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जलवायु परिवर्तनः अब हाशिये का मुद्दा

देश में लगभग 5,000 डेटा केंद्र हैं जो इसकी ग्रिड आधारित बिजली का 3 फीसदी इस्तेमाल करते हैं। इसके तेजी से बढ़ने की उम्मीद है।

Last Updated- April 20, 2025 | 10:08 PM IST
Editorial: 2024 the hottest year ever, concrete steps needed to deal with climate crisis 2024 अब तक का सबसे गर्म साल, जलवायु संकट से निपटने के लिए ठोस कदम की जरूरत
प्रतीकात्मक तस्वीर

यह ऊर्जा बदलाव का वक्त नहीं है बल्कि यह ऊर्जा में वृद्धि करने का वक्त है। यह बात अमेरिका के ऊर्जा मंत्री क्रिस राइट ने पिछले महीने ह्यूस्टन में हुए सबसे बड़े ऊर्जा सम्मेलनों में से एक सीईआरएवीक में तालियों की गड़गड़ाहट के बीच कही। पूरा कमरा ऊर्जा कंपनियों के दिग्गज प्रमुखों और क्षेत्र के विशेषज्ञों से भरा हुआ था। पूरे हफ्ते पर चले सम्मेलन में भाग लेने के बाद यह बात मुझे अच्छी तरह से स्पष्ट हो गई कि हमारी दुनिया अब बदल गई है।

यह समझना महत्त्वपूर्ण है कि जलवायु परिवर्तन नीतियों को क्यों और किस तरह से पूर्ण रूप से खारिज किया जा रहा है जबकि दुनिया तेजी से गर्म हो रही है और सभी जगह मौसम का विनाशकारी प्रभाव देखने को मिल रहा है। यह सिर छिपाकर इस भ्रम में बने रहने का समय नहीं है कि डॉनल्ड ट्रंप प्रशासन की ऊर्जा नीति अपनी और हमारी दुनिया में बड़े बदलाव नहीं लाएगी।

सवाल यह है कि आखिर इस बदलाव का कारण क्या है? पहला, अमेरिका का सकल राष्ट्रीय ऋण 36 लाख करोड़ डॉलर तक पहुंच गया है और ब्याज भुगतान, देश के रक्षा खर्च से भी अधिक है। शायद इसीलिए अमेरिकी ऊर्जा मंत्री के शब्दों में इसका जवाब ‘औद्योगिकी गतिविधियों का कम होना’ नहीं बल्कि ‘दोबारा औद्योगीकरण’ करना है।

घरेलू क्षेत्रों में विनिर्माण पर जोर देने पर अधिक ऊर्जा खपत और अधिक ऊर्जा बुनियादी ढांचे की आवश्यकता होगी। दूसरा, चीन ने आपूर्ति श्रृंखलाओं और इलेक्ट्रिक वाहनों के निर्माण से लेकर सौर ऊर्जा तक कई नए क्षेत्रों में बढ़त हासिल कर ली है। ट्रंप प्रशासन का कहना है कि वह आर्टिफिशल इंटेलिजेंस (एआई) की दौड़ में चीन से पीछे नहीं रह सकता है। इसका मतलब है अब तक की सबसे तेज रफ्तार से ऊर्जा डेटा केंद्र बनाए जाएंगे। देश में लगभग 5,000 डेटा केंद्र हैं जो इसकी ग्रिड आधारित बिजली का 3 फीसदी इस्तेमाल करते हैं। इसके तेजी से बढ़ने की उम्मीद है और अनुमान है कि इस दशक के अंत तक डेटा केंद्र 8-12 फीसदी बिजली की खपत करेंगे। इसका मतलब है कि अधिक बिजली उत्पादन करना होगा।

अब जब देश उत्पादन के लिहाज से अपने चरम वृद्धि दर पर पहुंच गया है तब बिजली की मांग लगभग स्थिर हो गई। लेकिन अब इसके फिर से बढ़ने की उम्मीद है। अब इस ‘नई’ बिजली उत्पादन का स्रोत क्या होगा? ट्रंप प्रशासन का कहना है कि वह इस बिजली आपूर्ति के लिए अक्षय ऊर्जा पर निर्भर नहीं रह सकता है। क्रिस राइट ने सम्मेलन में मौजूद श्रोताओं को कहा था कि भारी निवेश के बावजूद अक्षय ऊर्जा ने अमेरिका की ऊर्जा मांग का केवल 3 फीसदी ही पूरा किया और इसलिए ऊर्जा परिवर्तन वास्तविक नहीं है। यह बात निश्चित रूप से भ्रामक है क्योंकि बिजली उत्पादन के मामले में अक्षय ऊर्जा ने अब अमेरिका में कोयले को पीछे छोड़ दिया है जो पिछले वर्षों में बिजली में 15-17 फीसदी योगदान दे रही है। लेकिन अगर परिवहन और उद्योग में तेल की खपत सहित सभी ऊर्जा को माप के रूप में लिया जाए तो ऊर्जा मिश्रण में अक्षय ऊर्जा की हिस्सेदारी कम हो जाती है।

