वृद्धि के शिथिल रुझान को देखते हुए आवश्यकता यह है कि अर्थव्यवस्था पर ध्यान दिया जाए। ऐसे में ध्यान बंटने, विषयांतर होने और बाधाओं से बचना होगा। बता रहे हैं श्याम पोनप्पा
हालिया गिरावट के बाद भारत का आर्थिक सुधार भविष्य में बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद जगाता है। इस अपेक्षा को बढ़ाने वाले कुछ अन्य कारक भी हैं, उदाहरण के लिए बैंकों के फंसे हुए कर्ज में कमी। इस बीच कई ऐसे कारक भी हैं जिनकी बदौलत इसमें ठहराव आ सकता है।
औसत वृद्धि को सालाना 5 फीसदी तक सीमित करने वाली बाधाओं को लेकर चेतावनी कई कारकों से उभर रही है:
बैंकों का फंसा हुआ कर्ज करीब 6 फीसदी है और यह अभी भी विवेकपूर्ण मानदंड से ऊपर है। सरकारी बकाया भुगतान का अव्यवहार्य स्तर, फंसे हुए कर्ज का वह हिस्सा जिसे पहचाना नहीं गया है। ऐसी चुनावी गतिविधियां जो सामाजिक रूप से दिक्कत पैदा करने वाली हैं और वित्तीय रूप से नुकसानदेह भी हैं। महिलाओं की कम यानी लगभग 20 प्रतिशत श्रम भागीदारी। बेहतर रोजगार तक पहुंच सुनिश्चित करने के लिए उपाय बढ़ाने की आवश्यकता, फिर चाहे वह प्रवास के जरिये हो या सुदूर पहुंच के जरिये। गुणवत्ता और उत्पादन के लिए बेहतर डिजिटलीकरण जिसमें साफ और सुरक्षित डेटाबेस शामिल हो। सरकारी हस्तक्षेप जो सार्वजनिक क्षेत्र की उत्पादकता और प्रदर्शन को प्रभावित करता है।
बाहरी चुनौतियों से उत्पन्न अनिश्चितता और बाधाएं मसलन तनाव और झड़प आदि या फिर अहम आपूर्ति श्रृंखलाओं में उत्पन्न बाधा। कुछ कारक नीतियों और नियमन से परे हैं जबकि अन्य नहीं। ऐसे में सरकारी नीतियों और कदमों से वास्तव में क्या अपेक्षा की जा सकती है? 5 फीसदी की औसत वृद्धि या उससे अधिक?
सन 2016 से औसत वार्षिक वृद्धि 5.19 फीसदी रही है। इसका अर्थ यह है कि अगर अगले तीन वर्षों तक हम 8 फीसदी की वृद्धि हासिल करें तब 2016 से हासिल औसत 6.03 प्रतिशत हो पाएगा। अगर हम अगले तीन वर्षों तक सालाना 9 फीसदी की दर से वृद्धि हासिल करें तो भी इस अवधि का औसत 6.33 फीसदी ही पहुंचेगा। अगर सरकार और बाकी देश कुछ सही कदम उठाए तो औसतन 5-6 फीसदी की वृद्धि ही हासिल की जा सकती है। कहने का अर्थ यह कि अर्थव्यवस्था पर गंभीरतापूर्वक ध्यान देने की आवश्यकता है।
कई क्षेत्रों में व्यापक, अंतरसंबंधित सुधारों की आवश्यकता है। कृषि, न्यायपालिका और विवाद निस्तारण, व्यापार संरक्षण एवं शुल्क आदि ऐसे ही कुछ क्षेत्र हैं। परंतु अगर भारत को वास्तव में प्रदर्शन की अपनी कमियों को दूर करना है तो एक साधारण बुनियादी बदलाव लाने की आवश्यकता है। इसके लिए आवश्यक यह है कि सरकारी तथा सरकारी स्वामित्व वाली संस्थाएं समय पर भुगतान करने के मामले में अपना प्रदर्शन सुधारें।
यदि भुगतान समय पर हो तो उच्च वृद्धि हासिल की जा सकती है। तीन वर्ष पहले हमने इस स्तंभ में सुझाया था कि कैसे भारी बकाया फंसे हुए कर्ज की दिशा में ले जाता है और ज्यादा व्यापक ढंग से बात करें तो आखिर क्यों भुगतान अनुशासन के मामले में बुनियादी बदलाव आवश्यक है। फंसे हुए कर्ज को अस्वीकार्य बनाने के लिए काफी कुछ किया गया है लेकिन ऐसा लगता है कि सरकारी और सरकारी उपक्रमों के बकाये को एक तरह से स्वीकार कर लिया गया है। सरकारी बकाया फंसे हुए कर्ज का ही प्रतिरूप है जो सरकार के भुगतान दायित्वों को न निभा पाने को परिलक्षित करता है।
