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सिद्धरमैया बनाम डीके शिवकुमार: कर्नाटक में कांग्रेस की सत्ता के पीछे छिपी कलह, प्रदेश नेतृत्व में जंग तेज

कर्नाटक में सिद्धरमैया और डीके शिवकुमार के बीच मुख्यमंत्री पद को लेकर टकराव कांग्रेस सरकार के लिए नई चुनौती बनता जा रहा है, जिससे अंदरूनी अस्थिरता बढ़ रही है।

Last Updated- July 04, 2025 | 10:41 PM IST
DK Shivakumar siddaramaiah
कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धरमैया और उप मुख्यमंत्री डीके शिवकुमार

समय रहते अपनी सेवानिवृत्ति घोषित करना क्या हमेशा बेहतर रहता है? कारोबारी जगत में इससे अपनी उत्तराधिकार योजना तैयार करने में मदद मिल सकती है लेकिन राजनीति में शायद ऐसा नहीं होता। यह संभव है कि कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धरमैया द्वारा कर्नाटक में 2023 के चुनावों में यह कहना कि ‘यह मेरा आखिरी चुनाव है’ एक रणनीति के रूप में उनके पक्ष में काम कर गया हो। परंतु 224 सदस्यीय राज्य विधान सभा में 135 (उपचुनाव जीतने के बाद 137) सीटों पर जीत पाने और 1989 के बाद के कांग्रेस के ऐतिहासिक प्रदर्शन के बावजूद अगर राज्य सरकार के कामकाज को देखें तो आप शायद नहीं मानेंगे कि यह सिद्धरमैया के लिए कारगर रहा है।

देश के राजनीतिक इतिहास में ऐसी किसी दूसरी घटना को याद करना मुश्किल है जहां एक उपमुख्यमंत्री ने सार्वजनिक रूप से अपने समर्थकों से कहा हो कि उसके पास मुख्यमंत्री को पद पर बने रहने देने के सिवा कोई विकल्प नहीं है। डीके शिवकुमार ने इस सप्ताह के आरंभ में ऐसा ही किया। सरकार और पार्टी की प्राथमिक चिंताओं में शासन संबंधी पहलें या अधोसंरचना निर्माण नहीं बल्कि सिद्धरमैया का उत्तराधिकारी तय करना सबसे आगे नजर आ रहा है।

इसमें कई बातें शामिल हैं, जिनमें पार्टी से बाहर के संबंध भी शामिल हैं। पूर्व मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा और सिद्धरमैया के बीच के रिश्ते काफी जटिल हैं। इनकी कई परतें हैं। सार्वजनिक तौर पर देखा जाए तो दोनों एक दूसरे से उलझते नजर आते हैं और यही उम्मीद भी की जानी चाहिए। परंतु येदियुरप्पा के 78वें जन्मदिन के उत्सव में भाजपा को प्रदेश में सत्ता में लाने में उनकी भूमिका को याद करते हुए सिद्धरमैया ने कहा, ‘बहुत कम नेता राज्य की नब्ज को जानते हैं और येदियुरप्पा उनमें से एक हैं।’ ऐसे अनेक अवसर रहे हैं जहां दोनों ने अपनी-अपनी पार्टियों के बीच प्रतिद्वंद्विता के बीच भी एक दूसरे की सहायता की।

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फिलहाल सिद्धरमैया के सामने सबसे बड़ी चुनौती येदियुरप्पा (जो खुद भाजपा में दिक्कतों से जूझ रहे हैं) नहीं बल्कि डीके शिवकुमार हैं। सिद्धरमैया जहां समाजवादी विचारधारा से कांग्रेस में आए वहीं शिवकुमार हमेशा से कांग्रेस में ही रहे हैं। डीके शिवकुमार ने कॉलेज के दिनों में युवा कांग्रेस की सदस्यता ली थी। वह 1983 से 1985 के बीच युवा कांग्रेस के महासचिव भी रहे। वह पहली बार 1987 में चुनाव जीतकर जिला पंचायत सदस्य बने थे। वह ताकतवर वोक्कालिंगा जाति से आते हैं और 1985 में पहली बार उन्हें सथनूर से इस जाति के दिग्गज नेता एच डी देवेगौड़ा के खिलाफ चुनाव लड़ने के लिए चुना गया था। तब उनकी उम्र 30 वर्ष से कम थी।

