समाज की सभी समस्याओं का समाधान विधि के शासन में निहित है। फिर वे समाज के किसी भी वर्ग से क्यों न जुड़ी हों। चाहे वामपंथ हो या दक्षिणपंथ, उदारवादी हों या रूढ़िवादी, उन सभी का भी ऐसा ही विश्वास है। इससे जुड़े नियमों को लेकर उनमें मतभेद हो सकते हैं, लेकिन इस पर उनकी सहमति होगी कि विधि का शासन कायम रहना चाहिए। हालांकि विधि के शासन को लेकर एक सच्चाई यह भी है कि वह सभी परिस्थितियों में कारगर नहीं हो सकता और इसका कोई वास्तविक प्रमाण भी नहीं कि असल में यह ऐसा ही करता है। कुछ उदाहरण इस बिंदु को पुष्ट करेंगे।
पिछले महीने की ही बात है जब अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट ने पांच दशक पुराना एक कानून अमान्य कर दिया, जो महिलाओं के गर्भपात कराने के अधिकार से जुड़ा था। अब इस अधिकार से जुड़े मामले राज्य तय करेंगे। इससे पहले अप्रैल में स्वीडन में एक नेता द्वारा कथित ईशनिंदा के बाद दंगे भड़क गए थे, जिस पर प्रधानमंत्री मैग्डालेना एंडरसन ने कहा कि एकीकरण की प्रक्रिया नाकाम रही और मुख्यधारा का स्वीडिश समाज एवं प्रवासी नागरिक एक ‘समांतर समाजों’ में रहते रहे।
पूर्व जर्मन चांसलर एंगेला मर्केल ने स्वीकार किया कि 2018 में कानून प्रवर्तन एजेंसियों के लिए कुछ क्षेत्र वर्जित थे। उनका संकेत कुछ शहरों में पृथक मुस्लिम बस्तियों की ओर था। इसी तरह 1990 के अंतिम दौर से लेकर 2013 के बीच सैकड़ों किशोरवय ब्रिटिश युवतियों को कुछ पाकिस्तानी गिरोहों ने अपने जाल में फांसकर ‘विवाह’ रचाया और सब कुछ जानते हुए भी पुलिस इसी डर से शांत रही कि कहीं कोई कार्रवाई उन्हें नस्लवादी या इस्लामोफोबिक न ठहरा दे।
भारत में तो हमें किसी और से नहीं, बल्कि सीधे उच्चतम न्यायालय से ही पता चलता है कि विधि का शासन काम नहीं कर रहा जब वह बिना पलक झपकाए यह टिप्पणी कर देता है कि भाजपा की एक पूर्व प्रवक्ता का बयान ही उदयपुर में हुई एक नृशंस हत्या के लिए जिम्मेदार है। करीब 20 राज्यों में बिना अनुमति के गोवंश की आवाजाही की अनुमति नहीं है, लेकिन अधिकांशतः पुलिस इस कानून के पालन में शिथिलता का परिचय देकर गोरक्षक समूहों पर दारोमदार छोड़कर इस कानून का अवमूल्यन करती है। कुछ राज्यों में धर्मांतरण पर प्रतिबंध है, लेकिन इसके बावजूद धर्मांतरण रुका नहीं। अपने मौजूदा राजनीतिक दल से इस्तीफा दिए बिना दलबदल पर रोक के लिए कानून है, लेकिन किसी भी तरह दलबदल तो हो रहा है। बीते दिनों महाराष्ट्र में हमने इसकी झलक देखी।
इस लेख की शुरुआत विदेशी उदाहरणों से करने की वजह बहुत सीधी है। हम जानते हैं कि भारतीय राज्य अक्सर कानूनों को निष्पक्ष या प्रभावी रूप से लागू करने में अनिच्छुक दिखता है, लेकिन साथ ही हम यह भी मानते हैं कि अमीर देश विशेषकर अनुकरणीय लोकतंत्र वाले नॉर्डिक देशों में यह काम कहीं बेहतर ढंग से होता आया है। यह पूरी तरह सही नहीं। स्वीडिश प्रधानमंत्री के विलग समाजों से जुड़े बयान की मिसाल ही ले सकते हैं। जब आप वैकल्पिक सामाजिक वास्तविकताओं में रहते हैं तो अलग-अलग कानूनों की अपेक्षा भी करने लगते हैं। यहीं विधि का शासन नाकाम होता है।
विधि का शासन दो से तीन महत्त्वपूर्ण परिस्थितियों या कहें कि शर्तों के अंतर्गत ही कारगर होता है और आधुनिक समाजों में जहां परिवर्तन बहुत तेजी से होते हैं, वहां ऐसी परिस्थितियां लंबे समय तक कायम नहीं रह पातीं। पहली शर्त तो यही कि समाज में एक अत्यंत सशक्त हित समूह हो, जो कानूनों (विधियों) के पारित होना और उनका प्रवर्तन चाहता हो। दूसरी शर्त यही कि ऐसा करने में राज्य स्वयं पर्याप्त रूप से सक्षम होना चाहिए और तीसरी यही कि जब समाज में परिवर्तन हो तो कानून इतने ललीचे होने चाहिए कि वे भी समयानुसार तेजी से बदल जाएं। परंतु जब बड़े समुदाय ‘समांतर’ दुनिया में रहने लगें तो यह परिवर्तन तेजी से आकार नहीं ले पाता।
