पाकिस्तान को अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) से मिली 2.4 अरब डॉलर ऋण पर भारत में चिंता एवं निराशा जताई गई है। यह रकम पाकिस्तान को ऐसे नाजुक समय में मिली जब भारत के साथ उसकी सैन्य झड़प हो रही थी। बाद में आईएमएफ ने एक पूरक टिप्पणी में यह जरूर माना कि इस रकम का बेजा इस्तेमाल होने या ऐसा प्रतीत होने पर उसकी छवि को झटका लग सकता है। हालांकि, आईएमएफ की तरफ से यह भी कहा गया कि ‘हाल के घटनाक्रम स्थिति की समीक्षा को प्रभावित नहीं करते हैं।’
आईएमएफ के कदम से कई सवाल खड़े हुए हैं। पहला सवाल तो यह है कि तटस्थ रहने के लिए प्रतिबद्ध कोई बहुपक्षीय संस्था अपने दो सदस्य देशों के बीच युद्ध के दौरान ऐसा कदम क्यों उठाएगा? इससे भी महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि भारत भविष्य में ऐसे कदमों की पुनरावृत्ति कैसे रोक सकता है?
एक असहज करने वाली वास्तविकता यह है कि बहुपक्षीय संस्थान हमेशा तटस्थ नहीं रहे हैं। शीत युद्ध के दौरान ये बहुपक्षीय संस्थान प्रायः दबदबा रखने वाले खासकर पश्चिमी देशों के हितों को अधिक तवज्जो दे रहे थे। बहुपक्षीय प्रणाली में सबसे बड़े दाता देश अमेरिका ने अक्सर अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर वित्तीय सहायता की दिशा अपने मित्र एवं सहयोगी देशों की तरफ मोड़ दी जबकि प्रतिद्वंद्वी देशों को इससे महरूम रखा।
शीत युद्ध के बाद भी यह रुझान बरकरार रहा। वर्ष 1994 में आईएमएफ ने मेक्सिको को 18 अरब डॉलर ऋण दिए जिनका इस्तेमाल अमेरिकी निवेशकों की रक्षा के लिए किया गया। वर्ष 2013 में आईएमएफ ने ग्रीस को आर्थिक संकट से उबारने में सक्रिय भूमिका निभाई। आईएमएफ को यूरोपीय ताकतों का भी पूरा समर्थन था। ये देश अपने पड़ोस में आर्थिक हालात बिगड़ता नहीं देखना चाहते थे। रूस और यूक्रेन के जारी मौजूदा संघर्ष में बहुपक्षीय एजेंसियों ने यूक्रेन को भारी भरकम सहायता दी है मगर रूस में उन्होंने अपना परिचालन निलंबित रखा है।
मगर, पाकिस्तान को हाल में दिया गया ऋण पुराने ढर्रे से अलग है। शीत युद्ध काल से इतर इस बार बड़े अंशधारक तटस्थ रहे हैं। दूसरी बात यह दिखी है कि आईएमएफ की तरफ से ऋण की स्वीकृति सक्रिय सैन्य टकराव के बीच आई है जो अपने आप में एक अभूतपूर्व स्थिति है।
पाकिस्तान लंबे समय से आईएमएफ से कर्ज लेता रहा है जो कौतूहल का विषय लग रहा है। यह आईएमएफ से कर्ज लेने वाला चौथा सबसे बड़ा देश है और पिछले 25 वर्षों में इसे 25 से 30 अरब डॉलर रकम मिली है। आईएमएफ से मिलने वाली रकम के साथ चीन और सऊदी अरब से मिलने वाली आर्थिक सहायता से पाकिस्तान कई बार आर्थिक पतन से बच गया है। आखिर आईएमएफ एक ऐसे देश को इतनी रकम कर्ज क्यों दे रहा है जिसे अर्थशास्त्रियों ने बार-बार ‘खतरनाक रूप से अस्थिर’ और ‘एक विफल होता राज्य’ करार दिया है? इसका एक कारण आईएमएफ की ढांचागत कमजोरी में दिखता है।
कई अध्ययनों में पाया गया है कि एक प्रभावी निगरानीकर्ता के रूप में अपनी पहचान बनाए रखने की इसकी इच्छा इसके निर्णय को विकृत कर देती है। पिछले कुछ वर्षों के दौरान बार-बार उधार लेने वाले देश के साथ इसका रवैया ढीला-ढाला रहा है जिससे उधारी, फिर विफल कार्यक्रम और फिर अधिक उधारी देने का चक्र शुरू हो जाता है। इस चक्र को तोड़ने के लिए एक बाहरी हस्तक्षेप की जरूरत है और भारत इसमें एक भूमिका निभा सकता है।
