भारत की वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) परिषद ने 3 सितंबर को एक बैठक में इस कर प्रणाली में सरलीकरण के लिए 2017 के बाद का सबसे बड़ा बदलाव पेश किया। यह बदलाव 22 सितंबर से प्रभावी हो जाएगा और इसके कारण देश में दो प्रमुख कर स्लैब 5 फीसदी और 18 फीसदी होंगे। नई कर व्यवस्था के तहत अनाज और ताजे उत्पादों जैसी कई आवश्यक वस्तुओं को पूरी तरह से छूट दी जाएगी, जबकि सैकड़ों अन्य सामान को निचले स्लैब में रखा गया है।
क्या ये बदलाव भारतीय उपभोक्ताओं और अर्थव्यवस्था के लिए फायदेमंद होंगे? सैद्धांतिक रूप में देखें तो निचले स्तर की अप्रत्यक्ष करों में कमी से मांग बढ़नी चाहिए। व्यक्तिगत अंतिम उपभोग व्यय (पीएफसीई), सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि में 60 फीसदी का योगदान देता है, ऐसे में उपभोग में वृद्धि से जीडीपी भी बढ़नी चाहिए।
हालांकि, व्यावहारिक तौर पर ये कटौती लगभग 11 फीसदी खपत को ही प्रभावित करेगी, जिसमें मुख्य रूप से प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थ और उपभोक्ता टिकाऊ वस्तुएं 12 फीसदी या 28 फीसदी से नीचे के स्लैब में चली जाएंगी। एक अनुमान के अनुसार, इस कदम से खर्च में 0.7 लाख करोड़ रुपये से 1 लाख करोड़ रुपये तक की वृद्धि होगी। यह वृद्धि, वित्त वर्ष 2026 की दूसरी छमाही में दिखेगी। लेकिन यह वृद्धि एक सांख्यिकीय पूर्णांक से ज्यादा कुछ नहीं है।
किसी भी नीति के प्रभाव का आकलन करने का एक सबसे अच्छा तरीका यह है कि उन कंपनियों के शेयर की कीमतों पर पड़ने वाले प्रभाव को देखा जाए जिन्हें कथित तौर पर फायदा होना चाहिए। बाजार के पास जीएसटी कटौती के प्रभाव का आकलन करने के लिए दो पूरे दिन थे लेकिन बाजार का प्रमुख सूचकांक, निफ्टी, बुधवार 3 सितंबर को 24,715 के स्तर पर बंद हुआ और इसके बाद शुक्रवार 5 सितंबर को मुश्किल से 24,741 के स्तर तक ही बढ़ पाया।
नेस्ले की शेयर कीमतें सपाट स्तर पर रहीं जबकि हिंदुस्तान यूनिलीवर के शेयर में गिरावट देखी गई। इसके अलावा टिकाऊ उपभोक्ता वस्तुएं बनाने वाली कंपनियों में वोल्टास से लेकर व्हर्लपूल तक किसी को कोई फायदा नहीं हुआ। केवल कार निर्माताओं, विशेष रूप से मारुति और ह्यूंदै ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 15 अगस्त के भाषण के बाद से मिली बढ़त को बनाए रखा है।
जीएसटी दर कटौती के दो मुख्य उद्देश्य थे: पहला, ‘टैक्स आतंकवाद’ (जीएसटी, टोल, उपकर और अन्य करों) के बारे में सोशल मीडिया पर हो रही आलोचना के बीच वृद्धि को बढ़ावा देना। दूसरा, 27 अगस्त को डॉनल्ड ट्रंप के द्वारा लागू किए गए 50 फीसदी टैरिफ का मुकाबला करना। विचार यह था कि जब निर्यात प्रभावित होने लगे तब घरेलू मांग पर निर्भरता बढ़ाई जाए। लेकिन जीएसटी 2.0 इन दोनों में से कोई भी उद्देश्य पूरा नहीं कर पाएगा।
भारत के निर्यात क्षेत्र को लग रहे झटके का मुकाबला, प्रभावित उद्योगों के लिए लक्षित कदम उठा कर किया जा सकता है जो भले ही अस्थायी हों लेकिन इससे समग्र खपत में वृद्धि हो सकती है। इसके अलावा, उपभोग को पहले से ही जीडीपी के 60 फीसदी के स्तर से ऊपर उठाना बहुत मुश्किल है, जिसके लिए और अधिक कर कटौती की आवश्यकता होगी जो सरकार वहन नहीं कर सकती।
आखिरकार, इस सरकार की मुख्य आर्थिक रणनीति, भारी कर लगाकर उसे बुनियादी ढांचे, रेलवे, रक्षा और सामाजिक योजनाओं पर खर्च करना रहा है। साथ ही, उपभोग का बहुत बड़ा हिस्सा चीन से आयात के माध्यम से विदेश में चला जाता है।
