वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के बजट भाषण में यह ध्वनि निहित थी कि सरकारी क्षेत्र, नेहरू के दौर की पारंपरिक अर्थव्यवस्था को त्यागेगा और निजी क्षेत्र उसकी जगह लेगा। सरकारी उपक्रमों में सरकार की न्यूनतम उपस्थिति और निजी क्षेत्र के निवेश के लिए माहौल तैयार करने को लेकर उन्होंने जो भी बातें कहीं, उनका सार यही है। उनके मुताबिक विभिन्न क्षेत्रों को रणनीतिक तथा गैर-रणनीतिक क्षेत्रों में विभाजित किया जाएगा और यह सुनिश्चित किया जाएगा कि रणनीतिक क्षेत्रों में सरकारी मौजूदगी न्यूनतम हो।
यदि इस नीति का अनुसरण किया जाता है तो राष्ट्रीय परिसंपत्ति और संपदा बहुत बड़े पैमाने पर निजी क्षेत्र के पास चली जाएगी। जब विपक्ष ने आरोप लगाया कि सरकार अपनी ही परिसंपत्ति बेचकर धन जुटा रही है तो सीतारमण ने स्पष्टीकरण देते हुए कहा कि सरकार की नीति दरअसल उन्हें मजबूत बनाने की है।
भले ही उपरोक्त दलील पुरानी हो चुकी हो लेकिन सरकारी परिसंपत्तियों को निजी क्षेत्र को सौंपने पर संदेह जताना पूरी तरह वैध है। यह सही है कि सरकारी क्षेत्र के नियंत्रण में देश आर्थिक महाशक्ति नहीं बन सका है लेकिन सवाल यह भी है कि क्या निजी क्षेत्र यह कारनामा कर सकेगा?
हालिया अतीत की बात करें तो तथ्य बहुत उत्साहित करने वाले नहीं हैं। भारत को विश्वस्तरीय बनाने की संभावना से जुड़े तमाम उत्साह से परे यह कहना उचित होगा कि उदारीकरण के शुरुआती वादे व्यापक पैमाने पर पूरे नहीं हो सके हैं। खासतौर पर तब जब हम उन्हें नवाचार, रोजगार और शासन की तीन कसौटियों पर कस कर देखते हैं।
भारत को वैश्विक मानचित्र पर स्थापित करने वाली आईटी और आईटीईएस क्रांति के पीछे कम मूल्य वाली सेवाएं वजह थीं। विश्व कप फुटबॉल या टेनिस के ग्रैंड स्लैम टूर्नामेंट के स्टेडियमों में आईटी सेवा प्रदाताओं के रूप में इन्फोसिस का नाम चमकते हुए देखना रोमांचित करता है लेकिन ये छोटी उपलब्धियां हैं और हमें यह भूलने की आवश्यकता नहीं है कि घरेलू आईटी उद्योग वैश्विक नवाचारों का केंद्र नहीं है।
नवाचार से जुड़ी बात कई यूनिकॉर्न (ऐसी स्टार्टअप जिनका मूल्य 100 करोड़ डॉलर से अधिक है) पर भी लागू होती है जो महामारी के दौरान भी उभरे। कारोबार तैयार करने के लिए व्यापक निजी पूंजी निवेश आकर्षित करने की बात करें तो शिक्षा सेवा या ऑनलाइन भुगतान जैसे क्षेत्रों में ऐसे कारोबार उद्यमियों की परिचालन क्षमताओं का ही प्रमाण हैं। भारत जैसे देश में यह कोई छोटी उपलब्धि नहीं है। क्योंकि यहां कारोबारी माहौल अपेक्षाकृत आपाधापी वाला है।
जहां तक उद्योग जगत की नवाचारी क्षमता की बात है, यहां एक छोटी सी तुलना प्रस्तुत है। जापान ने दुनिया को लागत कम करने के क्षेत्र में काइजेन और उत्पादन नीति प्रबंधन के क्षेत्र में जस्ट इन टाइम जैसी विश्वस्तरीय अवधारणाएं पेश कीं। ये अवधारणाएं दुनिया के तमाम बड़े निर्माताओं के लिए मानक बन चुके हैं। भारत में ऐसा कुछ खास नहीं हुआ। भारत के निजी क्षेत्र को भी बड़ा रोजगार उत्पादक नहीं माना जा सकता। देश के जीडीपी में आईटी और आईटीईएस उद्योग की हिस्सेदारी 8 फीसदी है लेकिन इसमें 40 लाख से कुछ अधिक लोग रोजगार शुदा हैं। 