राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएचएफएस-5) में भविष्य के उस नीति निर्माण की दिशा छिपी हुई है जिसे अगर सही तरीके से पढ़ा जाए तो भारत को जनांकीय अवसरों का अधिकतम लाभ लेने में मदद मिल सकती है। एक सुर्खी तो यह है कि देश में पहली बार 1,000 पुरुषों पर महिलाओं का अनुपात 1,020 हो गया है। पिछले रुझानों में यह सुधार एक सुखद खबर है। सन 2005-06 के एनएचएफएस में अनुपात लगभग बराबर था लेकिन 2015-16 के एनएचएफएस में यह घटकर 1,000 पुरुषों पर 991 महिलाओं का रह गया। यह वह अवधि थी जब भारत में समृद्धि तेजी से बढ़ रही थी। जन्म के समय लिंगानुपात में मामूली सुधार हुआ है और यह पिछले सर्वेक्षण के 919:1,000 से बढ़कर 929: 1,000 हो गया है। हालांकि यह जन्म के समय के 952 के प्राकृतिक लिंगानुपात से अभी भी कम है। बहरहाल इससे यह संकेत तो निकलता ही है कि भारत में अभी भी पुत्र के जन्म से जुड़ा सामाजिक पूर्र्वग्रह दूर होने में कुछ समय लगेगा। दीर्घकालिक नजरिये से देखें तो जनांकीय बदलाव कुल प्रजनन दर (टीएफआर) के गिरकर 2 रह जाने में देखा जा सकता है। यह दर 2.1 फीसदी की प्रतिस्थापन दर से कम है और इसे चिंता का विषय होना चाहिए क्योंकि इससे यही संकेत निकलता है कि भारत अनुमान से अधिक तेजी से बूढ़ा हो रहा है। 15 वर्ष से कम आयु वाली आबादी का अनुपात एनएचएफएस 2005-06 के 35 फीसदी से घटकर ताजा सर्वेक्षण में 25.5 फीसदी रह गया है।
ये व्यापक निष्कर्ष दो सवाल पैदा करते हैं। पहला यह कि आंकड़ों को अलग-अलग करके देखने पर विभिन्न प्रकार के विभाजन साफ नजर आते हैं। शहरी और ग्रामीण विभाजन एकदम स्पष्ट है और शहरी इलाकों में टीएफआर 1.6 जबकि ग्रामीण इलाकों में 2.1 है। दूसरा विभाजन है उत्तर और दक्षिण का। विंध्य की पहाडिय़ों के उत्तर में स्थित अधिकांश राज्यों के लिंगानुपात में महिलाओं की तादाद पुरुषों से कम है। ऐसे में यह तस्वीर बनती है कि उत्तर में युवा और पुरुषों के दबदबे वाला समाज है जबकि दक्षिण और पूर्वोत्तर में तुलनात्मक रूप से ऐसा नहीं है। इसके चिंताजनक चुनावी और आर्थिक निहितार्थ हैं। 15वें वित्त आयोग के अधिकार क्षेत्र में इनमें से कुछ तनाव उस समय नजर आए जब आयोग ने राज्यों के जनांकीय प्रदर्शन को हस्तांतरण का मानक माना। दूसरा, प्रजनन के क्षेत्र में प्रगति के बाद स्वास्थ्य, शिक्षा तथा पानी जैसी सामाजिक बुनियादी सेवाओं में सुधार और अधिक जरूरी हो गया है। इस संदर्भ में देश की आबादी की खराब सेहत, खासकर बच्चों की खराब सेहत चिंतित करने वाली है।
आबादी में कम वजन वाले स्त्री-पुरुषों की तादाद कम हुई है लेकिन मोटे और खून की कमी के शिकार लोगों की हिस्सेदारी बढ़ी है। पहले के सर्वेक्षणों की तरह ही इस बार भी खून की कमी की शिकार महिलाओं की तादाद पुरुषों से अधिक है लेकिन ताजा सर्वेक्षण में ऐसे स्त्री-पुरुष दोनों बढ़े हैं। बच्चों में अल्पपोषण में कमी की गति भी धीमी हुई है। सन 2005-06 और 2015-16 के सर्वेक्षणों के बीच पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों में ठिगनापन 10 फीसदी की गति से घटा था लेकिन ताजा सर्वेक्षण में यह गति केवल तीन फीसदी रह गई है। शिशु मृत्युदर के मामले में भी रुझान ऐसा ही है। ये नतीजे स्वच्छ ईंधन, सफाई, बैंक खातों और महिलाओं द्वारा साफ-सुथरे उत्पादों का प्रयोग करने वाले परिवारों की तादाद में बढ़ोतरी के विपरीत हैं। ये शायद इस बात के सूचक हैं कि स्वच्छता की पहुंच तथा अन्य कल्याण योजनाओं और उनके दायरे में विस्तार की अपनी सीमा हैं। नई योजनाओं की सिलसिलेवार घोषणाएं करने से बेहतर यही होगा कि पहले से मौजूद योजनाओं की क्षमता को अधिक से अधिक बढ़ाने को प्राथमिकता दी जाए।
