अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने शुल्क के मोर्चे पर जो कदम उठाए, उनसे भारत के आर्थिक नीति विशेषज्ञों में इस बात की रुचि उत्पन्न हो गई है कि भारत को उभरती चुनौतियों के प्रति किस तरह की प्रतिक्रिया देनी चाहिए। उनकी दिलचस्पी केवल यह देखने में नहीं है कि अमेरिका को आसान व्यापारिक शर्तों के लिए कैसे मनाया जाए या बहुपक्षीय व्यापार व्यवस्थाओं में शामिल होने और यूरोपीय संघ जैसे क्षेत्रों के साथ मुक्त व्यापार समझौते पर विचार किया जाए या नहीं किया जाए। उनकी रुचि यह परखने में भी है कि सिर पर मंडरा रहे संकट को वृद्धि की रफ्तार बढ़ाने के मौके में बदलने के लिए भारत को किस तरह के आर्थिक सुधार तेज करने चाहिए।
नीति विशेषज्ञ, औद्योगिक संस्थाएं और थिंक टैंक सुधारों की लंबी सूची पर चर्चा कर रहे हैं। दलील यह है कि सरकार को अब इन सुधारों पर ध्यान देना चाहिए जो ट्रंप की शुल्क नीतियों के कारण आए झंझावात से देश की अर्थव्यवस्था को बचा सकते हैं। ट्रंप के कदमों से विश्व व्यापार में सुस्ती, अधिकतर देशों की वृद्धि दर में गिरावट और अमेरिका तक में मंदी आने की आशंका है। अगर 1991 में आए राजकोषीय और भुगतान संतुलन संकट के बीच तीन दशक पहले हमने उदारीकरण अपना लिया था तो 2025 भी बहुत अलग नहीं है और इसका इस्तेमाल हम दूसरी पीढ़ी के बहुप्रतीक्षित सुधारों को अंजाम देने के लिए कर सकते हैं।
भारत आयात पर जो शुल्क लगाता है, उसमें कमी करना सुधारों में सबसे आगे होना चाहिए। ये शुल्क 2018 के बाद बढ़ने शुरू हुए थे और कुछ वस्तुओं पर आयात शुल्क में कमी पिछले एक साल में ही दिखी है। मगर इसके अलावा काफी कुछ करने की जरूरत साफ दिख रही है और नीति जानकारों का कहना सही है कि आयात शुल्क को घटाकर वाजिब बनाना जरूरी है। एक सुझाव यह भी है कि भारत सरकार को जल्द ही अमेरिका और यूरोपीय संघ के साथ व्यापार समझौते पूरे कर लेने चाहिए। इन पर बातचीत काफी आगे बढ़ चुकी है। सरकार को प्रशांत-पार साझेदारी के लिए व्यापक और प्रगतिशील समझौते में शामिल होने का भी प्रयास करना चाहिए।
विशेषज्ञों ने कराधान और वित्तीय क्षेत्र में नए सुधारों की जरूरत भी बताई है, जिनके लिए फरवरी 2025 में पेश बजट में शुरुआत कर भी दी गई है। इनके अलावा श्रम और भूमि कानून, वापस लिए गए कृषि कानून, कृषि क्षेत्र के शोध एवं विकास व्यय में इजाफा, बिजली सुधार-खासकर वितरण सुधार, शहरी नीति में बदलाव, द्विपक्षीय निवेश संधियों में बदलाव करके उन्हें निवेशकों के अधिक अनुकूल बनाना, निजीकरण की नीति का क्रियान्वयन और न्यायिक व्यवस्था में भी गहन सुधार जरूरी हैं।
बीते तीन दशकों में देश के आर्थिक सुधारों पर नजर रखने वाले पाएंगे कि ऊंची और टिकाऊ वृद्धि के लिए आर्थिक नीतियों में सुधार की इन इच्छाओं में नया कुछ नहीं है। सरकार में बैठे विशेषज्ञों समेत नीति विशेषज्ञ दशकों से इन्हीं बदलावों की बात कर रहे हैं मगर इनकी गति और नई नीतियों का क्रियान्वयन बेहद धीमा रहा है।
दूसरी पीढ़ी के इन अत्यावश्यक सुधारों के प्रति उदासीनता के बीच कुछ अलग दिखता है तो वह है राजकोष को मजबूत करने का सरकार का संकल्प। केंद्र सरकार का राजकोषीय घाटा कम ही नहीं हुआ है बल्कि व्यय की गुणवत्ता भी बढ़ी है। साथ ही ऋण के साथ घाटे में कमी का कार्यक्रम भी आया है। पेट्रोल और डीजल पर उत्पाद शुल्क बढ़ाने का हालिया कदम और रसोई गैस के दाम में इजाफा बताता है कि सरकार ढिलाई बरतने को तैयार नहीं है। धीमी पड़ती अर्थव्यवस्था से झटका खाने वाले क्षेत्रों को राजाकोषीय रियायत देने का प्रलोभन छोड़कर सरकार अब तक बजट में उल्लिखित राजकोषीय मजबूती के रास्ते पर ही चल रही है।
