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Editorial: गरीबी से जंग और विकास संबंधी बहस

वैश्विक बहुआयामी गरीबी सूचकांक तीन व्यापक क्षेत्रों में 10 संकेतकों को शामिल करता है। ये हैं शिक्षा, स्वास्थ्य और जीवन स्तर।

Last Updated- January 16, 2024 | 10:05 PM IST
Economic Survey 2024: 13.5 crore Indians came out of multidimensional poverty, better performance in villages Economic Survey 2024: बहुआयामी गरीबी से बाहर निकले 13.5 करोड़ भारतीय, गांवों में बेहतर प्रदर्शन

नीति आयोग द्वारा इस सप्ताह जारी एक और चर्चा पत्र के अनुसार बीते नौ वर्षों में करीब 24.82 करोड़ भारतीय बहुआयामी गरीबी से बाहर निकलने में कामयाब रहे। नीति आयोग के सदस्य रमेश चंद और वरिष्ठ सलाहकार योगेश सूरी द्वारा संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम तथा ऑक्सफर्ड नीति एवं मानव विकास पहल की मदद से तैयार की गई इस रिपोर्ट का इरादा यह दिखाना है कि बीते नौ वर्षों में विभिन्न सरकारी कार्यक्रमों ने बहुआयामी गरीबी पर क्या असर डाला।

पत्र लेखकों के व्यक्तिगत विचारों को दर्शाता है और इसमें पाया गया कि बहुआयामी गरीबी 2013-14 के 29.17 फीसदी से कम होकर 2022-23 में 11.28 फीसदी रह गई। माना जा रहा है कि जल्दी ही यह गरीबी घटकर एक अंक में रह जाएगी। ध्यान देने वाली बात है कि ताजा राष्ट्रीय बहुआयामी गरीबी सूचकांक राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-4 (2015-16) और पांच (2019-20) पर आधारित है। चूंकि उपयुक्त प्रासंगिक अवधि के लिए आंकड़े अनुपलब्ध थे इसलिए अध्ययन में उपलब्ध आंकड़ों के आधार पर ही आकलन किया गया।

बहुआयामी गरीबी सूचकांक को पारंपरिक मानकों की तुलना में बेहतर संकेतक माना जाता है। उदाहरण के लिए आय के अनुमान हासिल करना मुश्किल है। इसी प्रकार खपत सर्वेक्षण गरीबी और बेहतरी के स्तर का आकलन करने के लिहाज से अपर्याप्त पाए गए हैं। इसके अलावा संभव है ये तरीके नीतिगत हस्तक्षेप के असर को पूरी तरह से आकलित न कर पाते हों।

वैश्विक बहुआयामी गरीबी सूचकांक तीन व्यापक क्षेत्रों में 10 संकेतकों को शामिल करता है। ये हैं शिक्षा, स्वास्थ्य और जीवन स्तर। वैश्विक संकेतकों के अलावा भारतीय संस्करण में मातृत्व स्वास्थ्य और बैंक खाते भी शामिल हैं। निश्चित तौर पर बहुआयामी गरीबी सूचकांक जहां एक व्यापक तस्वीर पेश करता है वहीं आय और व्यय के आंकड़ों की जरूरत की भी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए।

गरीबी के भिन्न-भिन्न पहलुओं पर केंद्रित पर नजर डालते और अधिक आंकड़ों की मदद से बेहतर तस्वीर और बेहतर सूचित नीति निर्माण प्राप्त किया जा सकता है। 2017-18 में हुए अंतिम उपभोक्ता व्यय सर्वेक्षण को सरकार ने यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि उसके आंकड़े गुणवत्तापूर्ण नहीं हैं। बीते कुछ दशकों में उच्च आय वृद्धि और नीतिगत हस्तक्षेप की मदद से गरीबी में काफी कमी आई।

जैसा कि इस पत्र में कहा गया है बहुआयामी गरीबी के शिकार लोगों की तादाद 2005-06 के बाद के 15 वर्षों में 40.38 फीसदी कम हुआ है। गरीबी की तीव्रता में भी काफी कमी आई है। गरीबी में कमी उत्सव मनाने लायक बात है लेकिन भारत को अभी भी इस क्षेत्र में लंबा सफर तय करना है। ऐसे में नीतिगत प्रयास इस बात पर केंद्रित होने चाहिए कि कैसे दीर्घावधि में टिकाऊ आर्थिक वृद्धि हासिल की जाए। भारत को अभी भी निम्न-मध्य आय वाला देश माना जाता है। प्रति व्यक्ति आय में सतत उच्च वृद्धि से ज्यादा तादाद में लोग गरीबी से उबरेंगे और उनके जीवन में बेहतरी आएगी।

इसके अलावा राज्य स्तर के आंकड़े गहरी असमानता दिखाते हैं। देश के विकास की प्रक्रिया में कुछ राज्य बहुत पीछे छूट गए हैं। ऐसे क्षेत्रों में अधिक नीतिगत ध्यान देने की आवश्यकता होगी ताकि संतुलित और समावेशी विकास हासिल किया जा सके। इसके अलावा सुधार दिखाने वाले मानकों पर भी और काम करने की आवश्यकता होगी। उदाहरण के लिए शिक्षा के स्तर पर स्कूली शिक्षा वाले वर्षों को शामिल किया जाता है।

बहरहाल, यह बात सभी जानते हैं कि देश में शिक्षण से हासिल नतीजे वांछित स्तर से बहुत कम हैं। ऐसे में नीतिगत हस्तक्षेप के तहत सुधार के अगले स्तर पर ध्यान देना होगा। इस दौरान सरकारी व्यय को नए सिरे से निर्धारित करना होगा। उदाहरण के लिए अगर बहुआयामी गरीबी में करीब 11 फीसदी की कमी आई है तो क्या सरकार को देश की बहुसंख्यक आबादी को नि:शुल्क खाना देने पर विचार करना चाहिए?

इसी प्रकार क्या नकदी हस्तांतरण आगे बढ़ने का मार्ग है या फिर क्या राज्य के संसाधनों का इस्तेमाल विकास में आई कमी को दूर करने के लिए किया जाना चाहिए, मसलन शिक्षा का स्तर सुधारने के लिए? ऐसे कई नीतिगत प्रश्न हैं जिन पर बहस की जरूरत होगी।

First Published - January 16, 2024 | 10:05 PM IST

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