चीन की एक कंपनी ने ऐलान किया कि आर्टिफिशल इंटेलिजेंस (एआई) का उसका नया उत्पाद डीपसीक अमेरिकी एआई टूल चैटजीपीटी से बहुत अच्छा है। उसके बाद से ही मीडिया में इस पर शोरगुल मचा हुआ है। कई खबरों की सुर्खियों में कहा गया, ‘चीन के एआई चैटबॉट ने चैटजीपीटी को पछाड़ा!’ कुछ खबरें तो और भी आगे निकल गईं। मसलन बीबीसी ने लिखा, ‘डीपसीक दिखाता है कि एआई की ताकत का केंद्र अब अमेरिका से दूर जा सकता है।’ सीबीएस न्यूज ने कह डाला, ‘अमेरिकी अधिकारियों का कहना है कि डीपसीक एआई से राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए चिंता बढ़ गई है।’ ऐसी न मालूम कितनी खबरें और सुर्खियां आईं। ऐसे में आपके मन में यह सवाल उठना लाजिमी है कि इतना शोरगुल क्यों हो रहा है और अमेरिका जैसा ताकतवर देश किसी नए सॉफ्टवेयर उत्पाद की ईजाद से खतरे में कैसे पड़ सकता है।
उदाहरण के लिए आप पूछ सकते हैं कि लोगों को चिंता क्या इसीलिए हो रही है क्योंकि डीपसीक ऐप मुफ्त है और ओपन सोर्स भी है। तब शायद आपको यही बताया जाएगा कि डीपसीक मुफ्त और ओपन सोर्स हो सकती है क्योंकि चीन की सरकार गुपचुप तरीके से इसे सब्सिडी दे रही है और दुनिया को बता नहीं रही है। आप यह भी पूछ सकते हैं कि डीपसीक और चैटजीपीटी की यह लड़ाई क्या चीन और अमेरिका के बीच टिकटॉक बनाम व्हाट्सऐप या बाइदू सर्च इंजन बनाम गूगल सर्च जैसे अतीत के टकरावों जैसी ही नहीं है? तब शायद आपको यही समझा दिया जाएगा कि चिंता मत कीजिए। कुछ समय बाद चैटजीपीटी बिल्कुल उसी तरह डीपसीक से आगे निकल जाएगा, जैसे गूगल ने बाइदू को पछाड़ दिया था।
हममें से जो लोग तकनीक को अधिक जानते-समझते हैं उनके मन में सवाल आ सकता है कि चैटजीपीटी के दौर के एआई से अगर 2025 के अंत तक ग्राहक सेवा प्रतिनिधि, बैंक क्लर्क, अकाउंटेंट और शिक्षक जैसी 8.5 करोड़ नौकरियां खत्म होने की बात कही जा रही है तो यह डीपसीक तो पता नहीं क्या कर देगा? यह तो मुफ्त है तो क्या यह चैटजीपीटी से भी ज्यादा तेजी से फैलकर और भी ज्यादा नौकरियां खत्म कर देगा? या चूंकि डीपसीक चीन का है, इसलिए चीन सरकार भारत जैसे देशों में इसका इस्तेमाल राजनीतिक मकसदों के लिए करेगी?
यह सब तो नहीं पता मगर एक बात मुझे तय लग रही है: जो तकनीकी समुदाय चैटजीपीटी की इस दीवानगी को भुनाने की और इसके जरिये अपने कारोबार के लिए बेशुमार पूंजी जुटाने की तैयारी कर रहा था उसकी राह में बड़ा रोड़ा आ गया है। रॉयटर्स ने 27 जनवरी को शेयर बाजार में हुई उठापटक का जिक्र करते हुए लिखा, ‘सोमवार को एनवीडिया का बाजार मूल्य 17 फीसदी यानी करीब 593 अरब डॉलर घट गया। इससे पहले किसी भी कंपनी को एक दिन में इतना ज्यादा नुकसान नहीं हुआ था। इस दौरान सेमीकंडक्टर, बिजली और बुनियादी ढांचा क्षेत्रों में एआई से जुड़ी कंपनियों के शेयरों की कीमत में 1 लाख करोड़ डॉलर से ज्यादा कमी आई।’
परंतु इससे भी ज्यादा चौंकाने वाली बात यह है कि डीपसीक तैयार करने वाली टीम ने 60 लाख डॉलर से भी कम खर्च में यह मॉडल तैयार करने का दावा किया है। ओपनएआई और दूसरे मॉडलों के अरबों डॉलर के बजट के सामने यह रकम कुछ भी नहीं है। चैटजीपीटी बनाने वाली कंपनी ओपनएआई अरबों डॉलर पहले ही जुटा चुकी है और खबर है कि निवेशकों से 6.5 अरब डॉलर और जुटाने के लिए उसकी बात चल रही है। इसके अलावा वह बैंकों से 5 अरब डॉलर कर्ज देने की बात भी कर रही है।
