आर्थिक मामलों की कैबिनेट समिति ने मुश्किलों से जूझ रही सरकारी कंपनी राष्ट्रीय इस्पात निगम लिमिटेड (आरआईएनएल) को उबारने के लिए 11,440 करोड़ रुपये के वित्तीय पैकेज को मंजूरी दी। यह सरकारी कंपनी विशाखापत्तनम स्टील प्लांट को चलाती है। पैकेज के तहत आरआईएनएल में 10,300 करोड़ रुपये की पूंजी डाली जानी है और 1,140 करोड़ रुपये के कार्यशील पूंजी ऋण को सात फीसदी गैर संचयी वरीयता शेयर पूंजी में बदली जानी है, जिसे 10 साल बाद भुनाया जा सकता है।
इस साल आरआईएनएल की कुल देनदारी बढ़कर 35,000 करोड़ रुपये से ऊपर पहुंच चुकी है। कर्ज अदायगी और ब्याज भुगतान से वह चूक भी चुकी है। इसलिए माना जा रहा है कि इन फैसलों से आरआईएनएल की वित्तीय दिक्कत कम हो सकेगी। साथ ही उसकी कार्यशील पूंजी बढ़ेगी और धीरे-धीरे वह अपनी पूरी क्षमता से चलते हुए सालाना 73 लाख टन स्टील बनाने लगेगी।
परंतु इक्विटी के लिए पैसा कहां से आएगा? इस्पात मंत्रालय के 2024-25 के बजट में आरआईएनएल को यह राशि देने का कोई प्रावधान नहीं है। कंपनी के लिए केवल 620 करोड़ रुपये का पूंजीगत आवंटन किया गया है और यह पूंजी भी सार्वजनिक क्षेत्र की इस कंपनी को ‘अन्य’ मदों से खुद जुटानी है। मुश्किलों से जूझ रहे स्टील प्लांट के लिए भी बजट में केंद्रीय रकम का इंतजाम नहीं किया गया था। बजट भाषण में यह जरूर कहा गया था कि आंध्र प्रदेश में आर्थिक विकास के लिए अतिरिक्त आवंटन किया जाएगा।
ऐसे मामलों में पैसा पूरक अनुदान मांगों के माध्यम से जुटाया जाता है। इसका अर्थ यह भी है कि केंद्र का वास्तविक व्यय बोझ बढ़ेगा। हां दूसरे मदों में इतनी ही रकम बचा ली गई तो केंद्र पर बोझ नहीं पड़ेगा। आरआईएनएल के मामले में अच्छी खबर यह है कि शायद अनुपूरक अनुदान मांग की जरूरत ही न पड़ेगी और कंपनी को दी जा रही राशि केंद्रीय बजट पर बोझ नहीं बढ़ाएगी। 2024-25 के बजट में लगभग 62,593 करोड़ रुपये की राशि नई योजनाओं में पूंजीगत व्यय के लिए आवंटित की गई। नवंबर 2024 खत्म होने तक नई योजनाओं पर इस राशि का बहुत कम हिस्सा खर्च किया गया था। माना जा रहा है कि आरआईएनएल में पूंजी इसी आवंटित राशि से डाली जाएगी और सरकार की व्यय योजना में यह पहले ही शामिल है। इसके लिए अच्छे वित्तीय नियोजन की आवश्यकता है।
बहरहाल इसमें बुरी खबर यह है कि सरकार ने आरआईएनएल के निजीकरण की योजना त्याग दी है। याद रहे कि जनवरी 2021 में आर्थिक मामलों की इसी कैबिनेट समिति ने आरआईएनएल में सरकारी हिस्सेदारी की 100 फीसदी बिक्री को सैद्धांतिक मंजूरी दी थी। खबरों के मुताबिक केंद्रीय मंत्रिमंडल ने वित्त मंत्रालय के एक समूह को अधिकार दिया था कि कि वह संभावित निवेशकों से बात करके यह निर्णय करे कि आरआईएनएल की अनुषंगी कंपनियों को निजीकरण की योजना में शामिल किया जाए या नहीं। आरआईएनएल 2016-17 से ही घाटे में है। केवल 2018-19 में उसने 97 करोड़ रुपये शुद्ध लाभ कमाया था। लागत कम करने की कोशिश में वह कर्मचारियों के लिए स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति योजना भी लाई थी मगर उसके वित्तीय प्रदर्शन पर इसका खास असर नहीं पड़ा।
ऐसा लगता है कि आरआईएनएल के निजीकरण का जनवरी 2021 का निर्णय किसी और युग में लिया गया था। 2021-22 का केंद्रीय बजट इसके कुछ दिन बाद सामने आया था। उसमें भारत पेट्रोलियम कॉरपोरेशन लिमिटेड, एयर इंडिया, शिपिंग कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया, कंटेनर कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया, आईडीबीआई बैंक, भारत अर्थ मूवर्स लिमिटेड, पवन हंस और नीलाचल इस्पात निगम जैसे सार्वजनिक उपक्रमों में रणनीतिक विनिवेश अगले कुछ महीनों में पूरा करने का सरकार का इरादा जताया गया था। एयर इंडिया को जनवरी 2022 में और नीलाचल इस्पात को जुलाई 2022 में टाटा समूह के हाथ बेच दिया गया। मगर बाकी सभी विनिवेश के सौदे या तो अटके हैं या रद्द कर दिए गए हैं।
