पिछले कुछ हफ्तों के दौरान दिल्ली और देश के अन्य महानगरों में बढ़ते वायु प्रदूषण ने भारतीय नीति निर्माताओं को एक ऐसे विषय का सामना करने के लिए विवश कर दिया है जिसकी वे अक्सर अनदेखी करते रहे हैं। वह विषय है कुल उत्सर्जन पर ध्यान केंद्रित करने की जरूरत न कि केवल अर्थव्यवस्था की उत्सर्जन तीव्रता पर। वायु प्रदूषण की यह विकट समस्या ऐसे समय में सरकार सहित सबकी सांसे रोक रही है, जब भारत अपने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि दर तेज करने और वर्ष 2047 तक एक विकसित देश बनने की दिशा में आगे बढ़ने का प्रयास कर रहा है।
कुल उत्सर्जन और अर्थव्यवस्था की उत्सर्जन तीव्रता के बीच का अंतर बेहद महत्त्वपूर्ण है। भारत ने उत्सर्जन तीव्रता कम करने पर ध्यान केंद्रित किया है यानी वह आर्थिक उत्पादन की प्रति इकाई उत्सर्जन कम करना रहा है। भारत ने वर्ष 2030 तक जीडीपी की उत्सर्जन तीव्रता वर्ष 2005 के स्तर से 45 फीसदी तक कम करने का लक्ष्य रखा है। यह लक्ष्य निश्चित रूप से साधा जा सकता है क्योंकि भारत 2005 से उत्सर्जन तीव्रता लगभग 36 फीसदी तक कम करने में सफल रहा है।
मगर समस्या यह है कि इससे वास्तव में हवा स्वच्छ नहीं होती है या वैश्विक तापमान में वृद्धि थमती नहीं। पूर्ण स्तर पर उत्सर्जन अभी भी बढ़ रहा है और तब तक बढ़ता रहेगा जब तक नीति निर्माता आर्थिक वृद्धि को गति देने के लिए नीतियां तैयार करते समय उत्सर्जन कम करने या कम से कम इसे सीमित रखने का तरीका नहीं खोज लेते। मौजूदा अध्ययनों से पता चलता है कि भारत का कुल उत्सर्जन वर्ष 2040 तक या जीडीपी की मौजूदा वृद्धि दर पर और अधिक समय तक बढ़ता ही रहेगा।
तेज आर्थिक तरक्की और ऊंची आर्थिक वृद्धि के साथ उत्पन्न होने वाली उत्सर्जन की अपरिहार्य समस्या के बीच संतुलन साधना एक ऐसी चुनौती रही है जिसका सामना सभी विकासशील देश कर रहे हैं। त्वरित विकास के लिए अनिवार्य रूप से ऊर्जा की अधिक खपत, उच्च निर्माण गतिविधियों और उच्च औद्योगिक उत्पादन आदि की जरूरत होती है।
वर्ष 2047 के लिए निर्धारित भारत के विकास लक्ष्यों को पूरा करने के लिए आवश्यक है कि हमारी अर्थव्यवस्था लगातार दो दशकों तक 8 फीसदी सालाना वृद्धि दर से आगे बढ़े। यह आर्थिक वृद्धि देश की प्रति व्यक्ति आय को उस सीमा के पार पहुंचाने के लिए जरूरी है जिसका उपयोग विश्व बैंक किसी देश को उच्च आय वाले देश के रूप में वर्गीकृत करने के लिए करता है।
यह बात भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण है कि 8 फीसदी से अधिक वृद्धि दर कुल उत्सर्जन में बढ़ोतरी का कारण बनेगी और जब तक इससे गंभीर तरीके से निपट नहीं लिया जाता तब तक देश के सभी बड़े शहरों में नागरिकों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ना जारी रहेगा। कई अध्ययनों से पता चला है कि लगातार उच्च वायु प्रदूषण जीवन प्रत्याशा कम करता है और नए शोध से यह भी पता चलता है कि इससे गर्भ में पल रहे शिशुओं को भी भ्रूण अवस्था में नुकसान पहुंच सकता है।
एक विकसित देश की पहचान केवल उच्च प्रति व्यक्ति आय ही नहीं बल्कि संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) मानव विकास सूचकांक (एचडीआई) के अनुसार उच्च प्रति व्यक्ति आय के साथ-साथ जीवन की उच्च गुणवत्ता, विशेष रूप से शिक्षा और स्वास्थ्य, हासिल करना भी है। इसका मतलब है कि भारत को औद्योगिक और सेवा क्षेत्रों की रफ्तार तेज करने के साथ ही वायु और जल प्रदूषण जैसे सार्वभौमिक और उच्च गुणवत्ता वाली स्कूली शिक्षा आदि पर भी ध्यान केंद्रित करना चाहिए।