जी-20 समूह देशों की अध्यक्षता के दौरान भारत ने वैश्विक वित्तीय ढांचे में सुधार के लिए सार्थक कदम उठाए हैं। भारत ने एन के सिंह और लैरी समर्स की सह-अध्यक्षता में एक अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञ समूह का गठन किया। समूह ने बहुपक्षीय बैंकों की क्षमता बढ़ाने एवं उनकी जिम्मेदारी तय करने के लिए दूरगामी सुझाव दिए। ये सुझाव अब आगे बढ़ाए जा रहे हैं, खासकर विश्व बैंक इन्हें आगे ले जाने में बड़ी भूमिका निभा रहा है। अफसोस की बात है कि आईएमएफ इस सुधार कार्यक्रम से पीछे छूट गया था। अब एक और प्रश्न यह है कि भारत आईएमएफ जैसे संस्थानों में अपना प्रभाव कैसे बढ़ा सकता है और अपना रणनीतिक हित प्रभावी ढंग से कैसे सुनिश्चित कर सकता है? भारत इस दिशा में निम्नलिखित कदम उठा सकता है:
बहुपक्षीय संगठनों में अपने हितों का प्रतिनिधित्व करने के लिए भारत को प्रतिभाओं का एक बड़ा समूह खड़ा करना होगा। फिलहाल हमारे श्रेष्ठ एवं प्रतिभावान लोग इन संस्थानों में नहीं जाते हैं। इन बहुपक्षीय संगठनों में उपस्थिति एवं वहां होने वाले कार्यों को भारत रणनीतिक प्राथमिकताओं के नजरिये से नहीं देखता है। अकादमिक या निजी क्षेत्र से नियुक्तियां यदा-कदा ही होती हैं। विदेश में रहने वाले योग्य भारतीय भी कई अन्य कारणों से नजरअंदाज कर दिए जाते हैं। यह स्थिति अवश्य बदलनी चाहिए। हमारे प्रतिनिधियों में कूटनीतिक चतुराई के साथ तकनीकी विशेषज्ञता भी होनी चाहिए।
भारत अब काफी बदल चुका है मगर हमारे मतदान का तरीका और सहयोगी नहीं बदले हैं। हम परंपरागत रूप से दूसरे विकासशील देशों के साथ जुड़े हैं- इस पर हमारे औपनिवेशिक अतीत और गुट-निरपेक्ष नीतियों की छाप दिखती है। मगर एक वैश्विक शक्ति बनने की चाह रखने वाले भारत को अपनी नीतियों पर अवश्य पुनर्विचार करना चाहिए। ब्राजील और चीन जैसे देशों ने विकासशील एवं पिछड़े देशों (ग्लोबल साउथ) से अलग अपने तरीके से मतदान कर व्यावहारिक सोच का परिचय दिया है जो उनके राष्ट्रीय हित को परिलक्षित करते हैं। भारत को भी ऐसा ही मुद्दा आधारित दृष्टिकोण अपनाना चाहिए तभी यह वैश्विक शक्तियों के बीच विश्वास एवं आदर हासिल कर पाएगा।
भारत को ग्लोबल नॉर्थ यानी विकसित देशों के बीच अपनी बौद्धिक उपस्थिति मजबूत करनी होगी। यह ठीक है कि हम ग्लोबल साउथ के हितों को आगे बढ़ा रहे हैं मगर हमारी नीतिगत बुनियाद हमारी बढ़ती महत्त्वाकांक्षाओं के साथ कदम नहीं मिला पा रही है। विदेश में भारत पर केंद्रित कुछ गिने-चुने केंद्र ही हैं और भारतीय विचारक संस्थाओं की देश के बाहर काफी कम उपस्थिति देखी जाती है। रणनीतिक निवेश और जी-20 के दौरान दूसरे देशों के साथ आपसी समझ बढ़ने का फायदा उठाते हुए भारत को शोधकर्ताओं और अपनी नीतियों के हिमायती लोगों का एक वैश्विक तंत्र तैयार करना चाहिए ताकि बहुपक्षीय मंचों में हमारे हितों को बढ़ावा मिले। सीमा पर गोलीबारी तो थम गई है मगर वैश्विक स्तर पर प्रभाव कायम करने की कूटनीतिक जंग जारी है। अब समय आ गया है जब भारत को न केवल सैन्य शक्ति के माध्यम से अपनी ताकत का परिचय देना चाहिए बल्कि पेशेवराना अंदाज, सिद्धांत आधारित मतदान और साझेदारियों के जरिये भी अपनी धाक जमानी चाहिए।
(लेखक इक्रियर के निदेशक एवं सीईओ हैं)