जब मैं यह सब पढ़ता और समझता हूं तो बरबस ही मुझे अतीत में हुई तकनीकी क्रांतियों के इतिहास पर चल रहे अपने शोध का ख्याल आ जाता है। उदाहरण के लिए कपड़ा उद्योग में हुई क्रांति को ही लेते हैं, जो 18वीं सदी के उत्तरार्द्ध में ब्रिटेन के मैनचेस्टर इलाके में हुई थी। इतिहास की पुरानी किताबों में इस क्रांति का श्रेय जेम्स हरग्रीव्स की स्पिनिंग जेनी जैसी मशीनों के आविष्कार को दिया जाता है, जो एक बार में ही कई धागे तैयार कर सकती थी। रिचर्ड अर्कराइट के वाटर फ्रेम को भी इसका श्रेय दिया जाता है, जो हाथ के बजाय पानी की ताकत से चलने वाली पहली कपड़ा मशीन थी। माना यही जाता है कि ब्रिटेन का बाजार उस समय भारत के हथकरघे से बने सूती कपड़े से अटा पड़ा था और जिसे पहनना वहां की अमीर महिलाएं शान की बात समझती थीं, उसके दबदबे को ब्रिटेन ने इसी तरह की मशीनों के जरिये खत्म किया। जो महिलाएं भारत के सूती कपड़े से बनी पोशाकों की दीवानी थीं उन्हें ‘कैलिको मैडम’ का नाम ही दे दिया गया था क्योंकि शुरू में इस कपड़े का आयात कालीकट से ही होता था, जिसे अब कोझिकोड कहा जाता है। जैसा मैंने कहा, पुरानी लीक पर लिखी गई किताबों में हमें बताया गया है कि ब्रिटेन में इन कपड़ा मशीनों के आविष्कार ने भारत से सूती कपड़े और धागे का आयात रोकने में ही मदद नहीं की बल्कि ब्रिटिश कारोबारियों को भारत के बाजार का बड़ा हिस्सा भी दिलवा दिया। उनका कहना था कि इन मशीनों से कपड़ा तैयार करना बहुत सस्ता पड़ता है। सस्ता भी तब पड़ता था, जब पूरा काम ब्रिटिश मजदूर करते थे, जिनकी मजदूरी भारतीय मजदूरों के मुकाबले बहुत अधिक थी। उनका दावा था कि किफायत इसलिए है क्योंकि ये मशीनें बहुत कुशलता से काम करती हैं। तकनीक का सिद्धांत यही था – श्रम पर होने वाला खर्च बचाती है और उत्पादन कई गुना बढ़ा देती है।
मैंने अपने शोध में 18वीं सदी के मध्य की खबरों और उस समय के विद्वानों (आधिकारिक इतिहासकारों नहीं) के लेखों का अध्ययन किया है, जिनसे मुझे पता चला कि ब्रिटिश सरकार ने सबसे पहले भारतीय कपास से बने सामान पर 40 से 70 फीसदी आयात शुल्क लगा दिया, जिस कारण भारतीय कपास या सूती कपड़े का आयात बहुत कम हो गया। इतना करने पर भी जब वे भारतीय सूती कपड़े और धागे की गुणवत्ता तथा दाम की बराबरी नहीं कर पाए तो उन्होंने अफ्रीका से मंगाए गुलामों की मदद से अमेरिका में कपास उगाना शुरू कर दिया। इन दो तरीकों से वे भारतीय सूती माल की कीमत और गुणवत्ता का मुकाबले कर पाए।
मेरा शोध अब नील क्रांति जैसी दूसरी तथाकथित तकनीकी क्रांतियों की ओर जा रहा है, जिसके विरोध में गांधी जी को चंपारण सत्याग्रह करना पड़ा था। मेरे शोध में बिजली, वाहन और इलेक्ट्रिक पावर जैसी हालिया क्रांतियां भी हैं। मैं देख रहा हूं कि कपड़ा क्रांति की ही तरह इनमें से हरेक को केवल आविष्कार और आविष्कारकों के दम पर नहीं बल्कि कई सामाजिक और कानूनी कारकों से सफलता मिली।
इसलिए राजनीतिक, आर्थिक और समाजशास्त्रीय कारकों की गहराई से पड़ताल कीजिए क्योंकि एआई पर दिख रहे इस क्रांतिकारी उत्साह के पीछे वे ही काम कर रहे हैं। यह समझना जरूरी है कि यहां कौन से कारक काम कर रहे हैं। हमें केवल सुर्खियों पर नहीं रीझ जाना चाहिए बल्कि यह समझने के बाद अपने नागरिकों और नीति निर्माताओं को भी समझाना चाहिए।