उच्च आर्थिक विकास को बढ़ावा देने के साथ गुणवत्तापूर्ण स्कूली शिक्षा सुनिश्चित करना बहुत मुश्किल नहीं है। हालांकि, भारत में अधिकांश केंद्र सरकारों ने अब तक शिक्षा में सुधार का जिम्मा राज्य सरकारों या निजी क्षेत्र पर छोड़ना अधिक उचित समझा है। मगर पूर्ण उत्सर्जन कम करना या उससे निपटना नीति निर्माताओं के लिए कहीं अधिक बड़ी चुनौती है।
भारत की भविष्य की आर्थिक वृद्धि की दशा-दिशा विनिर्माण और सेवाओं, दोनों पर निर्भर होनी चाहिए। एक समय यह कहा जा रहा था कि सेवा-आधारित वृद्धि में कम ऊर्जा की आवश्यकता होगी और विनिर्माण क्षेत्र की तुलना में कम उत्सर्जन होगा। मगर आर्टिफिशल इंटेलिजेंस (एआई) और विशाल डेटा केंद्रों के आने के बाद बढ़ी ऊर्जा और पानी की खपत ने खतरे की घंटी बजा दी है।
यही कारण है कि नीति निर्माताओं के लिए यह महसूस करना अब जरूरी हो गया है कि वे कुल उत्सर्जन या वायु प्रदूषण जैसे मुद्दों से निपटने के लिए भारत के एक उच्च आय वाला देश बनने तक इंतजार नहीं कर सकते। वर्ष 2070 तक शुद्ध शून्य उत्सर्जन के लक्ष्य तक पहुंचने की राह में निर्धारित अंतरिम लक्ष्यों के लिए भी पूर्ण उत्सर्जन के लिए समाधान मुहैया करने की जरूरत होगी।
यह कतई नहीं कहा जा सकता कि आर्थिक वृद्धि दर धीमी कर दी जाए बल्कि वायु प्रदूषण की वास्तविक समस्या से निपटने का तरीका खोजना सही रणनीति होगी। तेज आर्थिक विकास साथ में वायु प्रदूषण जैसी चुनौतियां भी लाता है जिसका सामना सभी लोगों को करना पड़ता है। इनमें से कम से कम कुछ समस्याओं को अधिक कठोर पर्यावरणीय नियमों को लागू करके और मौजूदा मानदंडों के बेहतर ढंग से लागू कर हल किया जा सकता है।
यह कोई छुपी बात नहीं है कि कई उद्योग (बड़े, मध्यम और लघु) उत्सर्जन मानदंडों पर बहुत कम ध्यान देते हैं। स्थानीय, राज्य या यहां तक कि केंद्र सरकार के स्तर पर भी उत्सर्जन या वायु प्रदूषण रोकने के लिए गंभीर प्रयास नहीं होते हैं। पुराने ताप बिजली संयंत्रों को अक्सर अधिकारियों द्वारा उत्सर्जन नियंत्रण प्रणाली लागू करने के लिए अतिरिक्त समय दिया गया है। पूरे देश में जल प्रदूषण और जल स्तर में कमी का सिलसिला जारी है।
उत्सर्जन अवशोषित करने एवं प्रदूषण कम करने में बेहद महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले पेड़ सड़कों एवं कारखानों के निर्माण और खनन गतिविधियों के लिए बेरहमी से गिराए जा रहे हैं और इनके बदले नई हरियाली विकसित करने के बहुत कम प्रयास किए जाते हैं। इसी तरह, जल निकायों को साफ करने से निर्माण गतिविधि और संबंधित क्षेत्रों के लिए सख्त उत्सर्जन नियंत्रण जैसे उपायों के साथ-साथ उत्सर्जन अवशोषित करने में मदद मिल सकती है। केंद्र सरकार को उच्च आर्थिक गति और नागरिकों के जीवन की बेहतर गुणवत्ता के बीच सही संतुलन साधने की जरूरत है। वह एक पहलू पर अधिक ध्यान देने के चक्कर में दूसरे की अनदेखी नहीं कर सकती।
(लेखक बिजनेसवर्ल्ड और बिजनेस टुडे के पूर्व संपादक और संपादकीय परामर्श संस्था प्रोजेक व्यू के संस्थापक हैं)