स्प्राइट के नए विज्ञापन की बानगी देखिए। इसमें एक ऐसे युवा को दिखाया गया है, जिसकी दो गर्लफ्रेड हैं।
वह दूसरी गर्लफ्रेंड के सामने ईमानदारी से गलती स्वीकार करते हुए कहता है कि पहली गर्लफ्रेंड के साथ होने की वजह से वह उसके पास देर से पहुंचा। लेकिन दूसरी गर्लफ्रेंड इस पर यकीन नहीं करती। दरअसल, वह युवा अपनी बात को इतने स्वाभाविक तरीके से कहता है कि लड़की को लगता है कि वह उसे बेवकूफ बनाने के लिए झूठ बोल रहा है।
इसी तरह मोटो युवा के विज्ञापन में जब बेटा अपनी गैरजिम्मेदाराना हरकतों के लिए डांट खा रहा होता है, तो वह बेशर्म की तरह अपने मोबाइल से म्यूजिक चलाना शुरू कर देता है।
वर्जिन मोबाइल के विज्ञापन में एक खूबसूरत लड़की अपने माता-पिता से कहती है कि लड़कों में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं है। यह सुनकर उसके माता-पिता डर जाते हैं। इसके मद्देनजर जब किसी दूसरे धर्म का एक लड़का उसे सप्ताहांत पिकनिक पर चलने के लिए फोन करता है, तो लड़की के पिता उसे उस लड़के के साथ जाने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। दरअसल, पिकनिक की मंजूरी के लिए लड़की ने यह चाल चली थी।
तकरीबन डेढ़ साल पहले ‘फाइव स्टार’ चॉकलेट के विज्ञापन में एक किशोरी को अपने बॉयफ्रेंड को घर के लॉफ्ट (सामान रखने के लिए बनी जगह) में छिपाते हुए दिखाया गया था। जब लड़की अपने बॉयफ्रेंड के साथ मस्ती कर रही होती है, उसी वक्त अचानक उसके मां-बाप घर पहुंच जाते हैं।
ब्रैंड को बनाने में अहम भूमिका निभाने वाले इसे महज गुस्ताखी करार दे सकते हैं, लेकिन इन विज्ञापनों के जरिये ब्रैंड की दुनिया में धीरे-धीरे अविश्वास, गुस्ताखी और छलावा जैसे नए मूल्यों का निर्माण हो रहा है। भारतीय विज्ञापन जगत में कई ऐसे विज्ञापन देखने को मिल रहे हैं, जिसके नायक सही-गलत के फासले को कम कर रहे हैं। हालांकि हम कह सकते हैं कि यह सोची समझी रणनीति का हिस्सा नहीं है।
ऐतिहासिक रूप से हम भारतीय खासकर संस्कृति के मामले में चीजों को साफ-साफ (सही या गलत) देखने के आदी रहे हैं। शायद यही वजह है जब हॉलिवुड की फिल्मों के आधार पर बॉलिवुड फिल्मों की पटकथा लिखी जाती है, तो किरदार को शुध्द नायक या खलनायक (अच्छा या बुरा शख्स) के रूप में तब्दील कर दिया जाता है।
साथ ही अगर कोई नायक कुछ गलत कर भी रहा है, तो इसके लिए बहुत बड़ी वजह दिखाई जाती है। मसलन संकटों से जूझ रहे परिवार की खातिर। यानी किसी भी नायक को बुनियादी रूप से आर्दश के रूप में पेश किया जाता है।
मिसाल के तौर पर जब ‘सबरीना’ की तर्ज पर हिंदी में ‘ये दिल्लगी’ का निर्माण किया गया तो अंग्रेजी संस्करण के नायक हैरिसन फोर्ड के नकारात्मक पक्षों को अक्षय कुमार के किरदार से हटा दिया गया। हालांकि भारतीय पुराण कथाओं में दो प्रमुख नायक हैं – संपूर्ण पुरुषोत्तम राम और इंसानी फितरत वाले कृष्ण। लेकिन अपने आर्दश व्यक्तित्व की वजह से राम को भारतीय संस्कृति में ज्यादा स्थान मिला है।
जहां तक ब्रांडों की बात है, ये हमेशा से अच्छे मूल्यों के साथ खुद को ज्यादा सहज महसूस करते हैं। इसलिए जब आप ब्रांड से जुड़ी शख्सियतों और मूल्यों के बारे में पढ़ते हैं तो यह अच्छी बातों का पिटारा लगता है, जिसे हर शख्स की ग्रहण करने की ख्वाहिश रहती है। हालांकि ऐसी शख्सियतें महज काल्पनिक होती हैं।
