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सरकार को टिकाऊ सुधारों के लिए श्रम संहिता तुरंत लागू करनी चाहिए

श्रम संगठनों को उनका समर्थन और उद्योगों को उनका आदर करना चाहिए। बता रहे हैं लवीश भंडारी

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लवीश भंडारी   
Last Updated- November 18, 2025 | 11:07 PM IST

भारत में वेतन वृद्धि उतनी अधिक क्यों नहीं है जितनी होनी चाहिए? चाहे किसी संगठित क्षेत्र के औद्योगिक प्रतिष्ठान में काम करने वाला कामगार हो या असंगठित क्षेत्र का मजदूर, वेतन मुश्किल से इतना बढ़ता है कि महंगाई के साथ तालमेल बना सके। दुर्भाग्यवश, कुछ ही शोधकर्ताओं ने इस मुद्दे को गहराई से समझने की कोशिश की है, और व्यापक सहमति यह है कि इसका मुख्य कारण कमजोर कौशल है। कमजोर कौशल इसलिए है क्योंकि बुनियादी शिक्षा अपर्याप्त है और कुशल सेवाओं की आपूर्ति सही नहीं है। ये सभी बातें सही हो सकती हैं लेकिन यह इकलौता मुद्दा नहीं हो सकता।

पहली बात, सभी राज्यों में बुनियादी शिक्षा की गुणवत्ता खराब नहीं है। केरल, तमिलनाडु और हिमाचल प्रदेश कुछ जाने माने उदाहरण हैं लेकिन ये इकलौते उदाहरण नहीं हैं। इतना ही नहीं अन्य राज्यों में भी कई निजी और सरकारी स्कूल ऐसे हैं जहां बुनियादी शिक्षा काफी अच्छी है। इसके अलावा अगर कोई व्यक्ति अच्छी बुनियादी शिक्षा पाता है तो कुछ ही महीनों में वह विनिर्माण क्षेत्र के लिए जरूरी कौशल सीख जाएगा। दूसरे शब्दों में कौशल और शिक्षा बाधा हैं लेकिन बहुत अहम नहीं। कुछ और भी है जो भारतीय विनिर्माण को प्रभावित कर रहा है।

श्रम कानून एक और चुनौती हैं, और इनके विरुद्ध दो व्यापक प्रकार की आलोचनाएं की जाती हैं। पहली आलोचना यह है कि कानून और भारतीय उद्योग कामगारों को पर्याप्त लाभ, सुरक्षा, संरक्षा या सहयोग प्रदान नहीं करते। दूसरी आलोचना श्रम कानूनों की पुरातन प्रकृति, अडि़यल यूनियनों और बाधक श्रम विभागों से जुड़ी है, और वह यह कि किसी उद्योग के लिए असंगठित क्षेत्र में बने रहना या अस्थायी श्रमिकों को नियुक्त करना बेहतर है।

लेकिन मैं एक और अधिक महत्त्वपूर्ण तत्व प्रस्तुत करना चाहूंगा जिसके लिए वर्तमान श्रम कानून बनाए ही नहीं गए हैं। बीसवीं सदी के शुरुआती और मध्य काल में जब अधिकांश श्रम कानून बनाए गए थे, तब से अब तक विनिर्माण के वातावरण में भारी बदलाव आ चुका है। यह बदलाव केवल समयोचित विनिर्माण, उच्च-सटीकता के साथ उत्पादन या रोबोटिक विनिर्माण तक ही सीमित नहीं रहेगा।

उदाहरण के लिए जैसे ‘क्विक कॉमर्स’ के मामले में हुआ है, वैसे ही अब हम ‘क्विक रिस्पॉन्स मैन्युफैक्चरिंग (क्यूआरएम)’ का उदय देख रहे हैं, जो छोटे बैच में अनुकूलित उत्पाद तैयार करता है। नई अर्थव्यवस्था में विनिर्माण को तेजी से बदलती मांग को पूरा करने के लिए लचीली उत्पादन प्रक्रियाओं की आवश्यकता है। साथ ही आज की बड़ी फैक्टरियां अब कुछ सौ कामगारों तक सीमित नहीं हैं बल्कि इनमें संख्या कई हजार तक पहुंच चुकी है (कुछ में तो संख्या दो लाख-तीन लाख तक भी पहुंच जाती हैं)। इसलिए शॉपफ्लोर प्रबंधन कहीं अधिक जटिल होता जा रहा है।

श्रमिकों को काम बदलने, उत्पादन लाइनों के बीच स्थानांतरित होने और मांग की परिस्थितियों के अनुसार अपने कार्य समय में भी बदलाव करने की आवश्यकता होगी। श्रमिकों की निगरानी का तरीका भी बदल रहा है, और प्रयास तथा उत्पादन की पहचान सामूहिक स्तर से हटकर व्यक्तिगत श्रमिक के स्तर पर आ रही है, जिससे कार्य और पुरस्कार का आवंटन व्यक्तिगत आधार पर संभव हो रहा है।

उद्योग को श्रमिकों से अलग ढंग से व्यवहार करना होगा। प्रत्येक श्रमिक केवल मशीन का एक खांचा नहीं होगा, बल्कि एक सक्रिय सहभागी होगा जो लचीली और परिवर्तनीय, यहां तक कि अप्रत्याशित, उत्पादन प्रक्रिया की जिम्मेदारी लेगा। यूनियनों की भूमिका भी निश्चित रूप से बदलनी होगी। संरक्षक के बजाय सक्षम बनाने वाली। भविष्य के औद्योगिक संबंध वर्तमान में चल रहे संबंधों से बिल्कुल अलग होंगे।