चौथे बिंदु को मैं विशेष रूप से रेखांकित करना चाहूंगा। यह एक ही समाज के विभिन्न समुदायों से जुड़ा है। इसे उदाहरण से समझते हैं। जैसे भारत में ही यदि हिंदू और मुस्लिम तबके गोवंश वध पर प्रतिबंध, या फिर सार्वजनिक स्थलों पर नमाज पढ़ना या मस्जिदों के पास तेज आवाज संगीत जैसे मसलों पर सहमत नहीं हो पाते तो फिर कोई भी तटस्थ कानून कारगर नहीं हो सकता, जैसा कि हम भारत में बार-बार होता देखते हैं।
यह मुझे एक संबंधित बिंदु की ओर ले जाता है। भारत के संविधान या भारतीय दंड संहिता में उल्लिखित शब्दों का तब कोई महत्त्व नहीं रह जाता जब उनसे जुड़े समुदाय ही उन पर सहमत नहीं या फिर वे उनके क्रियान्वयन में सहयोग नहीं करते। अगर जनता का एक बड़ा हिस्सा जिन कानूनों को नहीं चाहता तो कोई विधि का शासन नहीं हो सकता।
सीधे शब्दों में कहें तो कानूनों को कारगर बनाने के लिए लेन-देन पर आधारित सामुदायिक स्तरीय वार्ता होनी चाहिए। आप सार्वभौमिक अधिकारों को कानूनी आवरण नहीं दे सकते और तब यह अपेक्षा अनुचित होगी कि जो समुदाय ऐसे कानून न चाहते हों, वे भी उनका पालन करें। स्वीडन में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ईशनिंदा का अधिकार देती है, लेकिन वहां प्रवासी समाज को यह नागवार गुजरता है। ऐसे में किसी कारगर कानून के लिए कोई सहमति वाला मध्यमार्ग निकालना होगा, जिसमें स्वीडन के मुख्यधारा से जुड़े नेता इस पर सहमत हों कि ईशनिंदा की स्थिति में दोनों पक्ष क्या करेंगे और प्रवासी इस पर सहमति जताएं कि वे एक मर्यादा रेखा का कभी उल्लंघन नहीं करेंगे। प्रवासियों की बात भूल जाएं अमेरिका में तो श्वेतों के एक ही नस्लीय समूह में ही उदारवाद या परंपराओं को लेकर तकरार हो जाती है। यदि उदारवादी परंपरावादियों के साथ मिलकर बैठने को ही तैयार नहीं होंगे तो इस प्रकार वे किसी लोकतंत्र को कारगर बनाने के लिए बुनियादी सहमति की आवश्यकता को कमजोर कर रहे हैं। वास्तव में असहमति और विविधता का सम्मान किया जाना चाहिए।
विवादित कानून तभी कारगर होते हैं, जब उन पर संवाद किया जाए और जिनकी प्रकृति अन्योन्याश्रित (पूरक या पारस्परिक) होती है। यदि हिंदू और मुस्लिम इस बात पर सहमत हों कि गोहत्या पर कोई प्रतिबंध नहीं होगा (यह हिंदुओं द्वारा दी गई एक रियायत होगी) तो मुस्लिम समुदाय को भी ऐसे ही किसी पहलू पर हिंदुओं को कोई रियायत देनी होगी। यदि मुस्लिम किसी प्रतिबंध का सम्मान करने के प्रति सहमत होते हैं तो हिंदुओं को भी संबंधित मामले में अनुपालन की प्रतिबद्धता दिखानी होगी। यदि हम चाहते हैं कि जातियों के स्तर पर सब कुछ सुगम हो तो हमें सुनिश्चित करना होगा कि अगड़ी और पिछड़ी जातियां संवाद कर ऐसे बिंदुओं पर सहमत हों, जो दोनों को स्वीकार्य लगें। अन्यथा हम और जाति-आधारित भेदभाव एवं हिंसा की ओर उन्मुख होंगे। रियायतों को गैर-पारस्परिक बनाकर भारतीय गणतंत्र के संस्थापकों ने गलती की और एकतरफा रियायतों ने समुदायों के बीच शांति एवं सद्भाव के बजाय टकराव को बढ़ाने का काम किया।
वैश्विक स्तर की बात करें तो शीत युद्ध के दौरान परमाणु शांति बनी रही, क्योंकि अमेरिका और सोवियत संघ दोनों पारस्परिक सहमति और शक्ति संतुलन के अपने समझौते पर अड़े रहे। वहीं जिन देशों को लगा कि उन्हें बढ़िया पेशकश नहीं मिली तो उन्होंने अपनी सुरक्षा चिंताओं का हवाला देकर तय किया कि एकतरफा परमाणु अप्रसार संधि का सम्मान नहीं करेंगे।
वैश्वीकरण अब नाकाम हो रहा है, क्योंकि कुछ पक्षों को लगता है कि उनके साथ इससे अनुचित हुआ। असल में जब परिणामों में असंगति होती है तो विधि का शासन असफल हो जाता है। कुल मिलाकर सार यही है कि विधि का शासन होना अच्छी बात है, लेकिन इसके लिए उन सभी स्तरों पर प्रयास आवश्यक होंगे, जिनका उल्लेख किया गया है।
(लेखक स्वराज्य पत्रिका के संपादकीय निदेशक हैं)