40 करोड़ कामकाजी लोगों के बाजार में यह बहुत छोटा आंकड़ा है। यह सही है कि निजी क्षेत्र ने रोजगार निर्माण के क्षेत्र में सरकारी क्षेत्र को पछाड़ दिया है। लेकिन हमारे यहां इन कारोबारों का परिचालन रोजगार की स्थिति को उस तरह नहीं बदल पाया है जिस तरह चीन ने किया है। वहां कारोबारी औद्योगिक संघों की बैठकों में मित्रवत वार्ताएं नहीं करते, वे प्रधानमंत्री की सलाहकार संस्थाओं में भी नहीं नजर आते। इसके बजाय छोटी और मझोली कंपनियां वहां इतनी बड़ी तादाद में हैं जहां भारतीय उपक्रमों को अभी पहुंचना है।
यदि निजी कारोबारियों को सरकारी उपक्रमों पर काबिज होने दिया गया तो उनके कर्मचारियों की तादाद में भारी कमी अवश्य आ सकती है। चूंकि बड़ी तादाद में कर्मचारियों से निपटना पुरानी समस्या है तो किसी भी आधुनिक उपक्रम में जाकर आसानी से यह देखा जा सकता है कि कैसे बड़े उपक्रम रोबोट को प्राथमिकता देते नजर आ रहे हैं।
रही बात शासन और संचालन की तो कमियों की सूची कहां शुरू होती है यह समझ पाना मुश्किल है। अधिकांश कमियों की वजह कारोबारों में परिवारों का प्रभाव है। प्रथमदृष्टया स्वामित्व का यह स्वरूप संचालन की गुणवत्ता पर कोई असर नहीं डालता लेकिन इसका असर तो हुआ है। भारत में इसने पेशेवर प्रबंधन की जवाबदेही कम की है और सबसे बढ़कर प्रतिभा और रोजगार के दायरे को सीमित किया है। प्रवर्तक की शक्ति के बारे में सच बोलने के अपने जोखिम हैं जो बीते वर्षों में टाटा-मिस्त्री विवाद में यह उजागर हुआ।
निजी क्षेत्र सामाजिक बदलाव का वाहक भी नहीं रहा। शीर्ष और दूसरी श्रेणी के प्रबंधन पर नजर डालें तो पता चलता है कि देश के कारोबारी जगत द्वारा नियुक्तियों में ऊंची जाति, धर्म और लिंग को लेकर पूर्वग्रह से काम लिया जाता है। ऐसा नहीं है कि सरकारी क्षेत्र सकारात्मक कदमों के लिए जाना जाता हो लेकिन निजी क्षेत्र के पास भी इस क्षेत्र में दिखाने को कुछ खास नहीं है। उदाहरण के लिए देश के निजी क्षेत्र के कर्मचारियों में केवल 6 फीसदी मुस्लिम हैं। वरिष्ठ प्रबंधन में उनकी हिस्सेदारी 3 फीसदी से भी कम है। यह रुझान देश में हिंदू बहुसंख्यक रुख रखने वाली सरकार के आगमन से पहले का है। कंपनियों के मुताबिक ऐसा इसलिए होता है कि अनुसूचित जाति, मुस्लिम समुदाय और महिलाओं में पर्याप्त गुणवत्ता वाले प्रतिभागी नहीं मिलते।
शायद सरकार का परोक्ष इरादा यह है कि अपनी ऊर्जा को सार्वजनिक शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्र में लगाया जाए। उसे लग रहा है कि कारोबारी जगत से बाहर होने के बाद वह शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में जो प्रयास करेगी वह इन समुदायों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति सुधारने में मदद करेंगे। हम ऐसी बातें बीती सदी के अंतिम दशक में भी सुन चुके हैं और तब भी हमें निराशा ही हाथ लगी थी।