उद्योग जगत को जहां कर्मचारियों को बेहतर अधिकार संपन्न बनाने की जरूरत है वहीं श्रम संगठनों को भी चाहिए कि कामगारों को अधिक स्वायत्तता मिले। सबसे अहम बात यह है कि काम के हालात से संबंधित कानूनों में भी उसी अनुरूप बदलाव लाना होगा। हम जिस दुनिया में हैं वहां बदलाव को श्रम कानूनों की व्यवस्था का हिस्सा बनाना होगा। यह बदलाव एक झटके में नहीं आएगा बल्कि इसकी प्रक्रिया निरंतरता वाली होनी चाहिए। लेकिन अगर भारत ने अपने तौर-तरीके नहीं बदले तो यह सब सपना ही रह जाएगा। श्रम संहिताओं का उदाहरण लें तो बदकिस्मती से यह स्पष्ट नहीं है कि संसद से मंजूर कानूनों को
पांच साल बाद भी लागू क्यों नहीं किया जा सका।

जो लोग इससे परिचित नहीं हैं, उनके लिए बता दें कि केंद्र सरकार ने वर्ष 2019 और 2020 के बीच चार श्रम संहिताएं प्रस्तुत कीं। वेतन, सामाजिक सुरक्षा, औद्योगिक संबंध, तथा सुरक्षा और कार्य परिस्थितियों पर। ये संहिताएं 29 कानूनों को एक सरल और एकीकृत ढांचे के अंतर्गत प्रतिस्थापित करती हैं। लेकिन पारित होने के बावजूद, सरकार ने इन्हें लागू करने से परहेज किया है, संभवतः उद्योग और यूनियनों के विरोध के कारण ऐसा किया गया।

यह तथ्य उम्मीद पैदा करता है कि एक ढांचा तो बनाया गया है। ये संहिताएं एक ऐसी सुसंगतता लाती हैं जो आने वाले वर्षों में सरकारों, यूनियनों और उद्योग के बीच बेहतर सहयोगात्मक समाधानों को संभव बनाएगी। इसके अलावा, संहिताएं पहले की तुलना में बेहतर भी हैं। एक तो यह कि वे अधिक समावेशी हैं। गिग और प्लेटफॉर्म कामगारों, महिलाओं, असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों, प्रवासी श्रमिकों आदि के लिए सामाजिक सुरक्षा लाभ, न्यूनतम वेतन और कार्यस्थल सुरक्षा जैसे विभिन्न तत्वों में कवरेज अधिक स्पष्ट हो गया है। उद्योग के कुछ लोग इसे पसंद न करें, लेकिन सच्चाई यह है कि एक अच्छा श्रम कानून ढांचा ऐसा होना चाहिए जिसमें सभी शामिल हो सकें।

साथ ही, अनुपालन को सरल बनाया गया है, व्यापार में आसानी के लिए डिजिटल तंत्र लाए गए हैं, और आपराधिक दंडों में कमी की गई है। यह उद्योग के लिए अधिक सहायक होगा और कुछ यूनियनों को शायद यह पसंद न आए। श्रमिकों के पुनर्गठन पर अधिक लचीलापन देने की सीमा 100 से बढ़ाकर 300 कर दी गई है, लेकिन इस पर किसी को चिंतित होने की आवश्यकता नहीं है। सच्चाई यह है कि कई राज्य मसलन गुजरात, झारखंड, मध्य प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र और असम आदि पहले से ही 300 की सीमा का पालन कर रहे हैं। इस अर्थ में राष्ट्रीय स्तर पर संहिता केवल वही दोहरा रही है जो विनिर्माण वाले प्रमुख राज्यों में पहले से किया जा रहा है।

तो बात यह है कि बदलाव की प्रक्रिया शुरू होन चाहिए। उद्योग या श्रम संगठनों को कुछ तत्व पसंद न आएं, यह स्वाभाविक है। इसलिए सरकार को इन संहिताओं के लागू होने के बाद आगे सुधारों पर एक सतत और स्वाभाविक परामर्श प्रक्रिया की घोषणा करनी चाहिए। इसके साथ ही संगठनों और उद्योगों को सरकार के साथ मिलकर आगे के सुधारों पर काम करना होगा। इनमें शामिल होंगे, श्रमिकों को कार्य और स्थान आवंटन में लचीलापन देना, कठोर बोनस प्रणाली की बजाय एक परिवर्तनीय पुरस्कार तंत्र लागू करना। नौकरी न सही कम-से-कम श्रमिकों की खपत की अधिक सुरक्षा करना, कार्यस्थल पर कौशल-वृद्धि के लिए उद्योग की अधिक जवाबदेही सुनिश्चित करना, और जैसा कि थिंक टैंक ‘प्रॉस्पेरिटी’ ने दिखाया है, काम के घंटों की व्यवस्था और ओवरटाइम नियमों में बदलाव करना आदि नई अर्थव्यवस्था के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं।

संहिताएं पूर्ण नहीं हैं और इनमें सुधार की काफी गुंजाइश है, लेकिन बदलाव को लागू न करना देश के युवाओं, विनिर्माण क्षेत्र की वृद्धि, आर्थिक सुरक्षा और हमारी वैश्विक विनिर्माण आकांक्षाओं के लिए हानिकारक है। सरकार को श्रम संहिताओं को तुरंत लागू करना चाहिए, यूनियनों को उनका समर्थन करना चाहिए, उद्योग को उनका सम्मान करना चाहिए, और सभी को निरंतर आधार पर इन्हें बेहतर बनाने के लिए सहमत होना चाहिए।


(लेखक सीएसईपी रिसर्च फाउंडेशन के प्रमुख हैं। ये उनके निजी विचार हैं)

First Published : November 18, 2025 | 9:48 PM IST