उच्च स्तर की जीडीपी वृद्धि, अधिक वेतन और अधिक खपत के चक्र का उत्तर वास्तव में दशकों तक निर्यात में तेजी सुनिश्चित करना है। यह स्पष्ट समाधान 1950 से 1980 के दशक के बीच जापान, ताइवान, दक्षिण कोरिया और सिंगापुर को समृद्धि की राह पर ले गया, जिससे गरीब किसान अमीर उपभोक्ता बन गए और उसके बाद थाईलैंड और मलेशिया भी इसी राह पर चले।
चीन ने 1990 के दशक में इसे अपनाया और इसे तेजी दी। आज, वैश्विक विनिर्माण क्षमता का 30 फीसदी चीन में है जो बड़े पैमाने पर निर्यात-आधारित है। यह बात हैरान करने वाली है कि शिक्षित और अंग्रेजी बोलने वाले लोगों के एक बड़े समूह और पड़ोसी देशी में सफलता के बावजूद, भारत ने निर्यात को कभी भी अपना प्रमुख राष्ट्रीय मिशन नहीं बनाया। यहां तक कि नरेंद्र मोदी सरकार के अंतर्गत भी यह प्रमुख लक्ष्य नहीं है जो हाल के दशकों में अर्थव्यवस्था के लिहाज से सबसे अधिक सक्रिय नेतृत्वकर्ता हैं।
जब ट्रंप के टैरिफ ने दुनिया को परेशान करना शुरू किया तब पूर्वी एशियाई देश और चीन अपनी निर्यात-उन्मुख अर्थव्यवस्थाओं के कारण विशेष रूप से कमजोर लग रहे थे और भारत ज्यादा सुरक्षित लग रहा था। हालांकि विडंबना यह है कि पूर्वी एशिया ने अपने बाजारों की रक्षा के लिए तुरंत करार कर लिए। इसके विपरीत, भारत अब 50 फीसदी शुल्क का सामना कर रहा है।
कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि भारत को पूर्वी एशियाई देशों की नकल करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए क्योंकि वह मौका अब चला गया है। हालांकि यह बातें निरर्थक हैं। यह मॉडल इसलिए टिका हुआ है क्योंकि समृद्धि खुद प्रतिस्पर्धात्मकता को नया रूप देती है। जब देश समृद्ध होते हैं, तब मजदूरी बढ़ती है और श्रम पर आधारित कारोबार उतने प्रतिस्पर्धी नहीं रह पाते हैं। इन कारोबारों को फिर निर्यात के लिए कम मजदूरी वाले अन्य देश अपनाते हैं।
जापान ने कपड़ों के कारोबार को कोरिया, फिर चीन को सौंप दिया, जो अब उन्हें बांग्लादेश और वियतनाम में हस्तांतरित कर रहा है। सीढ़ी का प्रत्येक पायदान नीचे की जगह खाली करता जाता है। वास्तव में, भारत दोनों ही सिरों पर प्रतिस्पर्धी हो सकता है। एक तरफ, यह वस्त्रों, इस्पात, जूते, प्लास्टिक आदि जैसी कम-मूल्य वाली वस्तुओं का एक बड़ा निर्यातक हो सकता है।
वहीं दूसरी तरफ, भारत रसायनों का एक प्रमुख निर्यातक और फार्मास्यूटिकल क्षेत्र में एक बड़ा शक्ति केंद्र बन सकता है। सभी चीजें मौजूद हैं लेकिन इसे समर्पित, केंद्रित और लक्ष्य वाले कदमों की आवश्यकता है, ठीक वही जो ताइवान, दक्षिण कोरिया और चीन के उभार को समर्थन देने वाले लक्ष्य थे। 10 वर्षों में भारत एक निर्यात वाली महाशक्ति बन सकता है। शांघाई सहयोग संगठन (एससीओ) शिखर सम्मेलन में हाल में मोदी ने शी चिनफिंग के साथ एक तस्वीर खिंचाई जो अमेरिका के प्रति चुनौती का भाव दर्शा रही थी। इसको लेकर कई भारतीयों को गर्व हुआ लेकिन किसी का विरोध करना या चुनौती देना शक्ति नहीं है।
चीन का प्रभाव दशकों से प्रौद्योगिकी, बड़े पैमाने पर उत्पादन और निर्यात में निरंतर निवेश पर टिका है। भारत विदेश में अपनी भाव भंगिमा और नारों से सम्मान नहीं हासिल करेगा बल्कि यह घरेलू स्तर पर गुणवत्ता वाले उत्पादों का उत्पादन करने वाले बड़े कारखानों के माध्यम से जीत हासिल करेगा।
(लेखक मनीलाइफडॉटइन के संपादक और मनीलाइफ फाउंडेशन में ट्रस्टी हैं)