भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) की गत सप्ताह जारी हुई वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट (एफएसआर) में बताया गया कि देश में वित्तीय स्थिरता की दशा व्यापक तौर मजबूत और स्थिर है। अर्थव्यवस्था में व्यापक वित्तीय जोखिम के कई संकेतक कमजोर पड़े हैं और हमारी व्यवस्था वृद्धि के लिए जरूरी संसाधन उपलब्ध कराने के लिए तैयार नजर आ रही है। बैंकिंग व्यवस्था में फंसे हुए कर्ज का सकल अनुपात 2.8 फीसदी के साथ कई वर्षों के न्यूनतम स्तर पर है और रिपोर्ट में अनुमान जताया गया है कि इसमें और गिरावट जारी रहेगी।
बहरहाल, अभी भी भविष्य के जोखिम के कुछ स्रोत हैं जिनकी सावधानीपूर्वक नियामकीय निगरानी की आवश्यकता है। इनमें से एक है शैडो बैंकिंग क्षेत्र की वापसी। गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियां यानी एनबीएफसी अर्थव्यवस्था में एक उपयोगी भूमिका निभाती हैं। परंतु जैसा कि इन्फ्रास्ट्रक्चर लीजिंग ऐंड फाइनैंशियल सर्विसेज (आईएलऐंडएफएस) के मामले से पता चला जो छह वर्ष पहले संकट में आ गई थी, वे मुश्किलों का जरिया भी होती हैं।
आईएलऐंडएफएस के कारण एनबीएफसी क्षेत्र को जिन मुश्किलों का सामना करना पड़ा था उनसे निपटने और ऋण तथा अन्य गतिविधियों के सामान्य होने में वक्त लगा। तब से एनबीएफसी की नियामकीय निगरानी और सख्त हो गई है। परंतु जैसा कि रिपोर्ट में कहा गया है, विशुद्ध उधारी के मुताबिक वे बैंकिंग व्यवस्था की सबसे बड़ी प्रतिभागी हैं। इस उधारी में से अधिकांश सूचीबद्ध वाणिज्यिक बैंकों से ली गई है जो अब एनबीएफसी को आधा से अधिक वित्त मुहैया कराते हैं।
आवास वित्त कंपनियां भी ऐसी ही बिचौलियों वाली भूमिका निभाती हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि यह अपने आप में समस्या नहीं है। उसके अनुमान के मुताबिक एक बड़ी एनबीएफसी की विफलता बैंकिंग व्यवस्था में पहली श्रेणी के शेयरों को गंभीर क्षति पहुंचाती है। परंतु इससे बैंकिंग व्यवस्था का पतन नहीं होगा।
इसके बावजूद यह स्थितियों का बहुत सरल पाठ होगा। इक्कादुक्का नाकामी कोई समस्या नहीं होती है। असल में मामला यह है कि किसी एक एनबीएफसी में नाकामी की जो वजह होगी वह अन्य पर भी ऐसा ही प्रभाव डाल सकती है। झटकों का आपस में संबंध होता है। हम 2008 के वित्तीय संकट में ऐसा होते देख चुके हैं।
यकीनन एक नाकामी से अन्य एनबीएफसी में जमा करने वालों के भरोसे को क्षति पहुंच सकती है। यह स्थिति भी एक तरह से संक्रामक साबित होगी। रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि एनबीएफसी एक परिपक्व परिवर्तनकारी भूमिका निभा रही हैं। ऐसी मध्यवर्ती कंपनियां जो अल्पावधि के लिए फंड लेकर उसे लंबे समय के लिए ऋण के रूप में देती हैं, उन्हें व्यवस्था में अस्थिरता का जरिया माना जाता है।
यह बात भी ध्यान देने लायक है कि वित्तीय तंत्र में कुछ नई चिंताएं नजर आने लगी हैं। रिपोर्ट में रिजर्व बैंक के व्यवस्थागत जोखिम सर्वे के 26वें दौर को लेकर एक नोट शामिल है। वैश्विक मौद्रिक सख्ती समेत जोखिम के कई स्रोत कमजोर पड़े हैं। परंतु दो घरेलू जोखिमों के बढ़ने का अनुमान है। पहला, कम खपत और मांग से उपजा जोखिम। यह भारतीय अर्थव्यवस्था में वेतन और रोजगार को दर्शाती है।
परंतु अधिक दिलचस्प बात यह है कि सर्वे में जलवायु जोखिम को उच्च जोखिम श्रेणी में रखा गया है। सर्वेक्षण के उत्तरदाताओं ने जलवायु परिवर्तन और साइबर जोखिम को सबसे बड़ा जोखिम माना है। रिपोर्ट में जलवायु जोखिम के नियमन के समय वैश्विक रुझानों की समीक्षा शामिल है।
भारतीय वित्तीय व्यवस्था और रिजर्व बैंक समेत वित्तीय क्षेत्र नियामक दोनों को बढ़ते जलवायु जोखिम से बचाने की तैयारी करनी होगी। जलवायु परिवर्तन मौद्रिक नीति पर भी असर डालेगा जिससे वित्तीय तंत्र के लिए जोखिम बढ़ सकता है।