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क्या इंश्योरेंस लेने के बाद होने वाली बीमारी क्लेम या रिन्यूअल को प्रभावित करती है? आसान भाषा में समझें

मटीरियल चेंज क्लॉज कैसे काम करता है, नई जानकारी प्रीमियम बढ़ा सकती है या क्लेम और रिन्यूअल शर्तों को प्रभावित कर सकती है या नहीं — इसे आसान भाषा में एक्सपर्ट्स ने समझाया है

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अमित कुमार   
Last Updated- November 18, 2025 | 6:04 PM IST

हेल्थ इंश्योरेंस का रिन्यूअल आमतौर पर एक आसान प्रक्रिया होती है। यहां सीधा फंडा होता है कि प्रीमियम भरिए और पॉलिसी चलती रहती है। लेकिन अब कई इंश्योरेंस कंपनियां इसमें ‘मटीरियल चेंज’ नाम का क्लॉज जोड़ रही हैं, जिसमें ग्राहकों से हर साल नई बीमारी या किसी लाइफस्टाइल बदलाव की जानकारी देने को कहा जाता है।

इसके चलते कई पॉलिसीहोल्डर्स परेशान हैं कि क्या कंपनियां इन खुलासों के आधार पर प्रीमियम बढ़ा सकती हैं, नई एक्सक्लूजन जोड़ सकती हैं या क्लेम खारिज कर सकती हैं? एक्सपर्ट बताते हैं कि यह क्लॉज असल में है क्या और IRDA के नियमों के हिसाब से आपके पास क्या अधिकार हैं।

‘मटीरियल चेंज’ क्लॉज का मतलब क्या है?

यह क्लॉज ग्राहकों से कहता है कि हेल्थ या लाइफस्टाइल से जुड़े किसी बड़े बदलाव की जानकारी रिन्यूअल के समय कंपनी को दें।

इंश्योरेंस ब्रोकर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया (IBAI) के एक्सपर्ट हरी राधाकृष्णन बताते हैं कि कंपनियां उम्मीद करती हैं कि पॉलिसीहोल्डर ‘हर रिन्यूअल पर किसी भी बड़े जोखिम बदलाव की जानकारी लिखित में दें।’
लेकिन वे जोर देकर कहते हैं कि IRDA लाइफटाइम रिन्यूएबिलिटी की गारंटी देता है, क्लेम-बेस्ड लोडिंग को मना करता है और कंपनियों को रिन्यूअल पर दोबारा अंडरराइटिंग करने की अनुमति नहीं है।

द हेल्दी इंडियन प्रोजेक्ट (THIP) की जनरल मैनेजर अंकिता श्रीवास्तव कहती हैं कि यह क्लॉज इसलिए रखा जाता है ताकि पॉलिसी ‘फेयर, पारदर्शी और सही प्राइसिंग’ पर चलती रहे, क्योंकि नए हेल्थ रिस्क पूरे प्राइसिंग पूल को प्रभावित करते हैं।

क्या जानकारी न देने पर क्लेम रिजेक्ट हो सकता है?

इसको लेकर श्रीवास्तव ने एक इंडस्ट्री केस का उदाहरण दिया: एक ग्राहक को पॉलिसी के दौरान थायरॉइड की दिक्कत हुई, लेकिन उसने रिन्यूअल के समय यह बात मामूली समझकर नहीं बताई। बाद में जब उसने इसी बीमारी से जुड़ा क्लेम किया, तो कंपनी ने उसकी लॉन्ग-टर्म दवाइयों का हवाला देते हुए क्लेम का कुछ हिस्सा रिजेक्ट कर दिया।

लेकिन राधाकृष्णन कहते हैं कि IRDA का नियम कहता है कि ‘पॉलिसी लेने के बाद हुई बीमारी, यदि पॉलिसी बिना गैप के रिन्यू होती रही है, तो उसे कवर किया जाना चाहिए।’ उन्होंने कहा कि इसको लेकर नए वेटिंग पीरियड नहीं लगाए जा सकते और सिर्फ न बताने के आधार पर क्लेम खारिज नहीं किया जा सकता।

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जूनो जनरल इंश्योरेंस के CTO नितिन देव भी यही कहते हैं कि न बताने के कारण क्लेम रिजेक्ट नहीं किया जा सकता, ‘जब तक कि धोखाधड़ी या जानबूझकर गलत जानकारी साबित न हो।’

क्या कंपनियां इस क्लॉज के बहाने प्रीमियम बढ़ा सकती हैं?

तीनों एक्सपर्ट इस पर एकमत हैं कि कंपनियां ऐसा नहीं कर सकतीं, खासकर इंडिविजुअल पॉलिसीहोल्डर्स के लिए। देव बताते हैं कि कंपनियां रिन्यूअल के समय प्रीमियम बदल नहीं सकतीं, जब तक कि यह बदलाव सभी ग्राहकों पर लागू होने वाली IRDA-अप्रूव्ड प्रोडक्ट फाइलिंग के तहत न हो। उन्होंने कहा “नई अंडरराइटिंग तभी हो सकती है जब ग्राहक सम-इंश्योर्ड बढ़ाने की मांग करे।”

राधाकृष्णन कहते हैं कि यह क्लॉज कई पॉलिसियों में मौजूद है, लेकिन ‘नकारात्मक प्रतिक्रिया की वजह से कंपनियां इसे लागू करने से बचती हैं।’

रिन्यूअल के समय पॉलिसीहोल्डर्स क्या करें?

इसको लेकर सुझाव अलग-अलग हैं, लेकिन सभी का कहना है कि सावधानी और स्पष्टता रखना चाहिए। श्रीवास्तव का मानना है कि ग्राहकों को पूरी ईमानदारी से सारी जानकारी देनी चाहिए। ज्यादातर मामलों में छोटी-मोटी अपडेट से प्रीमियम नहीं बढ़ता, लेकिन छिपाने से समस्या बढ़ सकती है।

हांलांकि, राधाकृष्णन थोड़ा सतर्क रुख अपनाते हैं। वह कहते हैं, “ग्राहक पहले यह पूछे कि यह जानकारी किस उद्देश्य से मांगी जा रही है। यदि इससे कोई फायदा, डिस्काउंट या बेहतर बेनिफिट नहीं मिल रहा, तो ज्यादा जानकारी देने की जरूरत नहीं है। किसी भी तरह की समस्या हो तो ‘बीमा भरोसा’ या ओम्बड्समैन तक मामले को ले जाएं।”

देव स्पष्ट बताते हैं कि IRDA के नियमों के मुताबिक, ग्राहक को हर रिन्यूअल पर नई बीमारी बताना जरूरी नहीं है, जब तक वह सम-इंश्योर्ड बढ़ाने की मांग न करे।

First Published : November 18, 2025 | 6:04 PM IST