लेकिन ट्रंप प्रशासन के लिए यह सिर्फ शब्दों का खेल नहीं है। वह इस बात पर दृढ़ है कि पिछली सरकार की ऊर्जा नीतियों को बदलने की आवश्यकता है, जो ‘सीमित जलवायु परिवर्तन पर केंद्रित’ थीं। यह भी कहा गया है कि इससे बिजली की लागत में वृद्धि हुई जिससे परिवारों पर बोझ बढ़ गया है। (हालांकि इससे जुड़े कोई आंकड़े नहीं हैं जो इसकी पुष्टि करें लेकिन यह खेल वास्तव में धारणा और विश्वास से जुड़ा है)। ऐसे में ऊर्जा वृद्धि, प्राकृतिक गैस ( जीवाश्म ईंधन) से होगी और कोयले की वापसी होगी। दिलचस्प बात यह है कि अमेरिकी प्रशासन इसके उत्पादन को बढ़ाने के लिए सभी जरूरी चीजें तेजी से कर रहा है। इससे ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन बढ़ेगा, लेकिन ऊर्जा मंत्री ने कहा है कि कार्बन डाइऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड की तरह प्रदूषक नहीं है। जलवायु परिवर्तन अमेरिका की योजनाओं में महज एक फुटनोट की तरह ही हाशिये का मुद्दा है। हालांकि इसका मतलब यह नहीं है कि जलवायु परिवर्तन को पूरी तरह से नजरअंदाज किया जा रहा है। अमेरिका के मुताबिक प्राकृतिक गैस का निर्यात, भारत जैसे स्थानों पर कोयले की जगह लेगा क्योंकि यह कम प्रदूषित है और मौजूदा अमेरिकी प्रशासन द्वारा प्राकृतिक गैस के निर्यात पर जोर दिया जा रहा है।

प्राकृतिक गैस उत्पादन और खपत से मीथेन उत्सर्जन को कम करने के लिए निवेश की भी कुछ चर्चा चल रही है लेकिन इसमें ज्यादा गंभीरता नहीं है क्योंकि इस प्रशासन में जलवायु कार्रवाई के लिए वास्तव में कोई प्रेरणादायक बातें नहीं बची हैं। अब पूरा ध्यान परमाणु ऊर्जा पर है विशेष रूप से छोटे मॉड्यूलर संयंत्रों पर, जो डेटा केंद्रों को स्थानीय स्तर पर बिजली की आपूर्ति कर सकते हैं।

चीन (और रूस) सैकड़ों गीगावाॅट वाले परमाणु संयंत्र बना रहा है और यह उम्मीद है कि अमेरिका भी फ्यूजन या फिजन परमाणु प्रौद्योगिकी के साथ इसमें शामिल होगा। लेकिन एक बाद स्पष्ट है कि ग्रीन हाइड्रोजन बिजली का वादा ठंडे बस्ते में चला गया है। इसलिए, बात वापस जीवाश्म ऊर्जा पर आ गई है और इस बार दुनिया को जलवायु खतरे में ले जाने की अमेरिका की जिम्मेदारी के लिए कोई माफी नहीं होगी।

यही अहम बात है। वर्ष 2030 तक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में प्रस्तावित 50 फीसदी की कमी के बजाय पूरी संभावना है कि देश अपना उत्सर्जन बढ़ाएगा। तथ्य यह है कि अमेरिका पहले ही वैश्विक कार्बन बजट के अपने हिस्से से अधिक का उपयोग कर चुका है और अब यह और अधिक उपयोग करेगा।

सवाल यह है कि बाकी दुनिया का क्या होगा खासतौर पर भारत या अफ्रीका जैसे देशों का जिन्हें विकास के लिए अधिक ऊर्जा संसाधनों की आवश्यकता है? योजना यह थी कि अमेरिका जैसे देश जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल से बाहर निकलकर अपना हिस्सा कम करेंगे। लेकिन अब जब अमेरिका पूरे जोर के साथ इसमें वापसी करेगा तब दुनिया को 1.5 डिग्री सेल्सियस तापमान वृद्धि से नीचे रखने की सुरक्षा का लक्ष्य लगभग असंभव लगता है।

First Published - April 20, 2025 | 10:08 PM IST

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