतीय सैन्य विमानन इतिहासकार एवं विश्लेषक पुष्पिंदर सिंह चोपड़ा, रवि रिख्ये ने स्विस-ऑस्ट्रेलियाई विशेषज्ञ पीटर स्टीनमैन के साथ 1991 में अपनी पुस्तक ‘फिज़ा’या: साइकी ऑफ द पाकिस्तान एयर फोर्स’ में इस विचित्र मानसिकता का विस्तार से जिक्र किया है। उन्होंने लिखा कि पीएएफ वास्तविक हालात और उसी के शब्दों में परिस्थितिजन्य जागरूकता से पूरी तरह अलग-थलग है।
उन्होंने अपनी पुस्तक में पीएएफ की मानसिकता के बारे में आगे कहा है कि वह अपनी भूमिका हवा से हवा में युद्ध तक ही सीमित देखती है और अपनी क्षमता का ख्याल कर इस बात से अपनी सफलता निर्धारित करती है कि उसने प्रतिद्वंद्वी के कितने विमान गिरा दिए हैं। इसके बाद वह अपनी बची-खुची ताकत युद्ध के अंतिम चरण के लिए बचा कर रखती है। इसका मतलब है कि पीएएफ केवल एक खास स्वार्थ के लिए युद्ध करती है और बड़े राष्ट्रीय प्रयास का हिस्सा बनने से दूर रहती है। पाकिस्तान युद्ध हार जाएगा लेकिन पीएएफ तब भी अपनी जीत का खोखला दावा करेगी क्योंकि उसने तो ‘अधिक विमानों को मार गिराया।‘
पीएएफ ने तीन महीने से अधिक समय बीतने के बावजूद अपने किसी भी दावे के समर्थन में सबूत या तस्वीर का एक भी टुकड़ा पेश नहीं किया है। वह इसके लिए कोई बहाना भी नहीं बना सकती क्योंकि आजकल तो वाणिज्यिक उपग्रह भी सब कुछ देख रहे होते हैं। पाकिस्तान फिर भी जीत का जश्न मना रहा है। इसकी मीडिया (मुख्यधारा और सोशल दोनों), सभी दलों के राजनेता और बेशक सेवारत सैन्य अधिकारी एवं पूर्व रणनीतिकार एक बड़ी जीत का दावा कर रहे हैं। कुछ तो यह दंभ भी भर रहे हैं कि 1971 का बदला ले लिया गया है और खुद को पदोन्नति, पदक और सम्मान से नवाज रहे हैं।
आईएएफ और पीएएफ के इस सैद्धांतिक अंतर के पीछे कई उदाहरण, इतिहास और मानसिकता हैं। आइए, पहले भारत के हवाई युद्धों से जुड़े आंकड़ों पर नजर डालते हैं। प्रत्येक मामले में भारत ने पाकिस्तान की तुलना में युद्ध में अधिक विमान खोए हैं। संक्षेप में कहें तो यदि हम इकाई, प्रकार, टेल नंबर, चालक दल के नाम, स्थान और युद्ध में बंदी बनाए गए चालक दल के लोगों के नामों की फेहरिस्त तैयार करते हैं तो 1965 के युद्ध में भारत के 52 विमान मार गिराए गए जबकि पाकिस्तान के 20 विमान नष्ट कर दिए गए। 1971 की लड़ाई में भारत को 62 विमान गंवाने पड़े जबकि पाकिस्तान के 37 विमान तबाह हो गए। ये विशुद्ध रूप से युद्ध में हुए नुकसान हैं जिसमें विमान हवा में निशाना बनाए गए या प्रतिद्वंद्वी वायु सेना द्वारा जमीन पर नष्ट कर दिए गए।
पीएएफ 1965 में अपनी कथित जीत के लिए 6 सितंबर को ‘पाकिस्तान रक्षा दिवस’ के रूप में मनाती है। यह कार्यक्रम एकतरफा पीएएफ से जुड़ा हुआ है क्योंकि उसे लगता है कि उस दिन उन्होंने सरगोधा पर आईएएफ के कई हमलों को विफल कर दिया और कई विमानों को मार गिराया। यह सब इतना काल्पनिक और भावनाओं से ओत-प्रोत है कि कई पढ़े-लिखे पाकिस्तानी भी पूछ बैठते हैं कि अगर पीएएफ इतनी प्रभावशाली थी तो पाकिस्तान युद्ध क्यों नहीं जीत पाया? सवाल तो अच्छा है।
कड़वी सच्चाई तो यह है कि 6 सितंबर वह दिन था जब पाकिस्तान युद्ध हार गया। कश्मीर पर कब्जा जमाने के उसके ऑपरेशन जिब्राल्टर और फिर ग्रैंड स्लैम विफल हो गए। पाकिस्तान की मंशा कामयाब नहीं हो पाई और उसके बाद उसने सारा जोर अपनी रक्षा करने में लगा दिया। यही वजह है कि यह दिन पाकिस्तान रक्षा दिवस के रूप में मनाता है।
1971 के युद्ध में क्या हुआ और कौन विजयी रहा इस पर कोई संशय नहीं हैं। क्या पीएएफ केवल इस आधार पर जीत का दावा कर सकती है कि उसने लड़ाई में कम विमान खोए? पाकिस्तान के लोग अगर ईमानदारी से आत्ममंथन करेंगे तो वह जरूर पूछेंगे कि पीएएफ आत्मरक्षा करने के बजाय आगे बढ़कर युद्ध करती तो क्या उसने राष्ट्रीय प्रयास में अधिक योगदान नहीं दिया होता?
किसी भी लड़ाई में एक भी ऐसा उदाहरण नहीं है जिसमें पीएएफ का पलड़ा भारी रहा हो। पीएएफ ने अगर वाकई कुछ किया तो यह कि अपनी सेना और नौसेना दोनों को भाग्य भरोसे छोड़ दिया। यह पीएएफ की उस मानसिकता पर मुहर लगती है कि वह केवल अपने लिए, अपने द्वारा और ज्यादातर अपने हवाई क्षेत्र में लड़ती है। पीएएफ केवल इसी भूमिका के लिए तैयार की गई है। ‘ऑपरेशन सिंदूर’ में भी ऐसा ही हुआ।