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संपादकीय: बिजली क्षेत्र में सुधार जरूरी

चुनिंदा राज्य ही नवीकरणीय ऊर्जा खरीद का लक्ष्य पूरा कर पा रहे हैं। वर्ष 1991 में इस क्षेत्र के उदारीकरण के बाद से ही बिजली कीमतों को बाजार से जोड़ने की जरूरत रही है।

Last Updated- November 18, 2024 | 9:26 PM IST
Electricity Supply

केंद्रीय बिजली मंत्री मनोहर लाल खट्‌टर ने विद्युत उत्पादन और वितरण कंपनियों समेत तमाम बिजली कंपनियों को उचित ही यह सलाह दी है कि वे शेयर बाजार में सूचीबद्ध हो जाएं। यदि ये कंपनियां बाजार मानकों के अधीन होतीं तो यह सलाह बहुत प्रभावी साबित होती। परंतु भारत का बिजली क्षेत्र का बाजार राजनीति से प्रेरित शुल्क नीतियों की वजह से विसंगतिपूर्ण बना हुआ है क्योंकि ये नीतियां सरकारी बिजली वितरण कंपनियों की व्यवहार्यता को प्रभावित करती हैं।

यकीनन खट्‌टर ने इस बात पर ध्यान दिया होगा कि बिजली वितरण कंपनियों का समेकित कर्ज 6.84 लाख करोड़ रुपये और उनका कुल घाटा 6.46 लाख करोड़ रुपये हो चुका है। ये चौंकाने वाले आंकड़े आंशिक तौर पर बीते सालों की तुलना में वित्त वर्ष 24 में रिकॉर्ड मांग और महंगे आयातित कोयले की बढ़ती लागत के साझा प्रभाव को दर्शाते हैं। इसका परिणाम 16 राज्यों के घाटे में जबरदस्त इजाफे के रूप में सामने आया। उनमें उत्तर प्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र और पंजाब जैसे कई बड़े राज्य शामिल हैं।

इस कमजोर प्रदर्शन की वजह से लगातार यह चिंता बढ़ रही है कि करदाताओं के पैसे से इस क्षेत्र को उबारने की कोशिश कितनी प्रभावी अथवा समझदारी भरी है। बीते दो दशक में भारत सरकार ने बिजली वितरण कंपनियों को उबारने के लिए पांच पैकेज दिए। इनमें ताजातरीन रिवैम्प्ड डिस्ट्रिब्यूशन सेक्टर स्कीम या आरडीएसएस 2022 में पेश किया गया था और यह बहुत प्रभावी नहीं साबित हुआ। सैद्धांतिक तौर पर ऐसा इसलिए हुआ कि बिजली वितरण कंपनियां अधोसंरचना उन्नयन तथा स्मार्ट मीटरिंग के लिए जरूरी धन जुटाने में नाकाम रही हैं। ये केंद्र सरकार से बजट आवंटन की परिचालन पूर्व शर्तें हैं।

आरडीडीएस ने उज्ज्वल डिस्कॉम एश्योरेंस योजना (उदय) का स्थान लिया जिसका लक्ष्य बिजली वितरण कंपनियों के समेकित वित्तीय और परिचालन घाटे को कम करना था। इसके लिए राज्यों को कर्ज का बोझ वहन करने और बॉन्ड जारी करने थे। ये बॉन्ड इस समझ के साथ जारी होने थे कि बिजली का टैरिफ लागत से जुड़ेगा और समेकित तकनीकी और वाणिज्यिक हानि कम की जा सकेगी। इसके बजाय वित्त वर्ष 20 में योजना समाप्त होने के बाद बिजली वितरण कंपनियों का वित्तीय प्रदर्शन और कमजोर हो गया।

तकनीकी और वाणिज्यिक हानि एक संकेतक है जो बताता है कि वितरण कंपनी, खरीदी गई जिस बिजली के लिए भुगतान नहीं पा सकी उसका स्तर वित्त वर्ष 24 में बढ़कर 17 फीसदी हो गया जबकि वित्त वर्ष 23 में वह 15 फीसदी था। यकीनन बिजली वितरण कंपनियों की औसत आपूर्ति लागत- औसत बिजली खरीद लागत और औसत वसूली योग्य राजस्व और बिजली आपूर्ति की लागत में कमी आई है और यह वित्त वर्ष 23 के 0.45 रुपये प्रति किलोवॉट से कम होकर वित्त वर्ष 24 में 0.21 रुपये प्रति किलोवॉट रह गया। परंतु जैसा कि खट्‌टर ने कहा, इस अंतर को खत्म करना होगा।

दूसरी तरह से देखें तो राज्यों को ही कदम उठाना होगा और दरों में इजाफा करना होगा। इसके बावजूद जैसा कि इक्रा ने रेखांकित किया, राज्य नियामकों द्वारा शुल्क वृद्धि मामूली रही है और वित्त वर्ष 25 के लिए इसमें 1.7 फीसदी का इजाफा हुआ जो इससे पिछले वर्ष मंजूर 2.5 फीसदी से अधिक है।

अधिकांश राज्य इस अंतर की भरपाई क्रॉस-सब्सिडी से करते हैं। यानी औद्योगिक और वाणिज्यिक उपभोक्ताओ को प्रीमियम दर पर बिजली दी जाती है ताकि राजनीतिक दृष्टि से संवेदनशील वर्ग को नि:शुल्क बिजली की कीमत निकल सके। हालांकि राष्ट्रीय टैरिफ नीति क्रॉस सब्सिडी को औसत आपूर्ति लागत के 20 फीसदी कम-ज्यादा तक सीमित करती है, लेकिन अधिकांश राज्य इस सीमा का पालन नहीं करते। ऐसे में एक ओर कारोबारी लागत बढ़ती है जबकि दूसरी ओर संसाधन बरबाद होते हैं। ये ढांचागत दिक्कतें ग्रिड की मदद से सौर और पवन ऊर्जा मुहैया कराने की व्यवस्था को भी बाधित करती हैं जबकि जलवायु परिवर्तन की प्रतिबद्धताओं को पूरा करने के लिए वह आवश्यक है।

चुनिंदा राज्य ही नवीकरणीय ऊर्जा खरीद का लक्ष्य पूरा कर पा रहे हैं। वर्ष 1991 में इस क्षेत्र के उदारीकरण के बाद से ही बिजली कीमतों को बाजार से जोड़ने की जरूरत रही है। इस बुनियादी बदलाव के बिना देश की अर्थव्यवस्था की बिजली आपूर्ति कमजोर बनी रहेगी।

First Published - November 18, 2024 | 9:26 PM IST

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