सरकारी उपक्रमों में रणनीतिक विनिवेश की जिस रणनीति को सरकार से हरी झंडी दी ही, उस पर भी बहुत धीमी प्रगति हुई है। बेशक हाल ही में फेरो स्क्रैप निगम को एक जापानी कंपनी के हाथों 320 करोड़ रुपये में बेचा गया है, लेकिन विनिवेश से हासिल होने वाली राशि के महत्त्वाकांक्षी लक्ष्यों को आम तौर पर घटाया ही गया है और इस साल से तो विनिवेश से मिलने वाली रकम का बजट में अलग से उल्लेख करना ही बंद कर दिया गया है। अब इसे विविध पूंजीगत प्राप्तियों के मद में डाला जा रहा है। सरकार के रुख में इस बदलाव की अनदेखी नहीं की जा सकती।
ऐसे में आरआईएनएल को उबारने की कोशिश इस बात का प्रमाण है कि मोदी सरकार रणनीतिक निवेश की अपनी ही नीति पर कितनी धीमी रफ्तार से चल रही है। आरआईएनएल के मसले पर सरकार के रुख में यह बदलाव 2024 के आम चुनाव के बाद एकदम साफ नजर आने लगा है। उदाहरण के लिए सितंबर 2022 में खबरें आईं कि अदाणी समूह आरआईएनएल को खरीदने की कोशिश कर रहा है। सरकार की रणनीतिक विनिवेश की नीति के तहत जनवरी 2023 में इसका निजीकरण कर दिया जाना था। मगर यह विचार फौरन त्याग दिया गया।
इसके लिए नीतिगत रुख में परिवर्तन जिम्मेदार है या केंद्र में गठबंधन सरकार इसकी वजह है। जून 2024 में सरकार बनाने के लिए क्षेत्रीय दलों की जरूरत पड़ी तो आरआईएनएल को विनिवेश की सूची से तुरंत निकाल दिया गया। आरआईएनएल आंध्र प्रदेश में है, जहां केंद्र की गठबंधन साझेदार तेलुगू देशम पार्टी की सरकार है। सितंबर 2024 में सरकार ने आरआईएनएल का विलय दूसरी सरकारी कंपनी स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया में करने की भी सोची थी। आरआईएनएल की जमीन राष्ट्रीय खनिज विकास निगम के हाथ बेचने पर भी विचार हुआ। मगर आखिर में करदाताओं की रकम झोककर उसे बचा लिया गया।
क्या सरकारी उपक्रमों के पोषण और उनकी परिसंपत्तियों की कीमत बढ़ाने के नाम पर इस नीतिगत बदलाव को सही ठहराया जा सकता है? अपनी निवेश योजनाओं के लिए रकम जुटाने और संसाधन बढ़ाने की सरकारी उपक्रमों की क्षमता पिछले पांच साल में बहुत कम हुई है। उन्होंने 2019-20 में आंतरिक संसाधनों तथा बजट के अलावा संसाधनों से 6.4 लाख करोड़ रुपये निवेश किए थे, जो 2023-24 में 3.2 लाख करोड़ रुपये ही रह गए। इसीलिए केंद्र की बजट सहायता पर उनकी निर्भरता बढ़ती जा रही है। 2023-24 में उनके कुल पूंजीगत व्यय में सरकारी योगदान 61 फीसदी रहा, जो 2019-20 में 25 फीसदी ही था यानी पांच साल में सरकारी उपक्रमों का प्रदर्शन सुधरने के बजाय सरकार पर उनकी निर्भरता बढ़ी है।
पिछले पांच साल में इन सार्वजनिक उपक्रमों में निवेश से उनकी माली सेहत में बिल्कुल सुधार नहीं हुआ। इससे लग रहा है कि कि रणनीतिक विनिवेश की नीति असल में उलटी होकर सार्वजनिक उपक्रमों में रणनीतिक निवेश की नीति बन गई है। 2024-25 में इन उपक्रमों को अपने दम पर 3.7 लाख करोड़ रुपये कमाने थे, जो 5.45 लाख करोड़ रुपये की बजट सहायता के साथ 9.13 लाख करोड़ रुपये के पूंजीगत व्यय में मदद करते।
क्या सरकारी उपक्रम 2025-26 में ज्यादा आंतरिक संसाधन जुटा पाएंगे? अपने पूंजीगत व्यय के लिए सरकारी बजट पर उनकी निर्भरता कम होगी? और क्या सरकार इनके रणनीतिक विनिवेश पर वापस ध्यान देगी? इस बारे में तस्वीर कुछ हद तक 1 फरवरी को साफ होगी, जब वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण 2025-26 का बजट पेश करेंगी। अगर उसमें भी तस्वीर साफ नहीं होती तो बेहतर होगा कि औपचारिक घोषणा कर सार्वजनिक उपक्रमों के रणनीतिक विनिवेश की नीति बदल दी जाए।