देश में आर्थिक वृद्धि बढ़ाने के साथ-साथ राजकोषीय टिकाऊपन पर चर्चा के दौरान कर एवं सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी का अनुपात बढ़ाने पर जोर दिया गया। इसका आधार यह है कि अगर देश को महत्त्वाकांक्षी लक्ष्य हासिल करना है तो सरकारों को महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी। सब्सिडी में कमी और व्यय को युक्तिसंगत बनाने का भी उल्लेख किया गया है लेकिन इन बदलावों को लाने में राजनीतिक अर्थव्यवस्था के सामने जो चुनौतियां हैं वे किसी से छिपी नहीं हैं।
परीक्षण के लिहाज से अहम और दो कर आधार हैं: व्यक्तिगत आय तथा भूमि और संपत्ति। व्यक्तिगत आय कर के मामले में दो विवादित विषय हैं- कृषि आय पर कर और व्यक्तिगत आय कर के अधीन प्रभावी रियायतें। कर आधार को समुचित विस्तार देने के लिए हमें दन दोनों का पुनर्परीक्षण करना होगा।
कृषि आय पर लगने वाले कर पर विचार करें। संवैधानिक रूप से कृषि पर कर लगाने का काम राज्य सरकारों का है। वर्ष बीतने के साथ-साथ राज्य या तो कृषि पर कर नहीं लगा सके या वे इसके इच्छुक नहीं रहे। कृषि पर कर नहीं लगाने की बात को दो श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है: पहला, औसत जमीन का मालिकाना कम है और इसलिए इस क्षेत्र में औसत आय भी काफी कम है। ऐसे में इस पर कर नहीं लगाया जाना चाहिए। दूसरी वजह, कृषि को कर लगाने की दृष्टि से कठिन क्षेत्र माना जाता है क्योंकि इसके लिए किए जाने वाले प्रयासों की तुलना में बहुत कम प्रतिफल हासिल होता है।
इन दलीलों की करीबी जांच से कुछ समस्याएं सामने आती हैं। मौजूदा आयकर व्यवस्था चूंकि गैर कृषि क्षेत्र पर भी लागू है इसलिए इसमें रियायत की एक सीमा तय है। उस खास सीमा से नीचे के किसानों के लिए यानी छोटे किसानों के लिए कोई कर नहीं है। रिटर्न फाइलिंग की स्वैच्छिक प्रवृत्ति को देखते हुए अनुपालन की भी कोई लागत नहीं है। जिनकी सालाना आय तय रियायत से अधिक है उनके साथ देश के अन्य कर चुकाने वाले क्षेत्रों की तरह ही व्यवहार होता है।
इसके अलावा कृषि में दी जाने वाली रियायत से अन्य क्षेत्रों में कर वंचना के अवसर बना सकते हैं जहां आय को गलत तरीके से कृषि आय में दर्शाया जा सकता है। इस बात का उल्लेख किया जाना चाहिए कि कृषि आय को कराधान के तहत लाने से देश में करदाताओं की तादाद भी बढ़ेगी। इससे आय कर व्यवस्था देश के नागरिकों का ज्यादा बेहतर प्रतिनिधित्व कर सकेगी।
बहरहाल इस सुधार को अंजाम देना मुश्किल हो सकता है। इसके लिए केंद्र और राज्य के बीच समझौते पर विचार किया जा सकता है। राज्य या तो खुद राजस्व चयन कर सकते हैं या फिर केंद्र के साथ एक समझौते पर पहुंच सकते हैं जहां वह राजस्व जुटाकर राज्यों को सौंप दे। यह कर आधार बढ़ाने और राज्यों की कर स्वायत्तता के लिहाज से उपयोगी साबित हो सकता है।
दूसरे विवादित मुद्दे यानी व्यक्तिगत आय कर के तहत प्रभावी रियायत की बात करते हैं। करदाताओं के लिए गैर कॉर्पोरेट आय कर व्यवस्था में रियायत की सीमा होती है। सीमा से कम आय वाले व्यक्तियों को कर नहीं चुकाना होता। हमारे देश में रियायत की सीमा समय-समय पर बढ़ाई जाती है। इसके अलावा सरकार निचले कर दायरे वाले लोगों को छूट प्रदान करती है जिससे रियायत की सीमा प्रभावी तौर पर बढ़ जाती है। इससे देश में संभावित करदाताओं की तादाद में कमी आती है।