सन 2014 में दी सेंट्रल रिपोजिटरी ऑफ इन्फॉर्मेशन ऑन लार्ज क्रेडिट (सीआरआईएलसी) की स्थापना की गई थी ताकि बैंकों के ऋण और फंसे हुए कर्ज के आंकड़े एकत्रित किए जा सकें। तब तक ऐसे आंकड़े अलग-अलग स्रोत से हासिल होते थे। परंतु भुगतान बकाये और केंद्र तथा राज्य के स्तर पर सरकारी तथा सरकारी उपक्रमों के बकाये के बारे में ऐसी कोई जानकारी एक जगह नहीं मिलती। बिजली मंत्रालय का पोर्टल तथा सूक्ष्म मझोले एवं लघु उपक्रमों (एमएसएमई) का समाधान पोर्ट जरूर अपवाद हैं जो क्रमश: 2018 और 2017 से ऐसी जानकारी मुहैया करा रहे हैं। बिजली की बात करें तो जुलाई 2022 के अंत तक वितरण कंपनियों पर राज्यों की सब्सिडी का करीब 75,000 करोड़ रुपये बाकी था। जबकि बिजली उत्पादन कंपनियों तथा वितरण कंपनियों का कुल बकाया 2.5 लाख करोड़ रुपये था। एमएसएमई क्षेत्र के सरकारी बकाये की बात करें तो अक्टूबर 2021 तक के चार वर्षों में करीब एक लाख आवेदन दिए गए। अक्टूबर 2021 में एक प्रेस रिपोर्ट में कहा गया कि इस क्षेत्र का सरकार पर करीब 1.5 लाख करोड़ रुपये बकाया है।
बैंकों के फंसे हुए कर्ज की समस्या 2014-15 में हल की गई जब रिजर्व बैंक ने मौजूदा नियमन का प्रवर्तन करके बकाये का निपटान किया या उसे फंसे कर्ज के रूप में वर्गीकृत किया। अधिकांश उपक्रमों के लिए यह सजा सुनाये जाने जैसा ही था। हालांकि पुनर्गठन के बजाय ऐसा करना ज्यादा सख्त और पुरातनपंथी माना गया लेकिन बाद में जो कुछ घटा उसने इन कड़े उपायों को उपयोगी सिद्ध किया।
हालांकि कम कड़े तरीके भी संभव हैं। उदाहरण के लिए प्रभावी प्रक्रियाओं के माध्यम से फंसे हुए कर्ज का पुनर्गठन करना संभव है लेकिन ऐसा केवल व्यवहार्य परियोजनाओं के लिए किया जा सकता है। ऐसा भी नहीं है कि यह काम बिना किसी कठिनाई के हो जाएगा। मुश्किलें तो इसमें भी आएंगी। यह बैंक ऋण को फंसा हुआ कर्ज घोषित किए जाने का एक विकल्प हो सकता है। इसके बाद दिवालिया और संकटग्रस्त परिसंपत्तियों की बिक्री का विकल्प तो है ही। 2019 में इस कठोर उपाय का एक उदाहरण कई बिजली उत्पादक और वितरक कंपनियों पर नजर आया। 34 बिजली उत्पादक कंपनियां ऐसी थीं जिनके पास व्यवहार्य परियोजनाएं थीं और या तो उन पर वितरण कंपनियों का बकाया था या फिर कोयले की आपूर्ति संबंधी दिक्कतें थीं। या फिर ये कंपनियां ऋण के पुनर्गठन की प्रक्रिया में थीं। आरबीआई द्वारा 180 दिन की समय सीमा लागू करने के बाद डिफॉल्टर के रूप में वर्गीकृत होने के कारण उन्हें न्यायिक राहत लेनी पड़ी। सर्वोच्च न्यायालय ने उस आदेश यानी आरबीआई के फरवरी 2018 के परिपत्र को रद्द कर दिया जिसकी वजह से यह स्थिति बनी थी। अन्य की हालत और खराब थी। मसलन एक बड़ी निर्माण कंपनी जिसकी प्राप्तियां ऋण से अधिक थीं उसका काफी पैसा सरकारी कंपनियों के पास बकाया था और उसे इसलिए मुश्किलों का सामना करना पड़ा क्योंकि वह अपना कर्ज नहीं चुका सका।
सरकारी बकाये की बात करें तो बेहतर होगा इसके लिए एक विश्वसनीय, अच्छी तरह आकलित और व्यवस्थित प्रक्रिया तैयार की जाए जिसमें समुचित निगरानी और जुर्माने की भी व्यवस्था हो। यदि संभव हो तो कड़े कदमों से बचा जाना चाहिए। इसी प्रकार फंसे कर्ज में परिवर्तित बैंक ऋण के लिए भी प्रक्रियाएं और व्यवस्था तैयार करनी चाहिए।
परिचालन मानकों में बुनियादी बदलाव भी जरूरी है ताकि समय पर भुगतान किया जा सके। इस क्रम में जुर्माने और सख्त प्रवर्तन आदि को अपनाया जा सकता है। केंद्र और राज्य सरकारों को शासन के जरूरी पहलुओं को लेकर नेतृत्व करना चाहिए। केवल समय पर नकदी हासिल करने से शायद हम 5 फीसदी वार्षिक औसत की तुलना में कहीं अधिक तेजी से विकास कर सकें।