केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) की विशेष अदालत के न्यायाधीश एस के यादव ने एक उल्लेखनीय फैसले में सभी 32 लोगों को बरी कर दिया। इन सभी लोगों पर 6 दिसंबर, 1992 को अयोध्या में 400 वर्ष पुरानी बाबरी मस्जिद को ढहाने का आपराधिक षड्यंत्र करने का आरोप था। आरोपितों में भारतीय जनता पार्टी के कद्दावर नेता रहे लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती और उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के नाम शामिल थे। बरी करते वक्त अदालत की प्रमुख दलील यह थी कि ढांचे को ढहाने की पूर्व योजना तैयार करने का कोई प्रमाण नहीं था और उनमें से कई ने भीड़ को रोकने का प्रयास किया था।
इस आपराधिक मामले का इतिहास भी त्रासद है और इसे निपटने में 28 वर्ष का समय लगा। सन 2017 में सर्वोच्च न्यायालय के दो न्यायाधीशों के पीठ ने सीबीआई की अपील पर आरोपितों के खिलाफ षड्यंत्र के आरोप बहाल किए थे। यह अपील इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा उन्हें आरोप मुक्तकिए जाने के बाद की गई थी। इससे पता चलता है कि सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को मामले में कुछ ठोस नजर आया था। बहरहाल, सीबीआई की विशेष अदालत ने कहा कि सीबीआई ने जो वीडियो और ऑडियो क्लिप पेश किए हैं उनकी प्रमाणिकता साबित नहीं हो सकती और मस्जिद के गुंबद पर चढ़कर उसे ढहाने वाले ‘असामाजिक तत्त्व’ थे। संभव है कि उक्त क्लिप्स पूर्व योजना को निर्णायक रूप से स्थापित न कर पाई हों लेकिन अदालत ने शायद इस बात की छानबीन नहीं की कि आखिर 3 लाख ‘असामाजिक तत्त्व’ जिन्हें संघ परिवार कार सेवक कहता है, अयोध्या में 6 दिसंबर की तारीख के आसपास एकत्रित कैसे हुए।
यह भी स्पष्ट नहीं है कि आखिर जो श्रद्धालु सांकेतिक पूजा के लिए एकत्रित हुए थे उनके पास कुदाल, रस्सी, फावड़ा, लोहे की रॉड और विस्फोटक कहां से आए। इन्हीं हथियारों की मदद से मध्यकालीन मस्जिद की मोटी दीवारों को चंद घंटों में गिरा दिया गया। बल्कि वहां तो बुलडोजर भी थे जिनकी मदद से अस्थायी मंदिर के लिए मलबे को समतल किया गया। यह समझना बेहद मुश्किल है कि बिना पूर्व योजना के इतने बड़े पैमाने पर इमारत ढहाने के लिए जरूरी उपकरणों से लैस भीड़ कैसे एकत्रित हुई। लिब्रहान आयोग ने दलील और प्रमाण मुहैया कराए जो बताते हैं कि आरोपितों ने ऐसा वैचारिक खाका तैयार किया जो मस्जिद को गिराने और मंदिर निर्माण की वजह तैयार करता था। जैसा कि जांच रिपोर्ट में कहा गया रथ यात्रा इस कवायद की दिशा में ही एक संकेत थी। भारतीय जनता पार्टी के अन्य दिग्गज नेताओं ने भड़काऊ भाषणों के माध्यम से इसे बढ़ावा दिया। सीबीआई ने इसी आधार पर आपराधिक षड्यंत्र के आरोप की बुनियाद रखी। एक ऐसे आयोजन में उनकी मौजूदगी की यकीनन गहरी जांच होनी चाहिए थी जहां शांतिपूर्ण यज्ञ के अलावा भी उद्देश्य जाहिर थे।
अदालत द्वारा सबूतों की कमी की बात 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले की याद दिलाती है। 2017 में उस मामले में भी सीबीआई अदालत ने ऐसी ही दलील के साथ ढेर सारे आरोपितों को बरी कर दिया था। न्यायाधीश ने विश्वसनीय आरोप पत्र तैयार न कर पाने के लिए सीबीआई की तीखी आलोचना की थी। न्यायाधीश ओम प्रकाश सैनी ने जांच एजेंसी की बुनियादी प्रक्रियागत खामियों की ओर ध्यान आकृष्ट किया था जिसके कारण प्रमाण पेश नहीं किए जा सके। दोनों मामले देश की सर्वोच्च जांच एजेंसी की दयनीय दशा की ओर इशारा करते हैं। यह सत्ता प्रतिष्ठानों पर भी प्रश्नचिह्न है जिन्होंने इसे स्वतंत्र नहीं रहने दिया। सर्वोच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने एक बार सीबीआई की तुलना ‘पिंजरे में बंद तोते’ से की थी। ताजा निर्णय बताता है कि यह बतौर तोता भी कार्यकुशल नहीं है।