आश्चर्य नहीं कि उस चुनाव में उन्हें हार का सामना करना पड़ा। हालांकि, हार का अंतर बहुत अधिक नहीं था। यह अपने आप में मामूली कामयाबी नहीं थी क्योंकि देवेगौड़ा उस समय रामकृष्ण हेगड़े की सरकार में वरिष्ठ मंत्री थे।

परंतु देवेगौड़ा दो निर्वाचन क्षेत्रों से चुनाव मैदान में उतरे थे और उन्होंने सथनूर सीट खाली कर दी थी। उपचुनाव में शिवकुमार ने वहां से जीत हासिल कर ली। इसने देवेगौड़ा परिवार के साथ उनके संघर्ष को जन्म दिया जिसका रूप और आकार बदलता रहा लेकिन बरकरार रहा। यानी लड़ाई बरकरार रही। शिवकुमार ने 1989 के लोक सभा चुनाव में कनकपुरा से देवेगौड़ा को चुनौती दी लेकिन उन्हें फिर हार का सामना करना पड़ा। यह वह दौर था जब देवेगौड़ा सत्ता के शिखर पर थे। इसके बावजूद उन्होंने विधान सभा का भी चुनाव लड़ा और उसमें जीते (1989 में राज्य में लोक सभा और विधान सभा के चुनाव एक साथ हुए थे)। 

परंतु इन हारों के बावजूद शिवकुमार ने बेंगलूरु से लगे हुए ग्रामीण इलाकों में अपना प्रभाव बनाना शुरू कर दिया था। लगभग इसी समय जमीन की कीमतें भी बढ़ रही थीं। शिवकुमार ने खनन तथा उससे संलग्न कारोबारों में भी निवेश किया। 1989 का विधान सभा चुनाव उन्होंने निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में लड़ा और चुनाव जीत गए।

दो साल बाद केवल 31 साल की उम्र में वह राज्य के सबसे युवा मंत्री बने। 1991 से 1992 तक वह एस बंगारप्पा सरकार में मंत्री पद पर रहे। परंतु अब तक उनके पास पर्याप्त संसाधन एकत्रित हो चुके थे। रिकॉर्ड बताते हैं कि 2023 में उनके पास 1,400 करोड़ रुपये की संपत्ति थी। समय के साथ उनका पैसा और संरक्षण दोनों बढ़े। शिवकुमार ने व्यक्तिगत संपत्ति का इस्तेमाल करके राजनीतिक पूंजी बनाई। ये कहानियां सबको पता हैं।

2002 में जब महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री और कांग्रेस नेता स्वर्गीय विलासराव देशमुख सब कुछ होते हुए भी अविश्वास प्रस्ताव में सरकार लगभग गंवाने वाले थे तब कर्नाटक के शहरी विकास मंत्री शिवकुमार ने विधायकों को एकत्रित करके रिसॉर्ट में रखा और उन्हें मतदान के दिन मुंबई ले गए।

स्वर्गीय अहमद पटेल ने 2017 में गुजरात से राज्य सभा सीट जीती और सार्वजनिक रूप से शिवकुमार के प्रति आभार प्रकट किया जिन्होंने गुजरात के 44 विधायकों को ‘सुरक्षित’ रखा।

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परंतु जहां पैसे से बहुत सारी चीजें खरीदी जा सकती हैं वहीं इससे हमेशा नेतृत्व नहीं खरीदा जा सकता है। कर्नाटक की राजनीति पर नजर रखने वाले कहते हैं कि जहां शिवकुमार के पास राजनीतिक प्रभाव है वहीं सिद्धरमैया के पास विधायकों ​के बीच समर्थन है।  इसकी वजह से साल 2023 में चुनाव परिणाम के बाद राज्य में जबरदस्त खेमेबाजी हुई और इसकी वजह से सरकार गठन में देरी हुई। यह दोनों नेताओं के बीच शुरू से ही चल रही खींचतान को दर्शाता है।

राज्य की राजनीतिक परंपरा से देखें तो 2028 में अगले विधान सभा चुनाव में विपक्ष की सरकार बन सकती है। अगर ऐसा होता है तो शिवकुमार को 2033 तक प्रतीक्षा करनी पड़ सकती है।

यही वजह है कि कांग्रेस के कार्यकाल के बीच में ही ऐसे हालात बन रहे हैं। भविष्य में और अधिक बेचैनी नजर आ सकती है।

First Published - July 4, 2025 | 10:18 PM IST

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