चुनावी राजनीति में राजनीतिक दल प्रायः चुनाव से पहले राजनीतिक घोषणापत्रों के माध्यम से अपने दृष्टिकोण एवं योजनाएं जनता के समक्ष रखते हैं। परंतु, भारत विकास के जिस चरण में खड़ा है वहां ऐसे घोषणापत्र कदाचित ही सभी वर्गों की अपेक्षाएं पूरी कर पाते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा है कि अगर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सत्ता में तीसरी बार आता है तो कुछ बड़े निर्णय लिए जाएंगे। मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने भी विभिन्न खंडों में बड़े कदम उठाने की घोषणा की है।
हालांकि, इस स्तंभ का उद्देश्य दोनों दलों के घोषणापत्रों की तुलना करना नहीं है। यहां उद्देश्य अगली सरकार के लिए एक महत्त्वपूर्ण विचार या सोच को रेखांकित करना है जो व्यवहार में लाया जा सके। इसका इससे कोई लेना-देना नहीं है कि कौन-सा दल या गठबंधन सत्ता में आता है।
वर्तमान स्थिति साल 2009 में एक बड़े अर्थशास्त्री से इस लेखक के संवाद की याद दिलाती है। उस वर्ष आम चुनाव में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार बड़े बहुमत से सत्ता में आई थी। 2009 से पहले कुछ वर्षों में भारत ने शानदार आर्थिक प्रगति की थी और सभी का यह मानना था कि देश वैश्विक वित्तीय संकट से मोटे तौर पर अप्रभावित रहा है।
उस अर्थशास्त्री के साथ हुए संवाद का सारांश यह था कि निजी क्षेत्र ने 1991 में शुरू हुए आर्थिक सुधारों के बाद सराहनीय प्रदर्शन किया है और अब सरकार को स्वयं में सुधार करना चाहिए। यह तर्क अब भी उतना ही दमदार है जितना 2009 में हुआ करता था। यहां यह तात्पर्य कदापि नहीं है कि पिछले वर्षों में सरकारी तंत्र में सुधार नहीं हुआ है, परंतु काफी कुछ अब भी किए जाने की आवश्यकता है।
विकास से जुड़े कार्य एवं उनके प्रभाव सरकार की क्षमता और चुनौतियों से निपटने की उसके उपायों पर निर्भर करता है। इस संदर्भ में अर्थशास्त्री कार्तिक मुरलीधरन की नई पुस्तक ‘एक्सलरेटिंग इंडियाज डेवलपमेंट: अ स्टेट लेड रोडमैप फॉर इफेक्टिव गवर्नेंस’ में उन कई क्षेत्रों का उल्लेख किया गया है जहां सरकारी क्षमता में सुधार की आवश्यकता है।
पुस्तक के अनुसार इस क्षमता में सुधार के साथ अपेक्षित परिणाम प्राप्त करने में सहायता मिल सकती है। यह सत्य है कि भारतीय व्यवस्था कुछ चीजें वाकई बेहतर तरीके से करती हैं (उदाहरण के लिए लोक सभा चुनाव आयोजित करना) परंतु कुछ अरुचिकर एवं नियमित कार्य करने में विफल या आंशिक रूप से ही सफल रहती है। देवेश कपूर जैसे शिक्षाविदों ने कहा है कि भारतीय तंत्र निश्चित समय पर होने वाले कार्यों में अच्छा प्रदर्शन करता है।
देश में कई क्षेत्र हैं जिनमें सुधार की आवश्यकता है मगर इस स्तंभ में दो व्यापक पहलुओं पर चर्चा केंद्रित कर रहे हैं। यह कहा जा सकता है कि भारत राजकोषीय क्षमता की कमी के कारण प्रभावी ढंग से विकास कार्यों को पूरा करने में असमर्थ है। इसका कारण यह है कि भारत व्यय के मोर्चे पर विकसित देशों का मुकाबला नहीं कर सकता है।
अर्थव्यवस्था के तेजी से औपचारीकरण के बावजूद इसके कर संग्रह और सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) अनुपात में बहुत अधिक सुधार नहीं हुआ है। 15वें वित्त आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि भारत का राजस्व पिछले कई वर्षों से स्थिर रहा है और प्रतिस्पर्धी देशों की तुलना में काफी कम रहा है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के एक अध्ययन के अनुसार भारत का सकल कर संग्रह इसकी क्षमता से 5 फीसदी से भी अधिक कम रहा है।