अगर विज्ञापनों में जीवन के काले पक्ष का भी इस्तेमाल किया जाता है तो यह अक्सर जाने-अनजाने इस पक्ष को सकारात्मक बनाकर इसका हल निकालने में सक्षम होता है। मसलन, कुछ साल पहले पिडिलाइट के एम-सील के विज्ञापन में परिवार में संपत्ति को लेकर चलने वाले दांवपेंच जैसे नकारात्मक पक्ष को दिखाया गया था। इसमें एक लालची पुत्र मृत्युशैया पर पड़े अपने पिता से विल में कुछ जीरो लगवाने में जुटा है।
हालांकि छत से टपकी पानी की बूंद से विल पेपर के गंदा होने की वजह से उसकी यह योजना नाकामयाब हो जाती है।हकीकत यह है कि हम सभी में एक नकारात्मक पक्ष भी मौजूद है, जो हमें इंसान बनाता है। यह पक्ष सभी लोगों में अच्छाई के साथ मौजूद होता है। ‘गलत’ काम करने में मजा भी आता है और वास्तविक दुनिया में अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए भी कभी-कभी यह जरूरी हो जाता है।
हालांकि हमारी सामाजिक चेतना हमें इसका चित्रण करने की मंजूरी नहीं देती। हमें ऐसा लगता है मानो हम ‘बुरी’ परंपराओं और मूल्यों को बढ़ावा दे रहे हैं। कुछ साल पहले सर्फ के उस विज्ञापन पर काफी वाद-विवाद हुआ था, जिसमें बच्चों द्वारा स्कूल में एक-दूसरे के कपड़ों पर स्याही छिड़कते हुए दिखाया गया था। इस मामले में ब्रैंड का तर्क यह था कि बच्चे आखिरकार बच्चे होते हैं और उन्हें किसी तरह का डर नहीं होता और सर्फ से स्याही के दाग को आसानी से धोया जा सकता है।
लेकिन सवाल यह पैदा होता है कि क्या जिंदगी की इस हकीकत को दिखाकर बच्चों को जानेअनजाने बुरा बर्ताव करने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है? अगर मां-बाप का मकसद बच्चों को ऐसा नहीं करने देना है तो यह ब्रांड की सामाजिक रूप से गैरजिम्मेदाराना हरकत है।
जिंदगी की दास्तां काफी जटिल है और इसमें फूलों के साथ-साथ कांटे भी हैं। इसके मद्देनजर अगर किसी उत्पाद का ताल्लुक उसकी गुणवत्ता से है, तो ब्रैंड से आशय जिंदगी में उसके रोल के बारे में है। इसके मद्देनजर ब्रैंडों को चीजों को खास संदर्भ में देखने की जरूरत है।
ब्रैंडों को वैसे मैदान में उतरने की जरूरत है, जहां नायक जिंदगी की हकीकत की दास्तां बयां करता हो। इसके जरिये ब्रांड अपनी ‘पारंपरिक’ सोच से निकल सकेंगे और उपभोक्ताओं (अगर इसे स्वीकार किया जाता है) का ज्यादा से ज्यादा हकीकत से सामना हो सकेगा। इस संदर्भ में करण जौहर की फिल्म ‘कभी अलविदा ना कहना’ को मैं ऐतिहासिक फिल्म मानता हूं। यह शुध्द व्यावसायिक फिल्म थी और इसमें एक काल्पनिक दुनिया में हकीकत को बयां किया गया है।
इसका नायक ऐसा है जो पत्नी के साथ किए गए ‘छल’ को एक तरह से वैधता प्रदान कर रहा है। साथ ही एक बुजुर्ग सुपरस्टार को अपनी पुत्रवधू से अपने बेटे को छोड़कर चले जाने को कहा जाता है। इसमें एक ऐसी महिला को दिखाया गया है, जो प्यार के लिए शादी के बंधनों से निकल जाती है। इसमें जिंदगी की हकीकत को बयां करने के साथ ही प्रगतिशील सोच और मूल्यों को भी दिखाया गया है।
उम्मीद के मुताबिक, यह फिल्म नहीं चली और इस पर खासी बहस भी हुई। क्या भारत के लोग जिंदगी को सही और गलत की अपनी परिभाषा से परे देखने के लिए तैयार हैं? और अगर हां तो किस हद तक इस पर विचार करने की जरूरत है।