चुनिंदा वर्षों का उदाहरण लें तो प्रति व्यक्ति आय के प्रतिशत के रूप में प्रभावी रियायत सीमा का अनुपात 200 से 300 फीसदी के बीच रहा है। वित्त वर्ष 2000-01 में यह 238 फीसदी था। 2008-09 में यह बढ़कर 335 फीसदी हो गया, 2015-16 में वह घटकर 251 प्रतिशत रह गया और 2023-24 में यह 236 फीसदी है। अगर प्रति व्यक्ति आय में 8.2 फीसदी की वृद्धि का अनुमान किया जाए तो 2024-25 में यह अनुपात 305 फीसदी होगा। इससे संकेत मिलता है कि अब संभावित करदाताओं की संख्या में कमी आ रही है।
प्रति व्यक्ति आय के लिए छूट की सीमा को कम करने का इकलौता तरीका यही है कि छूट के स्तर को निकट भविष्य में अपरिवर्तित रखा जाए। यहां चुनौती यह है कि कर देने वाले नागरिकों को यह यकीन दिलाया जा सके कि व्यवस्था निष्पक्ष बनी रहेगी। संसद में पेश दस्तावेजों के अनुसार एक-दो फीसदी नागरिक जो कर चुकाते हैं वे साल दर साल कम होती रियायतों को लेकर दुखी हैं।
रियायत सीमा के लिए मुद्रास्फीति समायोजन का इस्तेमाल करने से इस दबाव को कम किया जा सकता है। अतिरिक्त कर जुटाने की जरूरत के अलावा करदाताओं की संख्या में इजाफा कर व्यवस्था को अधिक निष्पक्ष बनाएगा। इसके परिणामस्वरूप कर भुगतान को लेकर दृष्टिकोण को सही दिशा में बढ़ावा मिल सकेगा।
संपत्ति से जुड़े कर में से अधिकांश हिस्सा संपत्ति कर का होता है जो स्थानीय निकाय जुटाते हैं। यह जमीन और इमारतों के मालिकाना हक और इस्तेमाल से संबंधित होता है। इसके अलावा विभिन्न जमीन और इमारतों की खरीद-बिक्री पर स्टांप शुल्क और पंजीयन शुल्क लगाया जाता है। भू-रिकॉर्ड का डिजिटलीकरण सभी संभावित करदाताओं का रिकॉर्ड दर्ज करने की दिशा में उपयोगी कदम है। इन करों को राजस्व का बेहतर स्रोत बनाने के लिए संबंधित कर ढांचे को समझने की आवश्यकता है।
संपत्ति कर और स्टांप शुल्क के सर्किल रेट आमतौर पर नॉमिनल शर्तों पर तय किए जाते हैं। परिसंपत्ति कीमतों या किराये में बदलाव आदि तब तक दर्ज नहीं होते जब तक कि इनमें नियमित रूप से बदलाव नहीं किया जाए। बहरहाल, ऐसे बदलावों का कड़ा प्रतिरोध होता है। अपर्याप्त नागरिक सुविधाओं के कारण संपत्ति कर में इजाफा अस्वीकार्य होता है। संस्थागत मुद्रास्फीति सुधार भी दरों में इजाफे की व्यवस्था से दूर जाने का एक तरीका हो सकता है। इसके अलावा भू-राजस्व को भी राजस्व का जरिया बनाने की भी जरूरत है। बमुश्किल पांच ऐसे राज्य हैं जो अपने कर राजस्व का दो फीसदी हिस्सा भू-राजस्व से हासिल करते हैं।
शहरी और अर्द्धशहरी इलाकों में आबादी का घनत्व तथा आजीविका के लिए कृषि पर अत्यधिक निर्भरता ने भू संबंधी सुधारों को बहुत विवादास्पद बना दिया है। जमीन को कृषि भूमि से अन्य इस्तेमाल में परिवर्तित करना इसलिए दिक्कतदेह है क्योंकि खेती पर बहुत अधिक निर्भरता है। केवल कराधान में बदलाव अर्थव्यवस्था के ढांचे को बदलने के लिए पर्याप्त नहीं है। जबकि लोगों की विकास संबंधी जरूरतों के लिए स्थायी राजस्व जुटाने के लिए वह आवश्यक है। किसी भी प्रस्तावित सुधार का विश्लेषण इसी नजरिये से होना चाहिए।
(लेखिका एनआईपीएफपी, नई दिल्ली की निदेशक हैं)