अगर यह अंतर पाट दिया जाए तो राजकोषीय क्षमता बढ़ जाएगी और उधारी कम हो सकती है। मगर इस मोर्चे पर वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) का प्रदर्शन अपेक्षा से कम रहा है। जीएसटी के साथ कुछ समस्याएं हैं और ये किसी से छुपी नहीं है।अगर अगली सरकार इसमें सुधार करती है तो यह बहुत अच्छी बात होगी। नई सरकार को प्रत्यक्ष कर आधार, खासकर आयकर बढ़ाने पर भी ध्यान देना चाहिए। परंतु, समस्या केवल राजस्व तक ही सीमित नहीं है। व्यय का स्तर भी बढ़ाना होगा।
उदाहरण के लिए सरकारी समर्थन एवं सब्सिडी लक्षित लोगों तक सही ढंग से नहीं पहुंच पा रहे हैं और जिन लोगों को इनकी जरूरत नहीं है उन्हें लाभ पहुंच रहा है। प्रायः तात्कालिक या अल्प अवधि में राजनीतिक लाभ लेने के लिए इनका बेजा इस्तेमाल किया जाता है।
जैसा मुरलीधरन ने अपनी पुस्तक में कहा है कि वर्ष 2019-20 में पंजाब सरकार ने कृषि शोध पर 380 करोड़ रुपये की तुलना में कृषि क्षेत्र के लिए बिजली के मद में सब्सिडी पर 6,000 करोड़ रुपये से अधिक खर्च किए थे। केंद्र सरकार भी इस मामले में अलग नहीं है। भारत को सबसे पहले अपनी राजकोषीय प्राथमिकता को ठीक करना चाहिए।
यह बात भी नकारी नहीं जा सकती कि भारत के पास अपने मानव संसाधन का लाभ उठाने की सीमित गुंजाइश मौजूद है, मगर शिक्षा में सुधार के बिना यह संभव नहीं है। सर्वेक्षण के नतीजे बताते हैं कि विद्यालय स्तर पर दी जाने वाली शिक्षा के अपेक्षित परिणाम सामने नहीं आ रहे हैं।
उक्त पुस्तक में एक शोध का जिक्र किया गया है जिसके अनुसार केवल व्यय बढ़ाने से लाभ नहीं मिल सकता है। अन्य बातों में पर्यवेक्षकों के पदों पर भर्ती से पढ़ाई-लिखाई के श्रेष्ठ परिणाम सामने आ सकते हैं। स्थानीय स्तर पर शिक्षकों की भर्ती से कम खर्च पर बेहतर नतीजे सामने आ सकते हैं। स्वास्थ्य एवं शिक्षा में उम्मीद से कम परिणाम का कारण यह है कि राजकोषीय शक्ति का केंद्रीकरण आवश्यकता से अधिक है। भारत को सबसे कम विकेंद्रीकृत देशों में एक माना जाता है।
भारतीय रिज़र्व बैंक (आरबीआई) की एक ताजा रिपोर्ट के अनुसार पंचायतों का राजस्व व्यय सभी राज्यों के मामले में सकल राज्य घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) का 0.6 फीसदी से कम था।
एक अध्ययन के अनुसार चीन में स्थानीय सरकारों का व्यय कुल व्यय का 51 फीसदी था जबकि भारत के मामले में यह मात्र 3 फीसदी था। कुछ खास कार्यों के लिए स्थानीय इकाइयों को तैयार करने से सरकार की क्षमता और इससे मिलने वाले परिणाम सुधर सकते हैं। स्थानीय निकायों के लिए विकास कार्यों के बेहतर परिणाम नहीं मिलने की स्थिति में स्थानीय नेताओं को उत्तरदायी ठहराना आसान हो जाएगा। अधिकारियों एवं मंत्रियों की जवाबदेही तय करने की तुलना में ऐसा करना अधिक आसान होगा। लिहाजा, भारत को स्थानीय निकायों की क्षमता में सुधार करने की आवश्यकता है और इसका फायदा उठाकर बेहतर नतीजे प्राप्त किए जा सकते हैं।
अंत में, न्यायपालिका की स्थिति पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है। भारत में इस समय 5 करोड़ मामले विचाराधीन हैं। कुछ मामलों में त्वरित न्यायालय स्थापित करने पड़ते हैं। मगर स्थापित क्षमता में कमी और कुछ मामलों के निपटारे के लिए उपाय करने से शेष क्षमता पर असर हो सकता है।
मामले विचाराधीन रहने से निवेश का माहौल बिगड़ता है और अधिकारी अपने अधिकारों का बेजा इस्तेमाल करने लगते हैं। न्यायालयों में मामले के जल्द निपटारे से निवेश के लिए अनुकूल वातावरण तैयार होगा और आर्थिक वृदि्ध की संभावनाएं भी बढ़ेंगी। इस तरह, विकास की संपूर्ण गुणवत्ता सुनिश्चित हो पाएगी। संक्षेप में कहें तो सरकार की क्षमता में सुधार का विचार कोई नई बात नहीं है, मगर अब समय आ गया है कि हम इस दिशा में नई शुरुआत करें।