परंतु दूसरी पीढ़ी के इन सुधारों का उल्लेख करने से ज्यादा जरूरी यह समझना है कि आर्थिक नीतियों में इन सुधारों को बिना किसी बाधा के कैसे लागू किया जा सकता है? विगत तीन दशकों का अनुभव दिखाता है कि क्या सुधार करने हैं इस पर ध्यान देने के बजाय सुधारों को लागू करने की रणनीति पर ध्यान देना बेहतर होगा। तीन दशकों में विभिन्न सरकारों ने जो प्रक्रिया अपनाईं, उनमें सुधार की जरूरत है। इसके लिए प्रक्रिया से जुड़े तीन क्षेत्रों पर तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है।
पहला, एक विशेषज्ञ समिति होनी चाहिए जो सुधारों के नफा-नुकसान पर विचार कर सके। 1990 के दशक में कराधान नीतियों में सुधार, वित्तीय क्षेत्र और बीमा क्षेत्र सुधार समितियों के गठन पर निर्भर थे, जिनकी अध्यक्षता सरकार के बाहर के विषय विशेषज्ञों ने की थी। इन समितियों ने विस्तृत रिपोर्ट पेश की, जिसे सरकार ने सार्वजनिक किया और उनकी सिफारिशों पर सार्वजनिक मशविरा कराया। अब सरकार को विशेषज्ञ समितियों वाली व्यवस्था दोबारा अपनाने और नीतिगत सुधार की दिशा में बढ़ने की जरूरत है।
दूसरा, नीतिगत विशेषज्ञों की सिफारिश पर क्षेत्रवार सुधार से पहले अफसरशाही में सुधार जरूरी है। नरेंद्र मोदी सरकार ने अपने पहले ही कार्यकाल में ऐसा करना चाहा था, लेकिन बाद में इस पर ध्यान नहीं दिया गया, जबकि सुधारों का सफल क्रियान्वयन करने के लिए ऐसे अधिकारियों की जरूरत है, जो क्षेत्र के विशेषज्ञ हों और राजनीतिक नेतृत्व को सही सलाह देने से भी बिल्कुल न हिचकें।
अपने तीसरे कार्यकाल में मोदी सरकार ने निजी क्षेत्र के विशेषज्ञों को विभिन्न मंत्रालयों से जोड़ना चाहा मगर इस पहल को बीच में ही छोड़ दिया गया। इसके बजाय अब वरिष्ठ या सेवानिवृत्त अधिकारियों को नियामकीय संस्थाओं का प्रमुख बना दिया गया है। अगर नीति बनाने वालों को उन्हें लागू करने वालों से अलग कर दिया जाए तो सुधार बेहतर तरीके से अमल में लाए जा सकते हैं।
तीसरा, देश में दूसरी पीढ़ी के सुधारों की जिम्मेदारी केवल केंद्र सरकार पर नहीं होनी चाहिए बल्कि 28 राज्यों और आठ केंद्र शासित प्रदेशों को भी यह जिम्मेदारी उठानी चाहिए। सुधार की जरूरत वाले कई क्षेत्र केंद्र और राज्य दोनों के दायरे में आते हैं। योजना आयोग खत्म होने के बाद राज्यों के पास ऐसा कोई मंच नहीं है, जहां सुधारों के क्रियान्वयन से पहले उनकी बात सुनी जा सके। पिछले 11 साल में अंतर राज्य परिषद की केवल एक बैठक हुई है और उससे पहले के 10 साल में दो बैठक हुई थीं। वस्तु एवं सेवा कर परिषद का अनुभव उम्मीद जगाता है कि दूसरे क्षेत्रों में भी ऐसी ही संस्थाएं गठित की जा सकती हैं।
इस बात से इनकार नहीं है कि भारत को दूसरी पीढ़ी के सुधारों का क्रियान्वयन तेजी से करना होगा। परंतु कोई बड़ी घोषणा करने के पहले सरकार को विशेषज्ञों की राय, मजबूत क्षेत्रीय विशेषज्ञता वाले अधिकारियों और अधिक जीवंत केंद्र-राज्य तंत्र की आवश्यकता पर ध्यान देकर उन्हें लागू करने की प्रक्रिया को सही बनाना चाहिए।